Thursday, August 18, 2016

बाज़ दफा

वक्त के सफहो पर कुछ वरक नए खुले थे
जब इत्तेफ़ाकन हम बावस्ता यूं ही मिले थे

वफाओं की बात कभी दरम्यां चली ही नही
गोया दो वजूद कुदरत की साजिश से आपस में घुले थे

ख्वाब ख्याल या अफसाना नही था उनका मिलना
पोशीदा एक मकाम के सिरहाने दोनों के अश्क धुले थे

वो एक हसीं सफर था जब तुम साथ थे
हिज्र के किस्से खामोशियों के दर पर मुफ्त में तुले थे

अचानक एक लम्हा,
तुम नाराज़ हुई तो फिर होती ही चली गई
मनाने की कोशिशें रोती ही चली गई

उम्मीद का बोसा जब तुम्हारे लब से रुखसत हुआ
बाद उसके बेरुखी के वजीफे मुफलिसी में मिलते चले गए

बाज़ दफा ज़िंदगी हंसकर बदले लेती है।

© डॉ.अजित

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