Monday, August 3, 2015

ज्ञात अज्ञात

सम्बंधो के पुनर्पाठ में
बच जाते है कुछ विकल्प
जिसके भरोसे रच लेते है
एकांत का संसार
छूटे हुए सिरों की परवाह भी
छूट जाती है धीरे धीरे
जैसे नदी भूल जाती है
ठोस बर्फ से तरल पानी बनना
सम्बन्धों में तृप्ति सबसे बड़ी असुविधा है
ज्ञात सबसे बड़ी बाधा
सतत् बचना जरूरी होता है
कुछ अज्ञात कुछ अनकहा
तभी बच पाता है
समबन्धों का भूगोल
विश्वास के झरनें सूख जाते है जब
तब न पत्थर में शिल्प दिखता है
न गहराई की लिपि समझ आती है
सम्बन्ध एक ख़ास किस्म की जटिलता बुनतें है
हम सरलता से समझना भी चाहें तो भी
नही जान पाते अपनी चाह का मनोविज्ञान
सब कुछ ठीक होना
हमेशा सब कुछ ठीक होना नही होता है
कभी कभी विश्वास शंका और मान्यताओं के जंगल में
निपट अकेले पड़ जाते है सम्बन्ध
मनुष्य की सीमा कर देती है
उसको सबसे अकेला
एक अच्छी खासी भीड़ के बीच।

© डॉ.अजित

No comments: