Thursday, April 14, 2016

डर

मेरा सबसे बड़ा भय यह है
तुम्हारा सामाजिक आक्रोश
तुम्हारे स्त्रीत्व की हत्या न कर दें
करुणा वात्सल्य प्रेम जैसे तुम्हारी ताकतों को
निष्क्रिय न कर दें
ये कोई पुरुषवादी भय नही है
बल्कि ये उस स्त्री तत्व का भय है
जो मेरे अंदर है
और तुम्हारी क्षुब्धता देख आजकल सहमी रहती है
व्यवस्था और रीतियों की आंच में
तुम दिन ब दिन पिंघल कर
कठोर होती जा रही हो
लड़ रही हो रोज़
अलग अलग मोर्चे पर अकेली लड़ाईयां
मुझे इस बात भी डर है
ये लड़ाईयां तुम्हें इस कदर अकेला न कर दे
कि तुम्हें जुगुप्सा होने लगे अपने प्रिय पुरुष से भी
तुम सन्देह करनें लगो
उसके मंतव्य पर भी
जानता हूँ एक डरे हुए पुरुष के इस कथन से
तुम्हें जरा भी सन्तोष न मिलेगा
नही कम होगा तुम्हारा रोष
अपना डर जताकर
मैं कमजोर नही थोड़ा मजबूत महसूस कर रहा हूँ
क्योंकि तमाम बातों के बीच
डर को मुझसे बेहतर समझती हो तुम।

© डॉ. अजित

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