Saturday, December 27, 2014

हर साल

बारहकड़ी...
------
जनवरी
कुहरे में लिपटी सुबह थी तुम
चाय की चुस्कियों में उड़ती भांप
नाक को नम करती थी
आँखें इन्ही बहानों से
सीख रही थी बोलचाल
मन की लिपि लिखने के अभ्यास
ठंड की स्लेट पर हुए
तुम्हारी ऊंगलियों पर
चॉक के निशाने मिलेंगे
हर साल।
***
फरवरी
चौदह थी शायद
जब तुमनें स्वीकार किया था
दोस्त से ज्यादा
प्रेमी से कम
कुछ हमारे मध्य होना
ये मध्य का रिश्ता
बुद्ध की याद दिलाता है
हर साल।
***
मार्च
हिंदी में बसंत था
मगर तुमसे उर्दू में
गुफ़्तगु करता था
लफ्ज़ लफ्ज़
प्यार की चाशनी में डूबा
ज़बान उसी मिठास से
करवट लेती है
हर साल।
***
अप्रैल
सुबह लहज़े में नरमी
दोपहर में तल्ख़ी
शाम को बेख्याली
रात में गुम हो जाना
इधर मौसम ने करवट ली
उधर तुम्हारे मन ने
सम्बन्धों का संधिकाल था
जिसका महीना बदल जाता है
हर साल।
***
मई
देह की गंध
मन के झरनें पर
पानी पीने आती थी ओक से
तुम्हारी नजदीकी
तपते माथे पर
खुशबू का तिलक लगती है
बिना स्पर्श किए
तुम्हारे गुम हुए रुमाल से
अब भी माथा साफ़ करता हूँ
हर साल।
***
जून
इधर ख़्वाबों की लू चलती तो
उधर बिना पूछे
तुम्हारा ग्रीन दुपट्टा लपेट लेता
मस्तक पर
खुद को यूं बांधना
मौसम से ज्यादा
दिल की जरूरत थी
डिटर्जेंट की खुशबू को
तुम्हारी खुशबू से अलग कर पाता था
हर साल।
***
जुलाई
वो पहली बारिश थी
जिसमें तन के साथ
भीग रहा था मन
भीगने के सुख में
सबसे बड़ा दुःख यह था
नही देख पाएं
एक दुसरे के आंसू
फिर यूं हुआ
आंसू सूखते गए
हर साल।
***
अगस्त
थोड़ी व्यस्त
थोड़ी त्रस्त
थोड़ी मस्त थी तुम
मैने मांगी तुमसे
एक मुठ्ठी खुशी
तुमनें दे दी दो मुठ्ठी
तब से इस महीनें
लड़खड़ा जाता हूँ
हर साल।
***
सितम्बर
अफवाहों
गलतफहमियों
का दौर था
स्पष्टीकरण अधूरे थे
शंका सन्देह के बीच
अपनत्व भटक रहा था अकेला
तमाम गुस्ताखियों के बावजूद
अंत तक रिश्ता सम्भल गया
इस बात पर
ईश्वर को धन्यवाद
भेजता हूँ
हर साल।
***
अक्टूबर
लगभग निर्वासित जीया
तुम्हारी दुनिया से
एक दुसरे में सांस लेती
जिंदगियों की नब्ज़ पढ़ने का हुनर
इस निर्वासन की अधिकतम
उपलब्धि थी
जिसकी शायद जरूरत न पड़े
हर साल।
***
नवम्बर
उम्र भर रहेगा याद
तुम्हें अंजुली भर देख पाया
तुम्हारी आँखों में
सपनें बो आया
मिली दी तुम्हारी रेखाओं से
खुद रेखा
मानकर यह
कल किसने देखा
यूं बेवजह भी याद आऊंगा तुम्हें
हर साल।
***
दिसम्बर
जैसे एक यात्रा का पूरा होना
तुम्हें पाकर खोना
खोकर पाना
खुद को खुद ही
समझाना
तुम्हें हमेशा आसपास पाना
वक्त का गुजरना
मगर
खुद का ठहरना
जैसे वक्त रहा था बीत
सघन होती गई प्रीत
साल का सदी होना
आता रहेगा याद
हर साल।

© डॉ. अजीत










Friday, December 26, 2014

दस्तक

जलाओं दिये नए मगर तेल पुराना हो
उम्मीद मत रखो रिश्ता गर निभाना हो

हंसकर बताना किस्से अपने बर्बादी के
तरीका यही है गम अपना गर छुपाना हो

वो बुलाता है महफ़िल में तुमको अक्सर
तन्हा चले जाना गर रुसवा हो जाना हो

कुछ नई गजल बचाकर रखना जरूर
लोग बहरे हो जाते है शेर गर पुराना हो

आसानी से हासिल नही होता वो सबको
दस्तक देते रहना गर उसको अपनाना हो

© डॉ. अजीत

Thursday, December 25, 2014

डर

अक्सर मुझे डराता बहुत है
वो शख्स मुस्कुराता बहुत है

किस्से सुनकर हैरत में हूँ
बताता कम छिपाता बहुत है

बुरे वक्त पर काम आता है
कमी एक है जताता बहुत है

जख्म खाना शौक है मेरा
वो मुझे समझाता बहुत है

निशां उसके मिटते नही है
आदतन वो मिटाता बहुत है

© डॉ. अजीत

Wednesday, December 24, 2014

ख़्वाब

कुछ ख़्वाब केवल 
आँखें देखती है 
उन्हें देखने की इजाज़त 
दिल और दिमाग नही देते 
ऐसी बाग़ी आँखों से 
नींद विरोध में विदा हो जाती है 
ऐसे ख़्वाब बहुत जल्द 
नींद की जरूरत से बाहर निकल आते है 
वो हमारी चेतना का हिस्सा बन
खुली आँखों हमें दिखते है 
दिल अपनी कमजोरी दिखाता नही
दिमाग को जताता है अक्सर
और दिमाग की होती है एक ही जिद
वो देखना चाहता हमें हर हालत में 
विजयी और सफल 
दिल धड़कनों की आवाज़ सुनता है 
सुनकर डरता है 
वो भांप लेता है 
मन के राग के आलाप 
जो बज रहे होते है 
बिना लय सुर ताल के 
इन ख़्वाबों को देखते हुए 
न रूह थकती है और न आँख 
दोनों ही करती है इन्तजार
एक ऐसे ख़्वाब के सच होने का 
यही इन्तजार बनता है जीने की वजह 
मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने में ऐसे ख़्वाब 
ईश्वर के नियोजित षडयन्त्र का हिस्सा होते है 
क्योंकि 
ऐसे ख़्वाब कभी पूरे नही होते 
बस उनका अधूरापन 
उन्हें न कभी बूढ़ा नही होने देता
और न मरने देता है।

© डॉ. अजीत

मुड़ना

कई बार
लौट कर शुरू करना चाहतें है
वहीं से
जहां से मिले थे
और चले थे साथ
अतीत की यात्रा
एक तरफा होती है
वहां केवल जा सकते है
आने के दरवाजे बंद कर देती है
सुखद स्मृतियां
वर्तमान की खीझ
अतीत पर नही लाद सकते
इसलिए भविष्य से डर जाते है
अचानक
फिर भटकते है
भूत वर्तमान और भविष्य के जंगल में
बेहद अकेले
अतीत मासूम
वर्तमान षडयंत्रकारी
और भविष्य उलझा हुआ लगता है तब
कभी खुद को प्रश्न उत्तर से छलते तो
कभी समझदार होने का अभिनय करते
अतीत सदैव आकर्षित करता है
वर्तमान की कीमत पर
भविष्य को नेपथ्य में धकेल
जीना चाहते है वे कुछ पल
जब सब कुछ कितना
साफ़ सहज और सरल था
यात्रा का मध्यांतर
उलझने पर
आरम्भ के चंद कदम याद आतें है अक्सर
चलते चलते पीछे मुड़कर देखना
शायद आदत या आस नही
एक किस्म की मजबूरी होती है।

© डॉ. अजीत

Monday, December 22, 2014

उसका कहना

उसका कहना मेरा बहना...
----
अक्सर उसने
बिछड़ते वक्त कहा
ख्याल रखिए अपना
मगर
कैसे रखा जाता है
ख्याल खुद का
यह नही बताया
शायद ज्यादा समझदार
समझती रही मुझको।
***
एक दिन उसनें कहा
तुम बुद्धु हो निरे
मैंने कहा
मै तो खुद बुद्ध समझता हूँ
फिर वो हंसती रही और बोली
अब पक्का यकीन हो गया है।
***
अक्सर वो कहती
डोंट ट्राई टू बी ओवरस्मार्ट
और मै कहता
कभी ऐसा बनने की जरूरत
महसूस नही हुई तुम्हारे साथ
वो खुश हो कहती
होगी भी क्यों
हम दोनों ही बेहद स्मार्ट है।
***
एक दिन वो जिद करके बोली
मेड फॉर ईच अदर का अर्थ समझाओं
मैंने कहा जिस दिन
कुछ समझाने की जिद न रहे
उस दिन खुद समझ जाओगी
इसका अर्थ
पहली बार
मेरे जवाब से संतुष्ट थी वो।
***
अक्सर वो कहती
तुम इतने आउटडेटड क्यों हो
मै चुप रह जाता
समझ भरे लहजे में वो कहती
चलो जो भी हो
बेहद अच्छे हो तुम
ऐसे ही रहना।
***
कई बार वो बातों में
अपनी शर्ते लगाती
और कहती
यूं है तो ठीक है
तब मै उसकी बात मान लेता
अगले ही दिन वो कहती
कल मै गलत थी
फिर भी तुमनें क्यों मानी
मेरी बात
मै मुस्कुरा भर देता
वो समझ जाती
रिश्तें की ख़ूबसूरती।
***
कभी कभी वो
बच्चों की तरह
अटक जाती एक ही बात पर
तब उसको समझाना पड़ता
बड़प्पन का दुःख
वो बचपन को जीते हुए
समझने का अच्छा अभिनय करती
मगर मै पकड़ लेता
उसका छूटा हुआ सुख।
***
अचानक उसनें एक दिन कहा
तुम बहुत समझदार हो
तुम्हारे काबिल नही हूँ मै
वो दिन मेरी समझ के लिहाज़ से
सबसे निर्धन दिन था।
***
एक दिन उसनें चिढ़ कर कहा
तुम बहुत इरिटेट करते हो कई दफा
मुझे थोड़ा बुरा भी लगा
वो मेरा मन पढ़ते हुए बोली
ज्यादा महान मत बनो
इरिटेट मै भी बहुत करती हूँ
चलों हिसाब बराबर हुआ
चाय पीतें हैं चलकर।
***
उसके अंदर बसते थे
कई किरदार
उसकी बातों में होती थी
किस्म किस्म की खुशबू
उसको समझना
खुद को समझने जैसा था
उसकी अनुपस्थिति में
उसको जान पाया
यह मेरे जीवन का
स्थाई खेद है।

© डॉ. अजीत 

गलतफहमियां

पांच गलतफहमियां...
------

पढ़ा है
इबोला जान लेकर रहता है
सम्भव है इसमें
वैज्ञानिक सच्चाई हो
अनुभव कहता है
अबोला जानलेवा होता है
मनोवैज्ञानिक सच है यह
भोगा है जिसे कई बार।
***
सुना है
वक्त हर जख्म भर देता है
मगर
कुछ जख्म बढ़ते वक्त के साथ
गहरे होते जाते है
वक्त उन्हें ताजा रखता है
मनुष्य को बैचैन देखना
वक्त का प्रिय शगल है।
***
देखा है
वक्त और इंसान को
बदलते हुए
बदलाव एक प्रक्रिया है
जिसकी गति संदिग्ध होती है
परन्तु
परिणाम निश्चित।
***
जाना है
तुम्हें अपना हिस्सा
इसलिए
तुम्हारा अधूरापन
मेरे एकांत का
छोटा भाई है
जो साथ लड़ते लड़ते
प्रेम करना सीखते है
अक्सर।
***
माना है
खुद को कमतर
तुम को बेहतर
इसलिए
दोष दिया/माफ़ किया
खुद को खुद ही
बिना तुम्हें बताए।
***
© डॉ. अजीत 

Friday, December 19, 2014

ईएमआई

अंतिम आठ ईएमआई...
-----

मेरे हिस्से का खर्च लौटाकर
तुम तटस्थ होना चाहती हो
भूल जाती हो
तुमसें कारोबार का नही
दिल का रिश्ता था
सच में लौटाना चाहती हो कुछ
तो लौटा दो साथ बिताएं लम्हें
शायद हो जाए फिर
हिसाब किताब बराबर।
***
तुम्हारा
पलायन अनापेक्षित था
ठीक जैसे
तुम्हारा मिलना भी
तुमनें हर बार चुनी सुविधा
मेरे माथे पर
असुविधा का विज्ञापन छपा था।
***
सिमटना और बिखरना
तुम्हारी एक फूंक पर
निर्भर था
शाम होने से पहलें
तुमनें शमां बुझा दी
अंधेरा हम दोनों के बीच
हिस्सों में पसर गया था।
***
हम खर्च होते रहे
शब्दों के जरिए
मौन रहकर
बचायी जा सकती थी
रिश्तों की जमा पूंजी।
***
तुमनें पढ़ा था
सम्बन्धों का भूगोल
अर्थशास्त्र के साथ
मेरा विषय
मन का विज्ञान था
दर्शन के साथ
असंगत विषयों का विमर्श
निष्प्रोज्य हो जाता है अक्सर।
***
दोष तय करना
उपचारिक प्रयास था
दोनों ने तय किए
अपनें अपनें हिस्सें के
अपराध और सजा भी
ऐसे मुकदमें
विचाराधीन रखना भी
मुश्किल था दोनों के लिए।
***
अच्छी बात यह थी
उम्मीद बाँझ नही हुई थी
वक्त के यहां गिरवी रख बैचेनियां
दोनों देखें गए थे
प्रार्थनारत
अपनें अपनें
निजी मंदिरों में।
***
चाहा था हंस पातें
अपनी भावुक मूर्खताओं पर
देख पातें विस्मय से
एक दुसरे की कमजोरियां
सम्बन्धों की प्रयोगशाला में
दो असफल वैज्ञानिक थे हम
स्नेह सम्बल के पुरूस्कार से वंचित।

© डॉ. अजीत

Thursday, December 18, 2014

शून्य सफर

शून्य से शून्य तक: दस सफर
----

एक विराट शून्य
तुम्हारी ऐडी बना गई
वापिस लौटते समय
तुम्हारे पदचिन्ह
मानचित्र थमा गए
निर्वासन के टापू का।
***
पीड़ाएं जो दी
शब्दों ने
भूल गया हूँ
नही भूल पाता
तुम्हारा लहज़ा।
***
तुम्हारी तटस्थता
एक युक्ति थी
मेरी निकटता
एक बिखरी हुई सच्चाई
तुम देख पाई
अपने हिस्से का सच
त्रासद बस यही था।
***
देह के गलियारें
स्पर्शों के मुहाने मिले
दो आईनें
नही देख पातें
आपसे में
एक दूसरे के चेहरें
आइनों और रिश्तों का सच
मिल जाता है कई बार।
***
सही या गलत
पाप या पुण्य
सच या झूठ
सबके अपनें अपनें
संस्करण
अपनें अपनें मुकदमें
कुछ असहमतियां
सम्प्रेषित नही हो पाती
शब्द भरम बन जाएं
ये ब्रह्म की चाल है।
***
मन का रास्ता
बुद्धि से छोटा था
और बुद्धि
भटकाव की शिकार
निर्णय सब के सब संदिग्ध
तुम्हारी आश्वस्ति
मेरी आसक्ति
डराती थी बस।
***
तुम्हारी हथेलियों पर
नही तलाश पाया
अपनत्व का नक्शा
बतौर यायावर
यह सबसे बड़ी
अज्ञात असफलता है।
***
तुम्हारी लौटती परछाई
देख रही थी
मेरी तरफ
पहली दफा देखा
पीठ पर उगती
आँखों को।
***
तुम्हारे उद्देश्य
स्पष्ट थें
और अभिव्यक्तियां अमूर्त
मेरे अनुमान गलत थे
और
कल्पनाएं सच।
***
तुम्हारे बाद
करना पड़ा खुद को खारिज़
सोचना पड़ा
अपनें निर्णयों पर
सुख हो या दुःख
अतीत को सम्पादित करना चाहते है
मजबूर मनुष्य
ईश्वर का कद बड़ा करता है
यही जाना तुम्हारे बाद।

© डॉ. अजीत

ताप प्रलाप

ताप के दस प्रलाप...
----

सारे चयन तुम्हारे थे
मिलना
नही मिलना
कभी-कभी मिलना
कभी नही मिलना
मै था
तुम्हारे मन के
अघोषित निर्वात का
ऐच्छिक स्थान पूरक
ये व्याकरण
समझ तो रहा हूँ
मगर स्वीकार नही पा रहा हूँ
अल्पबुद्धि के अल्पविराम
तलाशता हूँ
अपने एक तरफा
अपनेपन में।
***
सन्देह
ज्ञात उत्तर था
कल्पना
स्वयं एक प्रश्न
विवेचना
अर्जित ज्ञान की सीमा
अनुभव
धारणाओं के
बंधुआ मजदूर
और हम तुम
अज्ञानी
मानस वैज्ञानिक
सम्पादक अपनी अपनी
असुरक्षाओं के।
***
अभिलाषा की पूर्णता
अप्राप्यता की दासी लगी
और प्राप्यता
वर्जनाओं के द्वारपाल
इधर तुम कामनासिद्ध हुई
उधर तुम्हारे जीवन में
मै अप्रासंगिक
विकर्षण बना
बोध का अवैध पुत्र।
***
शब्दों का हिसाब
दिया जा सकता है
क्षणों को विस्मृत
किया जा सकता है
परन्तु
कुछ भाव जो केवल
तुम्हारे लिए जन्में थे
उनका स्थगन
किसी उच्च न्यायालय से
नही मिलता
उनकी इच्छामृत्यु की अर्जी
दाखिल करता हूँ
अज्ञात अदालत में
शायद अनुमति मिलें
और मृत्यु हो कम कष्टकर।
***
तुम्हारे आने ने
जितना सरल किया था
तुम्हारा जाना
उतना ही
जटिल कर गया है मुझे
अब शब्द बेफिक्र
बहते नही हवा से
सावधान हो
सड़ते जाते है
स्थिर जल से।
***
जानती हो
दुनिया में सबसे बड़ा
दुःख क्या है
बार बार खुद को
इस उम्मीद पर ठगना कि
दुनिया तुम्हें
ठीक से समझ रही है
दरअसल
दुःख मनुष्य की
भावुक मूर्खता का
ऐच्छिक चुनाव का प्रतिफल है।
***
खेद यह भी है
तुम ईश्वर के उस षडयन्त्र का
हिस्सा बनी
जिसमें वो
देखना चाहता है मुझे
हताश
दुःखी और
आत्महन्ता।
***
तुम्हारे अचेतन की
आदर्श कामना का
प्रतिबिम्ब
मुझे प्रकाशित करने की बजाए
क्षणिक आवेग का
हिस्सा बन
चल गया था अपनी चाल
मैं हंस रहा था दृष्ट भाव से
तुम रो रही थी
उसे पाप समझ।
***
निसन्देह
तुम्हारे प्रश्न
नैतिक थे
उनके उत्तर
दर्शन की शाखाओं से उड़
मनोविज्ञान की गोद में
लोरी सुन रहें थे
अपराधबोध में
तुमनें उनको जगाया
ये तुम्हारा अपराध है
इन्तजार करती
उनके नींद से जागने तक।
***
एक बूढ़ा स्वप्न देखता हूँ
जवानी के दिनों में
जब उम्र न बढ़ें और न घटे
इस अवस्था में
उस स्वप्न को
अतृप्त कामना नही कह सकता
क्योंकि उस स्वप्न में
तुम स्वीकारती हो
मुझमें बिना शर्त रूचि का होना
गौरतलब हो
मैं स्वप्न की बात कर रहा हूँ
यथार्थ की नही।

© डॉ. अजीत

Tuesday, December 16, 2014

ख़्वाब

यादों के बरक्स
महकतें है लम्हें
कुछ पुरकशिस
अहसास रिसते है
आहिस्ता आहिस्ता
स्पर्शों की महक
कपूर की डली बन
उड़ने लगती है
बहकती ही साँसे
नशे की तरह
देह की पीठ पर बैठ
मन करता है बातें
सिमटने लगता है वजूद
धड़कनो का बढ़ना
नब्ज़ का धीमा होना
तुम्हारी यादों के हवाले से
मन के नाद को सुनना
जहां तुम समाधिस्थ
उच्चारित करती हो
मेरा नाम
भोर के मंत्र की माफिक
काया के पुल पर
साँसों का विनिमय
कभी निशब्द
कभी बुदबुदाता
कभी मौन
तुम्हारी यादों के
बैरंग खत
लौट आते है
हर इतवार
जिन्हें चुपके चुपके
पढ़कर
कर देता हूँ
ख्वाबो के हवाले
ख़्वाब तुमसें मिलनें की
ब्रह्माण्ड की सबसे
सुरक्षित जगह है।

©डॉ.अजीत

वक्त के आरपार

वक्त के आर-पार...
-------

चौंबीस घंटे का
एक नियत चक्र
और रोज़ शाम
तुम्हारी याद की दस्तक
जैसे
हिस्सों में बंटना
किस्तों में कटना
तुमसे अधूरा ही मिलना होगा
इस जन्म में।
***
थोड़ी रात के ख़्वाबों की तसल्ली
थोड़ी सुबह की चाय
थोड़े दोपहर के काम
चार बजे तक खींच लाते है
शाम आती है
चाय पर तुम्हारा इंतजार करता हूँ
तुम्हारा न आना निश्चित है
मुझे जीवन में
अनिश्चितता से
इसलिए भी प्रेम है।
***
रात को सोने
सुबह को जागने
और दिन में भागने के बीच
तुमसे कब मुलाक़ात हो
सोचता रहा हूँ अक्सर
वक्त का बीतना
खुद के साथ
सबसे हसीन धोखा है।
***
दीवार पर टंगी घड़ी
डरा देती है कई बार
उसकी आवाज़ कहती है
तुम नही तुम नही तुम नही
एक घड़ी मन की दीवार पर टंगी है
जो कहती है तुम हो तुम हो तुम हो
मैं इन दोनों घड़ियों का
वक्त मिलाता रहता हूँ।
***
वक्त गुजरता नही
फिसलता भी
तुम्हारे साथ अक्सर
वक्त कम पड़ जाता है
और खुद के साथ
अक्सर ज्यादा
जैसे शाम होते होते ही होती है।
***
तुम्हारी कलाई पर बंधी घड़ी
मेरे घड़ी से आगे है
और मेरी घड़ी का दावा
आगे होने का है
समय के अपने
षडयन्त्र होते है
मनुष्य को अप्रासंगिक सिद्ध करने के।
***
तुम्हारी हंसी
सूरज पर उधारी चढ़ाती है
कायनात की रोशनी में
तुम्हारा भी हिस्सा है
मै सितारों से अवसाद मांगता हूँ
उनकी प्रकाश वर्ष में दूरी है
मगर वो जलते बुझते दिखते है
मेरी तुमसे दूरी ज्ञात है
मै न जलता हूँ
और न बुझता हूँ।
***
अच्छा वक्त या बुरा वक्त
होता भी है
समझ नही पाता हूँ
वक्त का होना प्रमाणिक लगता है
जब तुम साथ होती हो
तुम्हारे बिन
वक्त घड़ी में दौड़ता है
मगर नजरों में खो जाता है।
***
मौसम और वक्त को जोड़कर
अनुभूत करना मुश्किल लगता है
तुम्हारे सत्संग से
बिगड़ जाता है
मन का भूगोल
जलवायु को उलट देती हूँ तुम
दिसम्बर में तुम्हें याद करते हुए
मेरे माथे पर पसीना है।
***
वक्त बेहद चालाक है
ये बाँट देता है
खुशी गम रंज के घंटे
इनमें उलझाकर
तुमसे दूर करने के
तमाम जतन करता है
मै अगले दिन को उधार मांग
तुम्हें याद करता हूँ
मानों चाहे न मानों
इस मामलें में तुमसे
एकदिन बड़ा हूँ मैं।

© डॉ. अजीत

वापसी

लौट कर आना
एक उपक्रम है
जो नही लौटते
खो जाते है
दुनिया केवल
दिखते चेहरों का
हिसाब रखती है
खो जाने में और
मर जाने में कोई
बड़ा बुनियादी फर्क नही है
दोनों की ही स्मृतियों को
धीरे धीरे वक्त
चट जाता है
शेष बचती है
गुमशुदा लोगो की
फेहरिस्त वो भी
दीमक खाए मन के
नोटिस बोर्ड पर।

© डॉ. अजीत

वापसी

लौट कर आना
एक उपक्रम है
जो नही लौटते
खो जाते है
दुनिया केवल
दिखते चेहरों का
हिसाब रखती है
खो जाने में और
मर जाने में कोई
बड़ा बुनियादी फर्क नही है
दोनों की ही स्मृतियों को
धीरे धीरे वक्त
चट जाता है
शेष बचती है
गुमशुदा लोगो की
फेहरिस्त वो भी
दीमक खाए मन के
नोटिस बोर्ड पर।

© डॉ. अजीत

Saturday, December 13, 2014

बारिश

बारिश और तुम
----
अनजान शहर
बेमौसमी बारिश
सर्दी का मौसम
एक साथ इतने षडयंत्र
देखकर डर जाता हूँ
कभी खुद को याद करता हूँ
कभी तुम्हें
ईश्वर इस बात पर नाराज़ है।
***
बाहर बारिश का शोर है
एक शोर अंदर है
दोनों शोर मिलकर
रचते है विचित्र आलाप
जिसमें शास्त्रीयता तलाशता हूँ मैं।
***
बारिश आसमां से
बगावत कर रही है
कुछ बूंदे मांगती है पनाह
इनकार में
मै सुबक पड़ता हूँ
तुम्हें याद करके।
***
टिप टिप पड़ती बूंदे
बेघर है
बह रही है ढलान के साथ
यह देख
सूख जाते है आंसू
पलकों की हदों में।
***
दरवाजें बंद है
और खिड़कियाँ भी
कुछ बूंदे
एक झोंका
आता है देखने
सोया कि जाग रहा हूँ मैं।
***
बिस्तर पर
बैचैनियों की सिलवटें है
और ठंड की नमी
एक तकिये का एकांत
चिंतित करता है
करवट लेकर आश्वासन ओढ़ता हूँ।
***
धड़कनें दौड़ती है
कम ज्यादा
बाहर पानी है
गीले पैर
लौट आती है
दिल का तापमान
शून्य से नीचे चला जाता है।
***
बारिश इसलिए भी
खराब लगती है
ये ख्वाहिशों को
मरने नही देती
और उनका मरना
जीने की अनिवार्य शर्त है।
***
बादल खुद नही आ सकता
धरती से मिलनें
तो भेज देता है
खुद के आंसू
बारिश की शक्ल में
ये ठंड दरअसल
बादल के नम दिल की
ठंडक है।
***
और तुम
बारिश होने पर खुश हो
तुम्हारी खुशी
कभी कभी
कितनी भारी गुजरती है
मुझ पर
अंदाज़ा भी है तुम्हें।

© डॉ. अजीत

Friday, December 12, 2014

पॉज़

तो चलूँ
हम्म !
नही..
चलों जाओं
मिलतें हैं।
***
मुश्किल है
हम्म..
अब
देखतें है
देख लेना।
***
सुनों
क्या है यह
पता नही
बनो मत।
***
अच्छा !
बहुत बढ़िया !
खुश रहो
मेरी फ़िक्र छोड़ो।
***
क्या !
पागल हो गए हो
हाँ !
तुम्हारा कुछ नही हो सकता।
***
क्या है !
फिर
मेरी बला से
सुनों ना
सुन लिया
फोन रखो।
***
कहां हो
यहीं
नहीं
क्यों
ओके बाय।
***
ऐसा कैसे
अच्छा
रहने दो बस
ठीक है
जैसी तुम्हारी मर्जी।
***
अरे सुनो तो सही
सुन रही हूँ
हम्म
हो गया
झूठ बोलना
सीख लो पहले किसी से।
***
प्लीज़
ओके
अब
कुछ नही
जस्ट ग्रो अप !
बच्चें नही हो तुम।

© डॉ. अजीत

डिस्क्लेमर: ये कुछ टूटे हुए सम्वाद है इनके कविता होने का मेरा कोई दावा नही है। काव्य समीक्षकों से अग्रिम मुआफ़ी।शब्दों के पॉज़ के बीच बहती कविता यदि आप जी पाएं तो लिखना सफल है बाकि अच्छा बुरा सब मेरा है।



गज़ल

कभी कमजोरी थी तुम अब ताकत बना लिया
दिल को आज  हमनें मुस्तकिल समझा लिया

दुनिया भर की हंसी में तुम्हें कहां तलाशते हम
घर की दीवार पर तेरा एक फोटो सजा लिया

रोशनी के सफर में अंधेरों से तुमने दोस्ती की
तुम्हें नजर आ जाएं इसलिए दिल जला लिया

तेरी महफ़िल में तन्हाई का किरदार मिला हमें
हर बार बहाना करके तुमनें हमको बुला लिया

कभी खुद को भी सता कर देखों एक लम्हा
हमारा दिल तो तुमनें जी भर के सता लिया

© डॉ. अजीत

Wednesday, December 10, 2014

आग

एक आग जलती है
सीलन इतनी ज्यादा है
ताप को धुआं निगल जाता है
जलने का मतलब
प्रकाश ही नही होता है हर बार
कुछ आग अंधेरे में भी जलती है
जिसके ताप में
कतरा कतरा पिंघलते जाते है हम
रोशनी की आस में
ताप खो जाता है
खुद ही जलते है और
खुद को ही जलाते है
मन की दहलीज पर
इस आग की अंधी रोशनी होती है
वक्त हमें सेंकता है
अपनी शर्तों पर
समझदारी इसी को
कहते है शायद।

© डॉ.अजीत

Tuesday, December 9, 2014

बोलचाल

चंद लड़ाईयां वाया बोलचाल
----
उसने कहा कॉफी
पियोगे
मैंने कहा नही
मुझे चाय पसंद है
उसने चाय और कॉफी मिलाकर बनाई
अब ना वो चाय थी ना कॉफी
उसकी ऐसी जिद
हैरानी और प्यार से भरती थी मुझे।
***
उसने कहा
वेज खाते हो या नॉन वेज़
मैंने कहा शुद्ध शाकाहारी हूँ
फिर उसने
नॉन वेज मेरे सामने बैठकर खाया
मगर बोन लैस।
***
उसने कहा
चाय पीते वक्त
आवाज़ बहुत करते हो तुम
मैंने कहा हां आदत है
फिर उसने कहा
ये आदत कभी मत छोड़ना
चाहे मै भी कहूँ।
***
उसने कहा
रुमाल क्यों नहीं रखते तुम
मैंने कहा
आदत नही है
उसने कहा
हर वक्त मेरे पास
कॉटन का दुपट्टा नही होता है
आदत बदल लो अपनी।
***
उसने कहा
फोन क्यों नही रिसीव करते तुम
मैनें कहा
वाइब्रेशन मोड पर था
उसने कहा ये मोड बदलों जल्दी
फोन को रखों रिंगिंग मोड पर
और खुद को वाइब्रेशन मोड पर
आजकल तुम्हें महसूस नही पा रही हूँ मैं।
***
उसने कहा
कंधे झुकाकर क्यों चलतें हो
मैंने कहा कद की वजह से
उसने कहा
कद हद पद की परवाह मत किया करों
परवाह ही करनी है तो
मेरी गर्दन की करों
जो तुम्हारी वजह से हमेशा
ऊंची रहती है।
***
उसने कहा
बहुत कम बोलते हो
इतना चुप रहना अच्छा नही होता
मैंने कहा
ऐसा ही हूँ मै
उसने कहा
ऐसे ही रहना हमेशा
तुम्हें बदलना नही
तुम्हारे संग संवरना चाहती हूँ मैं।
***
उसने कहा
बाल बहुत छोटे रखते हो
फौज़ में भर्ती होने का
कोई अधूरा सपना है क्या
मैंने कहा
नही लम्बें बाल पसन्द नही है
उसने अनमना होकर कहा
कभी दुसरे की पसंद का भी
ख्याल रखना चाहिए तुम्हें।
***
उसने कहा
तुम इतने बोरडम से
क्यों भरे रहते हो
मैंने कहा
भरा हुआ ही तो हूँ
खाली तो नही हूँ
उदास होकर वो बोली
थोड़ी जगह खाली करों
मुझे आना है अभी इसी वक्त।
***
उसने कहा
मुझसे कभी मत मिलना
आज के बाद
मैंने कहा
ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी
वो गुस्सें में भी हंस पड़ी
और बोली
मेरी मर्जी की परवाह करने वाले से
एक बार तो मिलना ही पड़ेगा।

© डॉ. अजीत

Monday, December 8, 2014

सच

सात अधूरे सच
----

यात्रा बिंदु से बिंदु की है
चित्र में
वृत्त आयत वर्ग रेखा
हो सकता है
कोई एक
निर्भर करता है
समय की सुखद
अनुकूलताओं पर।
***
सच और झूठ
एक ही बात या घटना के
दो संस्करण है
हमारा चयन कितना
तटस्थ है
यह नितांत की
संयोग का मसला है।
***
विश्वास छल का
बंधुआ मजदूर है
जो जितने छले गए
उतने बड़े अविश्वासी
और उतने बड़े
विश्वासी।
***
समय रचता है भरम
मनुष्य रचता है अपेक्षा
दोनों मिलकर
देखना चाहते है
मनुष्य को मजबूर।
***
जन्म और मृत्यु
मनुष्य के निर्वासन के
मध्य की यात्रा है
उस निर्वासन की
जिसे ईश्वर देता है
वरदान की शक्ल में।
***
अतीत का मोह
वर्तमान को जीने नही देता
भविष्य की चिंता
वर्तमान को मरने नही देती
समय के सारे षडयंत्र
वर्तमान के विरुद्ध होते है।
***
खुद को तलाशना
बाहर
खुद से भागना
अंदर
खुद से अज्ञात रहनें के
आसान तरीके है
मनुष्य जिन्हें पसन्द
करता है बेहद।

© डॉ. अजीत

चुप

चुपचाप हो जाना
अचानक से
समझदार बनने जैसा है
कुछ चुप्पियाँ
नासमझी की भी होती है
कहते हुए याद आता है
ख़्वाब के बिछड़नें से बड़ा दुःख
ख़्वाब बदलनें का होता है
वक्त की करवट
आहस्ता कोण बदलती है
पीठ पर उगे
शंकाओं के जंगल से गुजर कर
चेहरा नही देखा जा सकता
भले वो आंसूओं से तर हो
सहसा टपकी बूँद
मौसम का अनुमान बिगाड़ देती है जैसे
ठीक वैसे ही
एक चुप बदल देती है
संबंधों का बीजगणित
खुद के प्रश्न खुद के उत्तर से हमेशा
बड़े पाये जाते है
सांसों का अंदर बाहर होना
एक भौतिक प्रक्रिया है
उनके अंतराल को गिनने लगना
एक यौगिक
कहे अनकहे के बीच
शब्दों को वापिस निगलना
अज्ञात किस्म का योग है
मौन और चुप के मध्य
ऊब का आश्रम है
वहां सुस्ताते हुए
नींद नही आती
वहां जो अनुभूतियां होती
उसे योग्यतम शिष्य से भी नही
बांटा जा सकता
रिक्तता से उपजी ऊर्जा का
शक्तिपात खुद पर कर
भस्म या चैतन्य हो जाना
खुद को बचाने का
एकमात्र अज्ञात तरीका है।

© डॉ. अजीत


Friday, December 5, 2014

सात दिन

'वो सात दिन...'
----

उसने अचानक कहा
अपनी कविताओं को नीचे
कॉपीराईट का निशान क्यों लगाते हो
मैंने कहा
कोई उन्हें चुरा न सकें इसलिए
फिर वो उदास होकर बोली
मेरे लिए भी कभी
कुछ ऐसा सोच लिया करो।
***
उसने लगभग
चिल्लातें हुए कहा
तुम खुद को समझते क्या है
मेरी हंसी छूट गई
और हंसते-हंसते बोला
आधा अधूरा इंसान
वो चिढ़कर बोली
जो हो वही रहो
मोहन राकेश न बनों।
***
उसने एक दिन
चाय का कप थमाते हुए कहा
तुम दिन ब दिन नापसन्द होते जा रहे हो
मैंने चाय की घूंट भरी और कहा
बढ़िया है
फिर से नए सिरे से पसन्द करना मुझे
वो इतनी हंसी कि चाय न पी पायी।
***
उसने एक दिन
हंसते हुए कहा
तुम्हें भूलना आसान नही है
उस हंसी में एक फ़िक्र घुली थी
उसके बाद
मै हंसना भूल गया।
***
उसने एक दिन
चिंतित होकर कहा
बाल उड़ते जा रहे है तुम्हारें
इतना मत सोचा करो
मैंने कहा
सच्ची ! छोड़ देता हूँ
फिर बोली
मेरे बारें में जरूर सोचते रहना।
***
एक शाम उसने
चिढ़कर कहा
तुमसे मिलना मेरी सबसे बड़ी भूल थी
मैंने कहा
भूल सुधार में मदद करूँ कुछ
वो बोली बनो मत !
इस भूल का कोई अफ़सोस नही है मुझे।
***
एक दिन उदास होकर
उसनें कहा
अब तुमसे मिलना सम्भव नही होगा
उस दिन
मै भी चुप हो गया
मेरी हाजिरजवाबी जवाब दे गई थी
उस दिन उदासी का सही अर्थ समझ पाया।

© डॉ. अजीत



रात

खो जाता हूँ रोज रात
सुबह तुम्हारी ध्वनि
कान में कहती है
खोना नही जीना है
खोना मेरी नियति है
और जगाना तुम्हारा प्रारब्ध
हमारा मिलना कहा जाएगा
ब्रह्माण्ड का षडयंत्र
महज बोलने से रात्रि
शुभ नही हो जाती
मेरे कान रोज़
दिल और दिमाग को
भड़काते है
तुम्हारी शुभकामनाओं के खिलाफ।

© डॉ. अजीत 

Wednesday, December 3, 2014

चंद आवारा ख्याल

चंद आवारा ख्याल...
---

ऐसे भी खो जाता हूँ
किसी दिन
जैसे बाथरूम में
तुम्हारा हेयरपिन।
***
भरता रहता हूँ
आहिस्ता-आहिस्ता
मन की पींग
जैसे हंसते हुए हिलते है
तुम्हारे इयररिंग।
***
नही बांधता कोई
स्नेह के बंधन
रहता हूँ ऐसे
जैसे
चूड़ियों के बीच
तुम्हारे कंगन।
***
मेरी खिड़की पर
बरसते है कभी कभी
ऐसे भी बादल
जैसे
आंसूओं के बीच
तुम्हारा फैला हो काजल।
***
भीगें पर से अक्सर
भरता हूँ मै उड़ान
जैसे
तुम्हारी अधूरी मुस्कान।
***
उड़ जाते है
तुमसें मिलनें के सारे ख्याल
जैसे
धूप में सूखते तुम्हारे बाल।
***
आईना देख आती है
कभी कभी  मुस्कान
जैसे
तुम्हारे चेहरे की थकान।
***
यादें तुम्हारी
रखती है मुझे एवरग्रीन
जैसे
सर्दी में ख्याल रखें तुम्हारा
तुम्हारी कोल्ड क्रीम।
***
बातें लगने लगती है मुझे
कभी कभी बेहद झूठी
जैसे
तुम्हारी अनामिका की
मैली अंगूठी।
***
पढ़ता हूँ
तेरी खुशबू में रंगे
पुराने खतों की
खूबसूरत लिखावट
जैसे
तुम्हारे तराशे गए नाखूनों की
हो बुनावट।

© डॉ. अजीत

यक्ष प्रश्न

हम उनकी गोद से
परित्यक्त प्रेमी थे
न हमें उनकी
उंगलियों की कंघी नसीब हुई थी
और न धूप में आंचल
हमारी पवित्र भावनाएं
झूठ और षडयंत्रो का पुलिंदा साबित हुई
हमारे होठ लगभग सिले हुए थे
उन पर शिकायतों की झूठी मुस्कान थी
बेहद सच्ची दिल की बातों को
अन्यथा लिए जानें के लिए शापित थे हम
तपते दुखते माथे को कभी
नसीब नही हुए उनकी जुल्फ के साए
हम प्रेमी थे भी या नही
इस पर सबको सन्देह था
शंका संदेह की कमान पर कसा रहा प्रेम
और घायल होते रहे हम
हमारी हथेलियों पर नीरसता का सीमेंट पुता था
हाथ मिलाते वक्त बेहद बोझिल होते थे हम
गले लगने से पहले
हीनता का जंगल हमारी छाती पर उग जाता था
तमाम विडम्बनाओं के मध्य
प्रेम को जीवित रखने के लिए
देते रहें हम खुद की बलि
इस उम्मीद पर कि
प्रेम बदल देता है इंसान को
किसको कितना बदला
मुश्किल है बता पाना
एक चीज़ जरूर बदल गई
अब कुछ बातों का बुरा लगने लगा था
हमारे आसपास उग आया था अब
विविधता भरा शुष्क जंगल
जहां प्रेम को तलाशना
खुद को खोने के जैसा था
अपनी गुमशुदगी को दर्ज कराना
अब अनिवार्य नही था
क्योंकि
दिल और दिमाग से निर्वासन जीते हुए हम
भूल गए थे
खुद की ठीक ठीक पहचान
हम परित्यक्त प्रेमी जी रहे थे
अपनेपन के बीच
शूद्रों से भी बदतर जीवन
प्रेम निसन्देह नई सामाजिक असमानता का जन्मदाता था
कोई आरक्षण जिसे खत्म नही कर सकता
एक ऐसी असमानता का हिस्सा थे हम
सम्बन्धों के समाजशास्त्र का सबसे
खतरनाक पक्ष यही था
सतत साथ चलते जाना अजनबीपन के साथ
और पहुँचना कहीं भी नही
हम कुछ प्रेमी इसे जीने ढोने के लिए
प्रकृति द्वारा सबसे उपयुक्त पाएं गए
ये बात हमारा दिल दुखाती रहेगी उम्र भर
न्याय अन्याय से परे
हम इस युग का नया सामाजिक सच बनें थे
समझ नही आता था
इस पर गर्व किया जाए या कोसा जाए खुद को
एकांत के सन्नाटे में
ये हमारे दौर का सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न था।

© डॉ. अजीत

कहा सुनी

'दस कहा-सुनी'
----

मैंने कहा
थोड़ा उलझ गया हूँ
सुलझा दो
उसने कहा
तुम उलझे हुए ही
अच्छे लगते हो
ये उस पल की
एक मात्र सुलझी हुई बात थी।
***
मैंने कहा
इतनी चुप क्यों हो
उसने कहा
तुम्हारे असर में हूँ
उसके बाद
देर तक हंसते रहें हम दोनों।
***
मैंने कहा
ऐसे कब तक चलेगा
उसने कहा
जब तक
डर को वक्त से नापना
नही छोड़ देते तुम।
***
मैंने कहा
तुम्हारी हंसी उधार चाहिए
वो बोली
मुस्कान ही दे सकती हूँ
हंसी तो खुद उधार लाती हूँ
तुम्हारे लिए।
***
मैंने कहा
चलों चलते है
उसके बाद
मंजिल पर जाकर उसने पूछा
अब किधर चलना है
ये मासूमियत यादगार थी।
***
मैंने कहा
क्या योजना है
भविष्य की
वो बोली
मै कुछ और हूँ तुम्हारी
प्रेमिका नही।
***
मैंने कहा
प्यार अधूरा ही रहता है अक्सर
वो हंसते हुए बोली
पूरा करके
खत्म नही करना है मुझे।
***
मैंने कहा
बिन मेरे रह सकोगी
उसने उदास होकर कहा
बिलकुल
समझदारी में
तुमसे कम नही हूँ मैं।
***
मैंने कहा
बिछड़ना शाश्वत है
वो बोली
जानती हूँ  मिलने से पहले से
कोई नई बात कहो
दर्शन से इतर
थोड़ी रूमानी।
***
मैंने कहा
अच्छा लगता है
तुम्हारा साथ
उसनें कहा
यही एक समान बात है हमारी
बाकि सब तो
मतलब के भरम है।

© डॉ. अजीत

Tuesday, December 2, 2014

चाहतें

'चाहतों का बाईपास'
-----

बस इतनी सी चाहत है
मै जो कहूँ
उसे उतना ही समझ जाओं
बिना सन्देह शंका की
जोड़ तोड़ किए।
***
बस इतनी चाहत है
सुनों तुम
शब्दों के पीछे ध्वनि
जो रह जाती है
उपेक्षा के शोर में गुम।
***
बस इतनी सी चाहत है
घटा दो खुद से कभी
चौबिस घंटे
फिर बातें हो
सिर्फ बेफिक्र बातें।
***
बस इतनी सी चाहत है
कहो तुम
सब अनकहा
तुम खाली हो जाओं
और मै भर जाऊं।
***
बस इतनी सी चाहत है
साथ बैठकर पीएं
चाय से लेकर शराब
तुम्हारी नसीहतें हो
और मै हंसता चला जाऊं
बेहिसाब।
***
बस इतनी सी चाहत है
किसी दिन
तुम्हें सुबह सुबह देखूँ
बिना मुंह धोए हुए
तुम्हारी आँख खुले
और चाय का कप थमा दूं
तुम्हें।
***
बस इतनी सी चाहत है
तुम्हें खुश देखकर
मुझे डर न लगें
तुम खुशी को
सम्भालना सीख जाओं
आदतन।
***
बस इतनी सी चाहत है
दुआओं में इतना असर बचा रहें
तुम्हें खुदा पर यकीन
और मुझे खुद पर
होता रहे बार बार।
***
बस इतनी सी चाहत है
वक्त भले ही फिसलें
तो तुम खर्च न हो
तुम्हारी हंसी ब्याज़ की तरह
मिलती रहें
हर तिमाही।
***
बस इतनी सी चाहत है
सफर और मंजिल
दोनों दूर हो जाए
तुम्हारी नजदीकियां
यूं भी करीब आएं
मेरे।

© डॉ.अजीत

Monday, December 1, 2014

लेनदेन

दस लेन-देन...
----

देना चाहता हूँ तुम्हें
ख्वाबों की कतरन
एक मुट्ठी प्रेम
और थोड़ी उदासी
ताकि खुशी का मतलब
तुम मुझसे समझ सको।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
नूतन सम्बंधों की प्रमेय
जहां सिद्ध करने के लिए
समीकरण या सूत्र की नही
विश्वास की
आवश्यकता हो।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
चंद अधूरे ख्याल
जिन्हें तुम मुक्कमल करों
अपने अधूरेपन से।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
अपनी पलकों का विस्तार
अपनी आँखें मूँद
तुम देख सको
मेरे आवारा ख्याल।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
एक निमन्त्रण
तलाशी लो
जेब में सूखते ख़्वाबों की
बेफिक्री से देखूँ
तुम्हें उनका उपचार करते हुए।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
हस्तरेखाओं का मानचित्र
ताकि अपने स्पर्श से
साफ़ कर सको
उस पर ज़मी
वक्त की गर्द और नमी को।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
कुछ आधे लिखे खत
उन पर खुद का पता लिखों
और सुरक्षित कर लो खुद को
उनकी लिखावट के बीच।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
अन्तस् का पता
जहां आ सको
तुम निर्बाध
नंगे पाँव।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
वह सबकुछ
जो फिलहाल
मेरे पास भी नही है
जिंदादिली का
इससे बड़ा प्रमाण
नही है मेरे पास।
***
देना चाहता हूँ तुम्हें
धड़कनों को गिनने का काम
शर्ट के बटन से उलझते
तुम्हारे कान
दिल के शास्त्रीय संगीत के साथ
सुन सकें खुद का नाम।


© डॉ. अजीत