Wednesday, April 6, 2016

बीतें दिन

जिन दिनों तुम व्यस्त थी
बहस और विमर्शों में
मैं बना रहा था कागज़ की नाव
जब तुम तर्क के शिखर पर थी
मैं सहला रहा था आवारा घास के कान
जिन दिनों तुमसे जीतना लगभग असम्भव था
मैं संग्रहित कर रहा था दुनिया भर के सुसाइड नोट्स
जिन दिनों तुम अपरिमेय उड़ान पर थी
मैं बिलांद से नाप रहा था सप्तऋषि तारों की दूरी
जिन दिनों तुमसे दिल की बात कहना मुश्किल था
मैं देख रहा था नदी के छूटे हुए तटबंध
जिन दिनों तुम करीब रहकर भी थी बेहद दूर
मैं लगा रहा था आसमान की आँख पर चश्मा
उन दिनों की बदौलत जान पाया मैं
सपनों के षड्यंत्र और विकल्पों की दुनिया को
प्रभावित होने और रहनें की अनिवार्यता को
उन दिनों पढ़ पाया
पेड़ की चोटी पर टंगे आसमान के खत को
धरती के माथे पर लिखी
सबसे सुंदर मगर सबसे छोटी लिपि को
उन दिनों के कारण देख पाया
गलतफहमियों के झरनें का नदी होना
धारणाओं के जंगल का हरा होना
उम्मीद के पहाड़ का बड़ा होना
इंतजार के समंदर का खड़ा होना
समझ नही आता कैसे रखूँ याद वें दिन
जब स्मृतियों की आयु थी डेढ़ दिन
स्नेह की तिरछी छाया थी आधा दिन
यथार्थ की धूप थी सारा दिन
मेरे पास उनदिनों केवल रात थी
जिसके सहारे मैं रचता था दुनिया की
सबसे आशावादी उपकल्पना
बताता था खुद ही खुद को मतलबी इंसान
रटता था खुशी की लौकिक परिभाषाएं
नींद को मांगता था ईश्वर से जीवन की तरह उधार
सपनें कामना के नही प्रार्थना की शर्त पर आते थे
उन दिनों मेरे पास
कुछ उलाहने थे
जो तुम्हें आत्मविश्वास के साथ सुनानें थे
तुम्हारी गति अपने साथ उड़ाकर ले जा रही थी
प्रेम का अधिकार
अपनत्व की चादर
और एक दुसरे की जरूरत
जिन दिनों तुम बेहद मजबूत थी
उन दिनों सबसे कमजोर था मैं।

© डॉ.अजित

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