Monday, April 25, 2016

वहां

वहां कोई किसी के लिए नही था
जो जिसके लिए था उसी के लिए नही था
ऐसा भी नही था वहां हर कोई अपने लिए था
वहां जो जिसे सोचता वो उसके लिए नही था
जब कोई किसी के लिए नही था
फिर वहां किस लिए था

इस सवाल की पड़ताल के लिए धरती पर बदलना पड़ता था अपना ध्रुव

उत्तर दक्षिण नही
पूरब पश्चिम भी नही
तब अपने ही ग्रह की यात्रा करनी पड़ती थी
स्पेस शटल में बैठकर
दिशा का मानचित्र बनाते हुए
जख्मी हो जाते थे हाथ

तोड़नी पड़ती थी
अपने की गुरुत्वकार्षण के केंद्र की समय रेखा
वहां इतनी जल्दी बदल जाती थी
मनुष्य की मनुष्य में रूचि
जितनी देर में बदल जाती है
छाँव बदल जाती है धूप में

मन के भूगर्भ में जमा थे संतृप्त ज्वालामुखी
जंगलों की जड़े टुकड़ो में टूटकर बह रही थी
धरती के अंदर बहती नदियों का कोई सागर नही था
उनके व्यवहार को समझा जाता था समलैंगिक

ऐसे अस्त व्यस्त समय में
देह की यात्रा कहीं नही पहुँचती थी
मन की कोई यात्रा ही नही थी
वो जन्म से ही नपुंसक लिंग में बात करने का आदी था

अपनत्व का घास ज़मी थी
जिसकी कतर ब्योंत करने की जिम्मेदारी
जिस माली पर थी
वो भूल गया था सारी स्मृतियां
उसका कौशल छोटा बड़ा देख नही पाता था
उसे निकट दृष्टि दोष था

वहां संगीत के नाम पर
कुछ ध्वनियां बची थी
जिसे सुन कोई रोता नही था
कुछ लोग हंसते तो कुछ केवल मुस्कुराते थे

ऐसी अकेली दुनिया में
सब अर्थ भावार्थ और शब्दार्थ के गुलाम थे
विरोधाभास एक निपुणता थी वहां
पुरुषों के वीर्य में शहद की गंध थी
और असल का शहद मधुमक्खियों का थूक भी नही था
उनके श्रम का एक ही हिंसात्मक उपयोग बचा था
जिसे कूटनीति भी कहा जा सकता था

अतीत में डूबे गाँव
वर्तमान से भागते शहर
भविष्य के नशे में डूबे कस्बे थे वहां

वहां आदमी अपनी आदमीयत के पुरस्कार पर जिन्दा था
प्रेम वहां का सबसे सतही विषय था
जिस पर प्रत्येक नागरिक लिख सकता था कविता
दे सकता था उपदेश

संयोग मैं उसी ग्रह का नागरिक था
निर्वासन पर मैंने किए तमाम दुष्प्रचार अपने ही ग्रह के बारें में

बस इसलिए आज भी वहां के लोग याद करते है मुझे
एक तिरोहित भरे सम्मान के साथ।

© डॉ.अजित







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