Monday, October 29, 2018

कवि,कविता और कुछ बातें


मूलत: कवि
कम बचे है अब
जो बचे है
वो थोड़े मूलत: कवि है
थोड़े कविता के जानकार
**
निजी कविताओं के
पाठक कम बचे है
जो बचे है
उनकी निजता खो गई है
निजी कविताओं के बहाने
**
कविता लिखी नही जाती
कविता आती है
और निकल जाती है कवि के आर-पार
मनुष्य और कवि में विभाजन रेखा
देखनें के लिए
कविता की मदद ली सकती है हमेशा.
**
एक कवि
कविता लिखता है
एक कविता पर बात करता है
और एक कविता का आन्दोलन करता है
तीनों को छोड़कर कविता
पाठक के पास चली जाती है
फिर हंसती है कवि के संताप पर
कविता का हंसना
कवि के रोने में देखा जा सकता है साफ-साफ.
**
कविता कवि का करती है चुनाव
और कवि मानता है उसे अपनी कविता
मगर
दोनों ही वास्तव में एकदूसरे से होते है
गहरे अजनबी
कवि यह बात जानता है
कविता यह बात कभी जानना नही चाहती.
**
एकदिन धरती से खत्म हो जाएंगी
कविताएँ
तब कहानी रोया करेगी अपने एकांत में
कवि देखा करेंगे आसमान
अपनी कविताओं के पदचिन्ह
और ईश्वर से माँगा करेंगे
पुनर्जन्म की भीख.


© डॉ.अजित   

Saturday, October 27, 2018

चेहरें

कुछ फोटो में
पिता नही थे
जबकि असल में वो थे

कुछ फोटो में
माता नही थी
जबकि असल में वो थी

कुछ फोटो में
पति नही थे
जबकि असल में वो थे

कुछ फोटो में
पत्नी नही थी
जबकि असल में वो थी

कुछ फोटो में भाई नही था
जबकि असल में वो था
कुछ फोटो में बहन नही थी
जबकि असल में वो थी

कुछ फोटो में केवल वो था
जबकि असल में वो नही था

प्रत्येक फोटो में
कोई उपस्थित था
तो कोई अनुपस्थित

ऐसे विरले फोटो थे
जिसमें सब एक साथ रहे हो

फोकस की अपनी सीमाएं थी
जो उसके दायरे में था
वही आता था नजर

आउट ऑफ फोकस
इतने चेहरे थे कि
उन्हें मिलाकर बन सकता था
एक स्वतंत्र देश

मगर इसलिए नही बन सका
क्योंकि आपस में मिलती थी
सबकी शक्लें

अपने पराए के भय से
नही बन सका वो देश
जहां का हर नागरिक निर्वासित था।

©डॉ. अजित

विवाह और प्रेम: कुछ विवादास्पद स्थापनाएं

विवाह और प्रेम: कुछ विवादास्पद स्थापनाएं
--

विवाह के पक्ष
और विपक्ष मे
देखे/पढ़ें जा सकते है
अनेक तर्क-वितर्क
प्रेम का नही होता है
कोई विपक्ष
इसलिए
यह बनाता है व्यक्ति को अधिनायक
**
विवाह मे प्रेम न हो
या प्रेम की परिणिति विवाह में न हो
खुद को अधूरा समझते है लोग
दरअसल
प्रेम और विवाह दोनों ही होते
एक वृत्त की तरह
जहां से चलतें है एक दिन
लौटकर आना होता है वहीं.
**
कुछ प्रेमियों ने
विवाह किया
और प्रेम को भूल गए
कुछ लोगो ने विवाह किया
और प्रेम को तलाश्तें रहें
दोनों किस्म के लोग
आपस में कम ही मिलें
मगर जब भी मिलें
एक दूसरे को देखकर कहा
‘धप्पा’
**
सभी विवाहित
दुखी है
ऐसी ध्वनि
लोक के सस्ते चुटकुलों में
मिलेगी हमेशा
सभी प्रेमी विशिष्ट है
ऐसी ध्वनि
प्रेम कविताओं में
मिलेगी हमेशा
विवाह और प्रेम
यथार्थ की तराजू में टंगे मिलेंगे सदा
सुख या दुःख
दरअसल इस तराजू का पासंग है.
**
मैंने पूछा
जिससे प्रेम किया
क्या उसी से विवाह किया तुमनें?
उसनें बदलें में यह नही पूछा
जिससे विवाह किया
क्या उसी से प्रेम करते हो तुम?
प्रेम का सबसे बड़ा आदर यही था.

© डॉ. अजित

नोट- ( सुदर्शन शर्मा जी की कविता पढ़कर उपजे कुछ कवितानुमा फुटकर ख्याल)

Wednesday, October 24, 2018

कुछ बीमारी:कुछ कविताएं

कुछ बीमारी: कुछ कविताएं
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आँखों के सामने
तेजी से बदलतें है दृश्य
अंधेरा-रौशनी मिलकर
खेलते है आइस-पाइस
अपने ही ग्रह से
उखड़ने लगते है पांव
गुरुत्वाकर्षण छोड़ देता है साथ
गिरने से नही, सम्भलने से लगता है डर
विज्ञान इसे चक्कर कहता है
जिसके हो सकते है
एक से अधिक कारण
मैं अज्ञानी बन मूंद लेता हूँ आँखें
सुनता हूँ कान में
तुम्हारी चैतन्य, मगर मद्धम आवाज़
गिरने का भय
सम्भलनें का प्रशिक्षण है।
**
पिछले दिनों
मेरी एक कंधे की
एक हड्ड़ी चटक गई
जिम्मेदारी जब चटकती है
तब चटक जाते है
आसपास के नजदीकी तंतु भी
दर्द से करहाते वक्त
अपनी देह से की मैंने
सबसे गहरी बात
जिसका नही मिला कोई जवाब
जितना एकतरफा बातें करता हूँ मैं
सब मेरे अंदर से
कुछ चटक जाने का परिणाम है।
**
शिरा और धमनी
का अंतर नही है मुझे ज्ञात
भूल गया हूँ
मैं विज्ञान के आरंभिक सभी पाठ
वसा जमनें लगा है मेरे अंदर
रक्त प्रवाह को कर सकता है अवरुद्ध
ऐसा बताया मेरे डॉक्टर ने
साथ चेताया मुझे कि
हृदय केवल आघात से मरता है
मैं कहने ही वाला था कि
हृदय मरता है प्रेम में उपेक्षा से भी
मगर चुप रह गया यह सोचकर
क्या पता विज्ञान न मानता हो प्रेम।
**
देह नश्वर है
एकदिन नष्ट हो जानी है
अपनी यात्रा पूर्ण करके
दर्शन पढ़कर हो जाता हूँ
मैं थोड़ा बेफिक्र
व्याधियां जब घेरती है मुझे
दर्शन नही विज्ञान आता है याद
दर्शन और विज्ञान
आगे पीछे खड़े है मेरे
मैं दोनों के मध्य
पंजो के बल उचक-उचक कर
देख रहा हूँ दुनिया
इसलिए
मेरे व्यक्तित्व का एक दर्शन
और कृतित्व का है एक विज्ञान।
**

©डॉ. अजित



Monday, October 15, 2018

दिल की बेकली


शराब पीकर वो पूछता था
लोगो के फोन नम्बर
ताकि दिल की बेकली के साथ
किसी दिन कर सके वो बात

चाय पीकर वो पूछता
लोगो के घर के पते
ताकि लिख सके फुरसत में खत

पानी पीकर वो पूछता था
घर के राजी-खुशी का समाचार
ताकि जान सके सुख-दुःख के सूचकांक

न उसनें कभी किसी को फोन किया
न कभी किसी को कोई खत लिखा
नही था उसके पास दुखों का को ज्ञात समाधान
सुखों का था वो सबसे बोझिल श्रोता

उसके पूछने को लिया जाता था
इतने हल्के में कि
हंस पड़ता था फोन नम्बर बताने वाला
विषय बदल देता था घर का पता बताने वाला
सुख-दुःख से इतर दर्शन की बातें करने लगता था
घर की राजी-खुशी बताने वाला

जब उसने पूछना कर दिया बंद
तब लोग बताते थे खुद का फोन नम्बर
घर का पता
और दिखाते थे सुख-दुःख के सच्चे मानचित्र

चीजें उसके पास आती थी
तब लौटकर
जब वो खो चुकता था उनमें
अपना आकर्षण

इस तरह से मतलबी समझा गया उसे
और दुनियावी ढंग से बेकार
शायद तभी
अधूरी रह गई
कुछ बात
कुछ खत
और कुछ सलाहितें

इस तरह पूरा हुआ एक
आधा-अधूरा इन्सान.

© डॉ. अजित


नाराजगी


एक दोस्त नाराज़ है
कुछ दोस्त नाराज़ है
सभी दोस्त नाराज़ है
कोई दोस्त नाराज़ नही है
ये किसी प्रतियोगी परीक्षा का
तर्क शक्ति के परीक्षण से जुड़ा प्रश्न नही है
बल्कि ये जीवन से जुड़ा एक अहम सवाल है

मैं इसे तर्क की नही
दिल की दृष्टि से देखने की करता हूँ कोशिश

नाराजगी जब आती है तर्क पर होकर सवार
तब दिल हो जाता है एकदम लाचार

नाराजगी एक घटना है
नाराजगी एक निर्णय है
नाराजगी एक पलायन है
नाराजगी एक मनोदशा है
या फिर
नाराजगी एक अस्थायी वस्तु है

दरअसल, नाराजगी कोई वस्तु नही है
इसलिए नाराजगी की वजह होती है थोड़ी तरल

जो बहती है बिना किसी ढ़लान के

नाराजगी से बने गलियारे
भीगते रहते है हर छ्टे छमाही
करके अच्छी-बुरी बातें याद

दोस्तों की बीच नाराजगी
कोई नई बात नही होती
मगर ये इतनी भी नई नही होती कि
जिसकी बिलकुल न आए याद

नाराजगी बने रहना प्रेम का प्रमाण है
और नारजगी का टिके रहना
कर देता है हर किस्म के प्रमाण को ध्वस्त
इसलिए हमेशा रहती है अज्ञात
नाराज दोस्त की नाराजगी की असल वजह.

© डॉ. अजित



Monday, October 8, 2018

खोना-पाना

उसने कहा
यदि तुम होते
तो होते एक बेहद खराब प्रेमी
मैंने हंसते हुए
ये तो अच्छा ही हुआ
मैं नही हूँ प्रेमी
उसने थोड़ा उदास होकर कहा
इतना भी अच्छा नही है
तुम दोस्त हो
बस इसलिए लगता है अच्छा।
**
मैंने पूछा
दोस्त और प्रेमी में
क्या फर्क होता है तुम्हारे हिसाब से
उसने कहा
हिसाब-किताब में कमजोर हूँ मैं
बस इतना पता है
अगर नही होता कोई फर्क
तो फिर ये सवाल न करते तुम।
**
चाय पीने के बाद
कप को धोते समय मैंने कहा
चाय पीने के बाद
कितने अकेले हो जाते है कप
उसने कहा
हां !अकेला होना
उस हर चीज की नियति है
जिसे ज्यादा करीब ले आते है हम।
**
अचानक उसने पूछा
तुमनें आज तक
अपनी सबसे प्रिय चीज क्या खोई है?
मैंने कहा
ठीक-ठीक बता नही सकता
क्योंकि खोने बाद पता चला मुझे
ये चीज प्रिय थी मुझे
और तुमनें?मैंने उसका सवाल दोहराया
शायद तुम
मगर ये बात पहले से पता थी मुझे
उसनें हंसते हुए जवाब दिया।

©डॉ. अजित

Sunday, October 7, 2018

घर तोड़ने वाली स्त्रियां

उन्हें घर तोड़ने वाली
स्त्रियां कहा जाता था लोक में
मगर वे थीं
वक्त से लड़ते किसी पुरुष की
सच्ची शुभचिंतक

वें बता सकती थी
उन्हें उनके घर का रास्ता
घोर अंधकार में भी
उनके पास होते थे
सटीक पूर्वानुमान
जैसे वो देखकर आयी हो
पुरुषों का भविष्य

वो प्रेम नही करती थी
प्रेम की बात जरूर करती
वो भी यदा-कदा
उनके लिए पुरुष था
समानुभूति का पात्र

अपने दुःखों का नही था
उनके पास कोई आकर्षक विज्ञापन
पुरुषों की कलाई पर बंधे कलावे का
सबसे कमजोर धागा बनना पसन्द था उन्हें
बशर्ते पुरुष पराजित कर दे
अपनी सभी अशुभताओं को एक साथ

वे दुनिया भर में छिटकी हुई थी
अल्पसंख्यक की तरह
मगर मनुष्य की लौकिक विजय में
हमेशा होता था उनका एक अंश हाथ

उन्हें नही किया जाता था
कभी याद कृतज्ञता के साथ
बल्कि छिपाई जाती थी
उनकी स्मृतियां
बोले जाते थे झूठ

उनका वजूद सम्प्रेषित करने में
असमर्थ था दुनिया का प्रत्येक
रचनात्मक पुरुष
वो थी इस कदर अमूर्त
नही बन सकता था
उनका जीवन में कोई स्थान

वो जीवन में होती थी उपस्थित
किसी ईश्वरीय हस्तक्षेप की तरह
वो जीवन से होती थी विलुप्त
किसी मैदानी नदी की तरह

जिन्हें समझा जाता था
घर तोड़ने का निमित्त
उन्हीं के कारण स्थगित होती थी
अनेक आत्महत्याएं
समाप्त होते थे अनेक निजी विवाद
एक गहरे बोध के साथ

वो टोक सकती थी
दोस्त की तरह
वो रोक सकती थी 
पहाड़ की तरह
हर गलत रास्ते की तरफ बढ़ा कदम

जिन्हें समझा जाता था
घर तोड़ने वाली स्त्रियां
बहुधा उन्हीं के कारण
जुड़ा रह सका घर

ये बात केवल जानता था घर
इसलिए
घर करता था उन्हें याद
दीवारों में बसी सीलन के साथ
और छोड़ आता था
बुनियाद तक

इसलिए नही मिलता
किसी भी घर में उनका कोई चित्र।

©डॉ. अजित








Wednesday, October 3, 2018

अज्ञातवास की कविताएँ


अज्ञातवास की कविताएँ
--
अज्ञातवास
पहली बार एक महाकाव्य में
प्रयुक्त हुआ
दूसरी बार इसे उधार माँगा प्रेम ने
तीसरी बार यह बना मेरा चुनाव
दोनों से अलग था अज्ञातवास
बताना है थोड़ा मुश्किल
लिखना है थोड़ा आसान
ज्ञात
वास
**
उसने पूछा
तुमने पूछा
मैंने खुद से पूछा
आखिर क्या है वो अज्ञात?
जो बसना चाहता है मेरे अन्दर
एकांत की चाह
क्यों होती है प्रकट
इसका सही-सही जवाब था मेरे पास
मगर कोई नही था सुनने वाला
अज्ञातवास के समय
अज्ञातवास प्रश्नों के जवाब का नही
जवाब के प्रश्नों को जानने का समय था मेरे लिए.
**
भाषा के शुचितावादी
चिढ़ गए थे उसी दिन
जब मैंने कहा
अज्ञातवास में जा रहा हूँ मैं
उन्हें लगा ये अक्षम्य अपराध
ठीक उसी दिन जाना
मैंने इस शब्द का
चमत्कारिक प्रभाव
**
अज्ञातवास का मतलब
सम्पर्क शून्यता नही था
अज्ञातवास का मतलब विकसित करना
अज्ञातवास का अपमान था
इसलिए सम्वाद ने तय की
अज्ञातवास में लम्बी दूरी तय
और लौटकर आया मुझ तक
गहरे अपनेपन के साथ.
**
शब्दों की ध्वनि पर
आचार्यों के है अनुभूत भाष्य
इसलिए अज्ञातवास ने मुझे डराया नही
बल्कि जगाया उस नींद से
जिसमें मैं सो रहा था मुद्दत से
और थकन बरकार रही हमेशा.

©डॉ. अजित


इन दिनों


इन दिनों
उससे बातचीत बंद है मेरी
इसलिए
मैं कह सकता हूँ
मनुष्य का मनुष्य पर भरोसा ही
बचा सकता है प्रेम

इन दिनों
उसे देखे
अरसा बीत गया है
इसलिए मैं देख सकता हूँ
मौसम के अवांछित षडयंत्र
जिसे कहा गया प्रकृति
वो है प्रकृति की मुंहबोली बहन
प्रकृति को जो चंद लोग जानते है
उनमे से एक हूँ मैं

इन दिनों
मैं उदास नही हूँ
इसका अर्थ यह कतई नही कि
मेरे जीवन में दुःख हो गए है अनुपस्थित
मैंने दरअसल उसके बिना
दुखों पर बात करना कर दिया है बंद
सुख नही मंडराते मेरे इर्द-गिर्द
उन्हें दुःख की उपेक्षा का दुःख है

इन दिनों
मैंने सीख लिया
सम्बन्धो का एक  नया व्याकरण
जिसमें कोई पुनरुक्ति दोष नही है
इसलिए मैनें बदल दिए
प्रश्न चिंह और पूर्ण विराम आपस में

यह लिपि केवल तुम पढ़ सकती थी
जो इसे पढ़ने का कर रहे  है प्रयास
उनके पास सूत्र नही कयास है
वो स्मृतियों के है गुलाम
इसलिए वो कभी नही कर पाएंगे भेद
प्रेम और प्रेम पत्र में  

इन दिनों
मेरे पास सलाह की अधिकता है
इसलिए नही कर पाता हूँ
उचित-अनुचित में भेद

इन दिनों
जब तुम नही हो
मैं लिख रहा हूँ
आधा सच आधा झूठ
कुछ भी पूरा लिखने के लिए
तुम्हारा होना था बेहद जरूरी
ताकि तुम कह सको
‘ये ठीक नही किया तुमने’

© डॉ. अजित