Friday, October 31, 2014

फेसबुक और ऊब

कुछ ऐसे लोगो से मिला मै
जो फेसबुक से बेहद उकताए हुए लोग थे
वो फेसबुक पर कितने दिन और थे
ये ठीक ठीक उन्हें भी नही पता था
दिन में कम से कम दो बार
अकाउंट डीएक्टिवेट करने के दौरे पड़ते
एक दफा अकाउंट डिलीट करने का ख्याल आता
और कम से कम एक बार वो
यहाँ से दरवाजा खुला छोड़ भाग जाने की सोचते
ऐसे लोग आपस में कम ही मिल पाए
यह फेसबुक के लिए अच्छी बात थी
वो अपने अपने किस्म के
बेहद सुलझे हुए मगर
थोड़े उलझे हुए लोग थे
वो यहाँ किस लिए थे
खुशी प्रशंसा व्यामोह या कोई और वजह थी
ये बता पाना थोड़ा मुश्किल है
उनकी प्रचार की भूख लगभग समाप्त थी
उनकी लेखनी पाठकों के लिए लत के जैसी थी
मगर लिखना उनके लिए
गर्म पानी से गरारे करने जैसा था
उनमें से कुछ थूक से स्लेट साफ़ करके
जिन्दगी का गणित सीख कर आए थे
कुछ क्रोशिए सलाई और डाइपर से उकता कर
कीबोर्ड को पीटने वाले थे
कुछ ने कीबोर्ड के उपयुक्त दबाव के लिए
अपने बढ़े हुए नाखून कुतर लिए थे
कुछ के एक हाथ में अदरख पीटने की कुंडी थी
और एक हाथ में स्मार्टफोन
फेसबुक उनकी चाय की चुस्कियों के साथ
सुस्ताने का एक अस्थाई अड्डा भर था
उनकी फेसबुक छोड़ने की
प्रतिबद्धता को रोज़ इनबॉक्स में
किसी एक की शातिर
बदतमीजी मजबूती देती थी
उन सब लोगो में एक बात का साम्य था
वे अपने वक्त से
थोड़ा आगे पीछे चल रहे थी
वक्त की घड़ी उनकी कलाई पर नही
उनकी पीठ पर बंधी थी
वे एक दुसरे को वक्त बताते और कहते
बस मै तब तक हूँ फेसबुक पर
मगर कब तक ये ठीक उन्हें भी नही पता होता
देखते ही देखते ऐसे लोगो का पुल बन जाता
जिसके सहारे कुछ भटके हुए लोग
इस पार से उस पार चले जाते
बदलते वक्त के साथ
पैतरें बदलते लोगो का साक्षी बनना
फेसबुक से उकताए लोगो का
सबसे बड़ा वर्चुअल श्राप था
जिसे भोगते हुए
वो आपस में म्यूच्यूअल फ्रेंड्स बनें रहते
मगर उनकी दोस्ती कब तक रहेगी
यह बात उतनी ही अनिश्चित थी
जितनी फेसबुक पर दिखती जीवंत जिन्दगी।


© डॉ. अजीत

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