Tuesday, October 30, 2012

किताब..



तुमसे मिलना
कविता की तरफ लौटना है
तुमसे बिछ्डने का डर
कोई उदास गजल कहने जैसा है
कभी तुम कठिन गद्य की भांति नीरस हो जाती हो
कभी शेर की तरह तीक्ष्ण  
तो कभी तुम्हारी बातों में दोहों,मुहावरों,उक्तियों की खुशबू  आती है
तुम्हारे व्याकरण को समझने के लिए
मै दिन मे कई बार संधि विच्छेद होता हूँ
अंत में
तुम्हारी लिपि को समझने का अभ्यास करते करते
सो जाता हूँ
उठते ही जी उदास हो जाता है
तुमको भूलने ही वाला होता हूँ कि
तुम्हारे निर्वचन याद आ जाते है
जिन्दगी की मुश्किल किताब सा हो गया है
तुम्हे बांचना...
प्रेम के शब्दकोश भी असमर्थ है
तुम्हारी व्याख्या करने में
मेरे जीवन की मुश्किल किताब
तुम्हे खत्म करके मै ज्ञान नही बांटना चाहता
बल्कि मुडे पन्नों
और शब्दों के चक्रव्यूह में फंसकर
दम तोड देना चाहता हूँ
क्योंकि गर्भ ज्ञान के लिहाज़ से
मै तो अभिमन्यू से भी बडा अज्ञानी हूँ।

डॉ.अजीत 

Sunday, October 14, 2012

रात,चांदनी और तारा...



रात के सन्नाटें में
अंधकार के विराट छायाचित्रों
के बीच चांदनी को निमंत्रण देना
अपने पास बैठाने का
और चांदनी का मुस्करा कर रह जाना
एक सपना हो सकता है
मगर छत पर पसरी हुई चांदनी को
देखने और महसूस करने के लिए
मन को शांत करने की
अजीब सी कोशिस करता हूँ
ठहरता हूँ उस पल में
बुदबुदाता हूँ खुद ही खुद पर
खुद को छू कर देखता हूँ
कि ये मै ही हूँ
या मेरे देह से बाहर निकल आया है
कोई आदि पुरुष
जो दिन भर के झंझावतों में फंसा
दिन ब दिन खुद से दूर
होता जा रहा है
चांद से बतियाते हुए
एक धन्यवाद भेजने का मन होता है
चांदनी को उसने अपने प्रणय पाश
छोड कर
अंधकार के आतंक के बीच
मुझ तक भेजा
भले ही चांदनी का  मन नही था
मेरे एकांत का हिस्सा बनने का
दूर एक मद्धम टिमटिमाते तारें की
शिकायत मुझे नजर आती है
जो बेवजह जल-बुझ रहा है
ठीक मेरी तरह
मै उसको देखता हूँ
वो मुझे
और देखते देखते
सारी रात बीत जाती है
चांद और चांदनी के रिश्ते की तरह
बहुत से किरदार खुद के अन्दर
रोज जीते है और रोज दम तोड देते है
मद्धम तारें की तरह
न मै उनकी सुनता हूँ
और वें मेरी
हाँ, मेरी उलझन से चांदनी अक्सर
खुश नजर आती है...।
डॉ.अजीत

Saturday, October 13, 2012

मुकाम


आधी रात का मुकाम अभी बाकी है
दोस्तों से दुश्मनी निभानी अभी बाकी है

वो मेरा था नही ये बात जानते है सब  
लेकिन क्यों ये कहानी अभी बाकी है

नाकामियों की मुनादी कर दी हमने खुद
किसका था हाथ ये बताना अभी बाकी है

न साथ ही चले तुम न रास्ता ही दिया
फिर भी चेहरे पर थकान अभी बाकी है

करीब आकर दूर गये यूँ ही चलतें-चलतें
मिलनें पर मगर मुस्कान अभी बाकी है

डॉ.अजीत