Monday, December 8, 2014

चुप

चुपचाप हो जाना
अचानक से
समझदार बनने जैसा है
कुछ चुप्पियाँ
नासमझी की भी होती है
कहते हुए याद आता है
ख़्वाब के बिछड़नें से बड़ा दुःख
ख़्वाब बदलनें का होता है
वक्त की करवट
आहस्ता कोण बदलती है
पीठ पर उगे
शंकाओं के जंगल से गुजर कर
चेहरा नही देखा जा सकता
भले वो आंसूओं से तर हो
सहसा टपकी बूँद
मौसम का अनुमान बिगाड़ देती है जैसे
ठीक वैसे ही
एक चुप बदल देती है
संबंधों का बीजगणित
खुद के प्रश्न खुद के उत्तर से हमेशा
बड़े पाये जाते है
सांसों का अंदर बाहर होना
एक भौतिक प्रक्रिया है
उनके अंतराल को गिनने लगना
एक यौगिक
कहे अनकहे के बीच
शब्दों को वापिस निगलना
अज्ञात किस्म का योग है
मौन और चुप के मध्य
ऊब का आश्रम है
वहां सुस्ताते हुए
नींद नही आती
वहां जो अनुभूतियां होती
उसे योग्यतम शिष्य से भी नही
बांटा जा सकता
रिक्तता से उपजी ऊर्जा का
शक्तिपात खुद पर कर
भस्म या चैतन्य हो जाना
खुद को बचाने का
एकमात्र अज्ञात तरीका है।

© डॉ. अजीत


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