Sunday, May 22, 2016

एक मेरे पिता थे
जो यदा-कदा कहतें थे
तुम्हारे बस का नही ये काम

एक वो है
जिनका पिता मैं हूँ
उनकी अपेक्षाओं पर जब होता हूँ खारिज़
ठीक यही बात कहतें वो
आपके बस का नही ये काम

दो पीढ़ियों के बीच
इतना मजबूर हमेशा रहा हूँ मैं
ये कोई ग्लैमराइज्ड करने की बात नही
ना अपनी काहिली छिपाने की
एक अदद कोशिश इसे समझा जाए

बात बस इतनी सी है
मैं चूकता रहा हूँ हमेशा बेहतर और श्रेष्ठतम् से
नही कर पाता
कुछ छोटे छोटे मगर बुनियादी काम
और मनुष्य होने के नातें
ये एक बड़ी असफलता है मेरी
यह भी करता हूँ स्वीकार

अपने पिता और पुत्रों के मध्य
संधिस्थल पर बैठा प्रार्थनारत हूँ न जाने कब से
घुटनों के बल बैठे बैठे मेरी कमर दुखने लगी है
मेरा कद  रह गया है आधा

इसलिए नही देख पाता
अपने आसपास बिखरी
छोटी-बड़ी खुशियों को

मेरे वजूद का यही एक ज्ञात सच है
जो बता सकता हूँ मैं
अपने पूरे आत्मविश्वास के साथ।

©डॉ.अजित

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