Thursday, December 29, 2016

शुभकामना

मत भेजना नए साल पर कोई शुभकामना
जिस साल में तुम न हो
वो नया कैसा हुआ भला

भले नए साल कई महीने बीतने पर
कर देना अचानक से विश
जैसे आईस-पाईस में बोल दिया हो ‘धप्पा’

मत भेजना कोई धुंध में लिपटी शुभकामना
फॉरवर्ड किए संदेशो से उकताया हुआ मेरा मन
नही पढ़ सकेगा तुम्हारा कोई मैसेज

और पढ़कर भी क्या करना है
जब फिलहाल शुभकामना के बदले
शुभकामना नही मेरे पास

इनदिनों मैं प्रार्थनाओं में व्यस्त हूँ
ईश्वर से मांग रहा हूँ रोज़ माफियाँ
न किए गए गुनाहों की भी
मुझे माफ़ी मिले न मिले कोई बात नही
मुझे कोई अफ़सोस न होगा इस पर  

मगर
नए साल पर तुम्हें देखना चाहता हूँ
बेवजह खुश

जब जब तुम किसी कारण से खुश हुई हो
उस ख़ुशी ने ली है हमेशा एक बड़ी कीमत
नये साल पर मत भेजना मुझे कोई शुभकामना
यदि हो सको हो
हो लेना बस एक बार बिना वजह खुश

ईयर न्यू हैप्पी
तभी सीधा पढ़ सकूंगा मैं.


डॉ. अजित 

रास्ता भूल

मैं कही खो गई हूँ शायद
शायद इसलिए कहा
क्योंकि
अब मै पता नही पूछ रही हूँ
पता पूछने वाला
जरूर एकदिन कहीं पहुँच ही जाता है
मुझे जहां या कहां जाना था
ये मैं ठीक से शायद बता भी दूं
मगर क्यों जाना था
ये बता पाना मुश्किल होगा मेरे लिए

अनुमानों के जरिए एक चित्र बनाती हूँ मै
चित्र में शायद जोड़ रही हूँ क्योंकि
रास्ता भूलने के कारण
चित्र की ध्वनि लग सकती है
कुछ कुछ मानचित्र जैसी

उस चित्र में मैं हूँ तुम हो
मगर कोई दृश्य नही है
मसलन इस चित्र की कोई मनोदशा नही है
ये रास्ता भूले किसी दूसरे मुसाफिर से नही मिलवाता
यदि ऐसा करता तो शायद
मैं हंसते हंसते रो पड़ती
मैं नाचते हुए उदास न होती

मैं रास्ता भूल गई हूँ
मैं कहीं खो गई हूँ
ये फ़िलहाल मुकम्मल बयान है मेरे लिए
जिसकी पुष्टि के लिए
कविता की शक्ल में जगह जगह
'शायद' टांक दिए है
किसी पार्टी वियर फॉर्मल शर्ट के एक्स्ट्रा बटन की तरह

मैं रास्ता भूल गई हूँ
इसलिए औपचारिक होकर मिटा रही हूँ
अपना थोड़ा भय
थोड़ा अपराधबोध

बुरा मत मानना यदि मै पूछूं कई बार
कैसे हो !
वैसे भी
जो रास्ता भूल जाए
उसकी बात का क्या बुरा मानना भला।

©डॉ.अजित

Wednesday, December 28, 2016

झूठ

झूठ सिर्फ मैं प्रेम में बोलूंगी
इतना भर झूठ कि
तुमसे नफरत और प्रेम
एक साथ किया मैंने
रख दूंगी
छटांक भर मुस्कान
गुमशुदा चेहरे पर
ताकि मुझे खुश देख
तुम महसूस कर सको
आसपास बिखरी छोटी छोटी खुशियां
प्रेम में इतना झूठ जरूर बोलूंगी
तुम्हें कितनी दफा
भूलने के लिए संकल्प
मगर नही भूल पाई कभी
प्रेम में झूठ बोलना जरूरी है मेरा
क्योंकि
प्रेम में बोला गया सच
एकदिन शापित होता है
झूठ बन जाने के लिए।

© डॉ.अजित

Tuesday, December 20, 2016

उम्मीद

कविताएं
जो सुनानी थी
खत जो दिखाने थे
फोटो जो साथ क्लिक करने थे
छूटे हुए सपनें जो गिनाने थे

जिंदगी के ऐतबार पर
किस्सों को बुनना था
कुछ बिखरे हुए हिस्सों को
हंसते हुए रोज़ चुनना था

काम सब के सब अधूरे रहे
कहे अनकहे ख्याल सब लौट आए
मुझ तक देर सबेर

तुम्हारा पता सही था
खत भी खुले थे
डाकिया भी भरोसे का था

बस तुम अनुपस्थिति थी चित्र से
तुम्हारी अनुपस्थिति की तह बना रख ली है
एक धुंधली सम्भावना की शक्ल में

उम्मीद मनुष्य को बार बार निराश होने के लिए
प्रशिक्षित करती है
मैं उम्मीद की शक्ल में देखता हूँ तुम्हें

निराशा इसलिए सबसे अधिक प्रिय है मुझे।

©डॉ.अजित

Sunday, December 18, 2016

तुम बिन

तुम मेरे जीवन में
पूर्ण विराम थे
आधे अधूरे वाक्य
और प्रश्नचिन्ह के बाद
अनिवार्य थी तुम्हारी उपस्थिति
तुम्हारा बिना अर्थ छूटे सब अधूरे
बिगड़ा जीवन का व्याकरण
अब कोई यह तय नही कर पाता
मुझे पढ़ते हुए
उसे कहाँ रुकना है।
*****
तुम मेरे जीवन में
अवसाद की तरह व्याप्त थे
तुम्हारे बिना लगता था खालीपन
तुम रह सकते थे
सुख और दुःख में एक साथ
तुम्हारे बिना
सुख और दुःख में मध्य अटक गया मै
इसलिए
नजर आता हूँ
हंसता-रोता हुआ एक साथ।
***
दो दिन से मुझे बुखार है
माथे पर रखा हाथ याद आता है मुझे
ताप जांचता हूँ गालों को छूकर
आँखों बंद करता हूँ तो
नजर आती हो तुम नसीहतों के साथ
बीमार हूँ मगर खुश  हूँ
ये खुशी
तुम्हारी बात न मानने की है।
***
उन दिनों और इन दिनों में
ये एक बुनियादी फर्क है
अब बुरा लग जाता है
बेहद मामूली बातों का
तुम्हारे बिना खुद को बचाना पड़ता है
दुनिया और उसकी धारणाओं से
तुम्हारे साथ लड़ना अनावश्यक लगता था
उन दिनों अनायास लापरवाह था
इन दिनों सायास सावधान हूँ मैं।

© डॉ.अजित 

Saturday, December 10, 2016

सर्दी की बातें

बहुत दिन बाद उसने पूछा
कैसे हो?
मेरे पास इस सवाल का
एक अस्त व्यस्त जवाब था
इसलिए मैंने कहा
बिलकुल ठीक
उसके बाद
बहुत दिनों तक हालचाल नही पूछा उसने
सम्भवतः वो समझ गई थी
बिलकुल ठीक के बाद
मुद्दत लगती है सब कुछ ठीक होने में।

***
परसों उसका फोन आया
जब तक फोन जेब से निकाला
फोन कट गया
इसका एक अर्थ यह लगाया मैंने
वो उसी क्षण चाहती थी मेरी आवाज़ सुनना
लेशमात्र का विलम्ब शंका पैदा कर गया होगा
जैसे ही कॉल बेक के लिए फोन किया टच
दूसरा फोन आ गया अचानक से
इस तरह टल गया मेरा भी वो क्षण
जब कुछ कहना था मुझे
प्रेम में टलना एक बड़ी दुर्घटना थी
ये बात केवल जानता था हमारा फोन।
***
उस दिन मैंने मजाक में कहा
प्लास्टिक मनी नही मेरे पास
वरना कॉफी पिलाता तुम्हें
उसने हंसते हुए कहा
अच्छा है नही है तुम्हारे पास
वरना कॉफी नही
शराब पिलाने के लिए कहती तुमसे
मैंने कहा यूं तो कैशलैस एक अच्छा अवसर हुआ
उसने उदास होते जवाब दिया
जब तुम होपलैस हो
फिर कोई अवसर अच्छा कैसे हो सकता है?
***
लास्ट दिसम्बर की बात है
एक धुंध भरी सुबह
उसने कहा
मौसम को चिढ़ा सकते हो तुम
मैंने कहा वो कैसे?
उसके बाद उसने मुझे गले लगा लिया
और हंसने लगी
उस हंसी के बाद
दिसम्बर उड़ गया धूप बनकर
पहली बार हंसी के बदले
मुझे सूझ रहा था
केवल मुस्कुराना।

© डॉ.अजित

Friday, December 9, 2016

माया

कॉपी पेस्ट
वहां की उत्कृष्ट रचनात्मकता थी
और शेयर करना अधिकतम कृतज्ञता
ब्लॉक करना दण्ड का अधिकतम रूप था
फ्रेंड बनाकर अन्फ्रेंड करना
तकनीकी का मानवोचित प्रयोग
फेक प्रोफाइल अय्यारी का स्कूल था
जिसमे दीक्षित होते दोनों
ब्लॉक करने वाले भी
ब्लॉक होने वाले भी
चित्रों की निजता बचाए रखने के लिए
एक मात्र उपाय ओनली मी था
जिसे करने वाला खुद पर गुस्सा होता था पहले
वायरल वीडियो और वायरल पोस्ट
दोनों बीमारी नही थी मगर बीमारी से कम भी न थी
लाइक और दिल में महज इतना फर्क था
दोनों को उलटा समझ लिया जाता था कभी कभी
इनबॉक्स मंत्राणाओं यातनाओं और परनिंदा के शिविर थे
जहां घायल योद्धा अचेत बड़बड़ाते रहते थे
यह पहली ऐसी आरोग्यशाला थी
जहां बीमार करते थे बीमार का इलाज़
वो पश्चिम के एक युवा का अंतरजाल पर षड्यंत्र था
जिसमें बुरी तरह फंस गए थे पूरब के लोग
दक्खिन के लोग हसंते थे
उत्तर के लोग रोते है ये सब देखकर
वो फेसबुक थी जिसका उच्चारण स्त्रीलिंग था
मगर जिस पर पसरा था टनों पुल्लिंग का अहंकार
पुराणों और सत्यनारायण की कथाओं से ऊबी औरतें देख रही थी वहां औसत मनुष्य का दैवीय खेल
उनका हंसना रोना महज दर्शकीय प्रतिक्रिया न थी
मंच का नाम जरूर था
मगर खेल जाते थे वहां रोज नाटक नेपथ्य में
सबके पास थे अपने अपने सच के अलौकिक संस्करण
वो मायावी दुनिया कतई नही थी
वहां के लोग मगर मायावी थे
इतने मायावी कि
ये पहचाना मुश्किल था
कौन सी प्रोफ़ाइल एक्टिवेट होकर भी
डिएक्टिवेट थी
और कौन सी डिएक्टिवेट होकर भी
एक्टिवेट।

© डॉ.अजित

Thursday, December 8, 2016

निकलना

हंसी तुमने देखी है हमारी
मगर हम रो कर निकले है

जितना हासिल किया तुमने
उतना हम खो कर निकले है

धूप में भी छांव मिल जाएगी
बीज एक हम बो कर निकले है

पहुँच ही जाएंगे खत सब पते पर
ख्याल  दिल भिगो कर निकले है

कोई रहता था हमेशा वहां
जहां से हम हो के निकले है

©डॉ.अजित

Tuesday, December 6, 2016

गजल

पहले कह देता था
अब कहता नही हूँ

मान लो आदमी हूँ
कोई खुदा  नही हूँ

बेखबर हूँ थोड़ा सा
तुझसे जुदा नही हूँ

रो नही सकता अभी
खुद पे फ़िदा नही हूँ

बिछड़ नही सकता
तुमसे मिला नही हूँ

थोड़ी सी पीने दो
अभी खुला नही हूँ

© डॉ.अजित

Monday, December 5, 2016

ईश्वर

कुछ सवालों के जवाब
इसी जन्म में पूछे जाने चाहिए ईश्वर से
नही कर देना चाहिए उसे दोषमुक्त
प्रारब्ध के नाम पर

क्यों मर जाता है वो पिता
जिसकी जरूरत सबसे अधिक उसके बच्चों को है?
क्यों पराजित होता जाता है
एक सीधा सच्चा इंसान हमेशा

रोटी पर पहला हक क्यों नही उसका
जिसका सबसे ज्यादा पसीना शामिल है उसमें
क्यों कुछ लोग तय कर देते है
भीड़ का भविष्य बिना उनकी रायशुमारी के

दुःखो से ऐतराज़ नही
मगर क्यों मिलते है ऐसे अकथनीय दुःख
जिनका कोई उपचार नही

कब तक ईश्वरीय सत्ता के भरोसे
अपने प्रश्न टालता रहेगा
एक मजबूर हैरान परेशान मनुष्य
कब तक धर्म और आध्यात्म के नाम पर
गलत ठहरा दिया जाएगा
उसके बेहद बुनियादी और जरूरी सवालों को

कैसा लगता होगा उस दयालु ईश्वर को
जब मनुष्य को देखता होगा बेबस और मजबूर
यदि वो न्याय कर रहा पूर्वजन्मों के कर्मो से

तो
इस जन्म में मैं खारिज़ करता हूँ
ईश्वर का दयालु होना

ईश्वर दयालु नही बेहद चालाक है
वो हमेशा छोड़ना चाहता
उसको पूजने के कारण
भले ही इसके बदले
घुटकर मर जाए
एक सीधा सच्चा आदमी बेवजह

ईश्वर पर सवाल खड़े करने के लिए
भले दण्डित किया जाए मुझे
मगर बतौर इंसान मुझे ईश्वर का चरित्र लगता है
हमेशा संदिग्ध
उसका न्याय का दर्शन नही आता समझ
खोखली लगती है आस्था की तकरीरे
कई बार ईश्वर लगता है
मनुष्य से ज्यादा मजबूर और असुरक्षा से घिरा

मनुष्य के कष्ट
उसके शाश्वत बने रहने का
एक मात्र उपाय है।

© डॉ.अजित

Sunday, November 27, 2016

घर

उस घर में रंग बिरंगे तकिए थे
परदों का था अपना वास्तु शास्त्र
खाने की मेज़ और पढ़ने की मेज़ पर
चीनी और कोरियाई खिलौने अलग-अलग थे

किताबें वहां ऐसी सजी थी
मानों मुद्दत से वे देख रही हो
मनुष्यों के बेवकूफियां

घर के तौलिए अनुशासन में गीले थे
कोई नही गिन सकता था उनकी सिलवटें
फ्रिज के नजदीक टंगा था
बी पॉजिटिव रहने का एक निस्तेज विचार
किसी महंगी पेंटिंग की शक्ल में

उस घर के बर्तन जरूरत से ज्यादा भारी थे
उनमें थी अजीब किस्म की भारी खनक
जिसे सुन भूख मर जाती थी आधी
पानी पीते हुए लगता था डर
पानी पीने आवाज़ बिगाड़ न दे घर की शान्ति

मेहमान उस घर का बहुप्रतिक्षित व्यक्ति जरूर था
मगर वो भेद नही कर पाता था
कौन असल में मालिक है और कौन मेहमान
वो कोशिश करता बैठे रहने की
बिना दायीं टांग को हिलाए

उस घर में दरअसल कई घर थे
मेहमान की शक्ल में
इसकी खबर असल घर को थी
मगर घर के मालिक को बिलकुल भी नही थी

वो हाईजीन जैसी
छोटी छोटी बातों से बहुत खुश था
उसकी खुशी झलकती थी बातों में

मैनें जब दुःख पर बातें करना चाही
उसने कहा कौन दुखी नही इस दुनिया में
जबकि मैं दुनिया की नही उसकी बात कर रहा था

उस घर में दुःख और सुख की नही
किसी तीसरी मनोदशा पर बात की जा सकती थी
तब मुझे वो घर लगा थोड़ा सा मायावी

डर के मारे नही जाता उस घर कभी
मगर वो घर अक्सर करता है मेरा पीछा
जबकि मेरे पास नही है कोई भी छिपी हुई बात
तीसरी मनोदशा पर।

© डॉ.अजित

Saturday, November 26, 2016

रूपांतरण

प्रेम ने मुझे
शालीनता सिखाई
खुद से बेहतर बात करना
प्रेम के कारण सीख पाया मैं

प्रेम ने मुझे आदर करना सिखाया
और बिना बात अड़ने की खराब आदत
प्रेम के कारण ही छोड़ पाया मै

प्रेम के कारण मै सीख पाया
हंसी और आंसू में बुनियादी भेद
वरना मुद्दत तक
हंसते हुए लोग मुझे लगते थे रोते हुए
और हंसी आती थी किसी के रोने पर

प्रेम मुझे बदलने नही आया था
प्रेम मुझे ये बताने आया था कि
मनुष्य अपने चयन से अकेला हो सकता है
या फिर कमजोरियों के कारण
वरना
ईश्वर ने नही बनाया मनुष्य को
मात्र खुद के लिए
उस पर हक होता है
किसी और का भी

कितनी अवधि के लिए?
ये बात नही बताई
किसी प्रेमी युगल ने मुझे
अनुभव के साक्षात्कार के बाद भी

शायद
यही बात बताने प्रेम आया था जीवन में
और बताकर चला गया
अपनी कूट भाषा में।

©डॉ.अजित

Monday, November 21, 2016

प्रार्थना

प्रेम को घुन की तरह
चाट रही थी
अति वैचारिकता
मुद्दें कुतर रहे थे
अंतरंग अव्यक्त प्रेम को

सबसे खराब था
असुविधाओं और असहमति के लिए
दुसरे को दोषी ठहराना
बावजूद इन सबके
वो सबसे ज्यादा खुद से खफा थे

बहस में दुबक गया था प्रेम
स्पष्ट बातें लगने लगी थी
ज्यादा कड़वी
कमजोर हो रहा था
प्रेम का आंतरिक लोकतंत्र

तर्कों से आहत थी सामूहिक सहनशीलता

ईश्वर को खारिज़ कर चुके थे
वो दोनों कब के
नही शेष था कोई प्रार्थना का विकल्प
चमत्कार मौजूद था
सबसे धूमिल आशा के रूप में

जो लिए जातें संकल्प
जो तोड़े जाते संकल्प

उनके लिए नही था कोई प्रार्थनारत
ईश्वर को छोड़कर।
© डॉ.अजित

Monday, November 14, 2016

प्रिय कवि

कभी तुम्हारा प्रिय कवि था मै
इतना प्रिय  कि
खुद चमत्कृत हो सकता था
तुम्हारी व्याख्या पर
देख सकता था
पानी पर तैरता पतझड़ का एक पत्ता
और तुम्हारी हंसी एक साथ

कभी मैं बहुत कुछ था तुम्हारा
कवि होना उसमें कोई अतिरिक्त योग्यता न थी
तुम तलाश लेती थी
उदासी में कविता
मौन में अनुभूति
और दूरी में आश्वस्ति

मुद्दत से तुमसे कोई संपर्क न होने के बावजूद
इतना दावा आज भी कर सकता हूँ
याद होगी तुम्हें
मेरी लिखावट
मेरी खुशबू
और मेरी मुस्कान
लगभग अपनी पहली शक्ल में

कभी तुम्हारा प्रिय कवि था मै
मेरी कविताओं की शक्ल में मौजूद है
ढ़ेर सी अधूरी कहानियां
और बेहद निजी बातचीत
उन दिनों
मैं कर जाता था पद्य में गद्य का अतिक्रमण
जिसके लिए कभी माफ नही किया
मुझे कविता के जानकारों ने

कभी तुम्हारा प्रिय कवि था मै
इसका यह अर्थ यह नही कि
आज तुम्हें अप्रिय हूँ मै
इसका अर्थ निकालना एक किस्म की ज्यादती है
खुद के साथ
और तुम्हारे साथ

कवि एकदिन पड़ ही जाता है बेहद अकेला
इतना अकेला कि
उसे याददाश्त पर जोर देकर याद करने पड़ते है
अपने चाहनेवाले

कविता तब बचाती है उसका एकांत
स्मृतियों की मदद से

वो हंस पड़ता है अकेला
वो रो पड़ता है भीड़ में
महज इतनी बात याद करके

कभी किसी का प्रिय कवि था वह।

© डॉ.अजित

Thursday, November 10, 2016

अपलक

तुम्हारी गर्दन पर
एक कम्पास रखा है
जिसे देखकर नही
सूंघकर होता है
दिशाबोध

तुम्हारी पलकों पर
कुछ रतजगे सुस्ता रहें है
जिनकी जम्हाई में हिसाब है
तुम्हारी करवटों का

तुम्हारे माथे पर लिखा है
एक पता
जिसकी लिपि को वर्गीकृत किया गया है
संरक्षण की श्रेणी में

तुम्हारे बालों में अटक गए
कुछ आवारा ख्याल के पुरजे
जिन्हें यादों की कंघी से निकालना असम्भव है

तुम्हारी पीठ पर
लिखे है अग्निहोत्र मंत्र
दीक्षित हो रहें है जिनसे
आश्रम से बहिष्कृत सन्यासी

तुम्हारी नाभि पर
प्रकाशित है आग्रह
धरती के बोझ को धारण करने का
और वलयों में कक्षा बन गई है
धरती के उपग्रहों की

तुम्हारे तलवों पर
बना है श्री यंत्र
बिना प्राण प्रतिष्ठा के भी
वो सदा बना रहेगा
चमत्कारिक

तुम्हारी हथेली पर
हृदय और मस्तिष्क रेखा के मध्य
आड़ा तिरछा फंस गया है मेरा नाम
भाग्य रेखा जिस पर मुस्कुराती है रोज़
तुम्हारे हथेलियों की नमी
अब ऊर्जा का अज्ञात स्रोत है

तुम्हारे कान
झुक गए अफवाहों और कयासों के बोझ से
कान की तलहटी में पड़े झूले
भूल गए है अपनी ध्वनियां
इसलिए भी अब दिगभ्रमित रहेगा बसन्त

मैं केवल तुम्हें देख रहा हूँ
जितना देख पा रहा हूँ
ये विवरण उसका दशमांश भी नही
जो नही देख पा रहा हूँ
उसके लिए कोई कौतुहल नही
मेरे पास

क्योंकि
तुम्हें यूं देखना एक आश्वस्ति है
कि तुम इस जन्म में
अभी खोई नही हुई मुझसे
इसलिए स्मृतियों को धोखा देकर
फ़िलहाल देख रहा हूँ तुम्हें
अपलक।

© डॉ. अजित

Friday, November 4, 2016

अयाचित

अयाचित प्रेम
कुछ इस तरह से हुआ अनुपस्थित
जैसे अचानक से बारिश
बरसते-बरसते निकल आई हो धूप

न जाने कब से कर रहा था तैयारी
चुपके से ओझल हो जाने की
और हुआ इस तरह से ओझल जैसे
हाथ हिलाते हिलाते हम
छोड़ आते है गहरे दोस्त की चौखट

ये कथन अधूरा है
संदेहास्पद है
और थोड़ा अविश्वसनीय भी कि
प्रेम हुआ जीवन से अनुपस्थित
इस पर सवाल किए जा सकते है
इस पर सलाह दी जा सकती है बिन मांगी
प्रेम को न समझने का इलज़ाम तो
वो भी लगा सकता है
जिसके पास नफरत के सिवाय कुछ न  हो

फिर भी सच तो यही है
कुछ इस तरह से हुआ प्रेम अनुपस्थित
जैसे एकदिन कोई भूल जाता है
खुद के जूते का नम्बर
जैसे कोई भूल जाता है
जेब में जरूरी कागज़ या फिर एक नोट

जब प्रेम हो रहा था अनुपस्थित
ठीक उसी वक्त
भूल गए सारी शिकायतें
सांझी अच्छी खराब आदतें
उसी वक्त यादों को छोड़ दिया
किसी पहाड़ी मोड़ की तरह

प्रेम का अनुपस्थित होना
बेहद सामान्य घटना नही थी
मगर उसे सामान्य मानने के अलावा
कोई दूसरा विकल्प भी नही था
असामान्य प्रेम का सामान्य ढंग से छूटना
कुछ कुछ वैसे था
जैसे सुबह सुबह छूट गई हो पहली बस
और अनमने मन से कोई हुआ हो सवार
किसी दूसरी सवारी में

इसके बाद वो जहां भी पहूँचेगा
निसन्देह थोड़ी देर से ही पहूँचेगा
उससे छूट जाएगी हर चीज़
एक छोटी सी मानक दूरी से
प्रेम का अनुपस्थित होना दरअसल
जीवन में विलम्ब का
स्थायी रूप से उपस्थिति होना भी था
और सबसे मुश्किल था
इस विलम्ब को आदत में ढाल लेना
और मुस्कुराते हुए
बात-बेबात माफी मांगना।

©डॉ. अजित

पता

जीसस के पैर में कांटा चुभ गया है
खून रिस रहा है
धरती पर लाल निशान बने है

जीसस के पदचिन्ह खून में दिख नही रहे है
दुनिया खून का पीछा करते हुए
स्वर्ग का पता नही जान पा रही है

जीसस पानी पर नही चलना चाहते
पानी उम्मीद की शक्ल में मौजूद है
अगर पानी लाल हो गया
पसीने से लथपथ लोगो को
नही नजर आएगा खुद का चेहरा

जीसस का खून बह रहा है
सलीब से मनुष्य ने हल बना लिया है
वो धरती को जोत रहा है
वो धरती को बंजर कर रहा है

जीसस रो नही सकते
उनके आंसू खून के स्रोत से जुड़े है
वो धरती पर घूम रहे है
उन्हें देख मनुष्य उपचार के बारे में नही
हथियार के बारे में सोचता है

जीसस उदास नही है
मनुष्य खुश नही है
खून अब तरल नही है

जीसस का पैर जब तक ठीक होगा
पूरी खत्म हो चुकी होगी लगभग
एक आहत सभ्यता।

©डॉ.अजित

Saturday, October 29, 2016

अमावस

प्रेम में अमावस
याद रहती हमेशा
दिल और दिया
जब जलता है एक साथ

रौशनी और अँधेरे
की दोस्ती नजर आती है

प्रेम चाँद को मानता है
भरोसेमंद
उसी के सहारे
लांघ जाता है बोझिल रातें
पूर्णिमा प्रेम की दिलासा है
और अमावस प्रेम की परीक्षा

कभी जलकर तो कभी मिलकर
प्रेम को बचाते है मनुष्य
प्रेम का बचना उत्सव है

प्रेम का मिटना एक घटना है
एक ऐसी घटना
जो ढूंढती है अमावस और पूर्णिमा के मध्य
एक सुरक्षित तिथि
ताकि बांच सके
सम्भावनाओं और षड्यंत्रों का पंचांग।

© डॉ.अजित

Friday, October 14, 2016

याद

उस दिन उसे बुखार था
मैंने ब्लड टेस्ट कराने के लिए कहा
लक्षणों की गैर डाक्टरीय व्याख्या की
अनुमान से कुछ दवाएं भी बताई
उसकी कलाई पकड़कर
नब्ज़ गिनने का अभिनय किया
तापमान पूछा सेल्सियस में
फ़िक्र करते हुए कुछ खाने पीने के परहेज़ बताएं
आराम करने जैसी औपचारिक सलाह दी
बस वही एक जरूरी काम नही किया
जो करना चाहिए था
उसे गले नही लगाया मैने
तमाम काम जो मैने बताएं
वो बिन मेरे भी कर सकती थी
उसने मेरा बताया एक भी काम नही किया
हां ! उस दिन उसने साधिकार मुझे गले लगाया
जिस दिन बुखार था मुझे
ज्ञान से बढ़कर था उसका वो स्नेहिल स्पर्श
एक ही बीमारी ने बदल दी थी हमारी दुनिया
बुखार के जरिए जान पाया मैं
नजदीक होने का अर्थ
जो याद आता रहा हमेशा
हरारत से लेकर बुखार तक।

© डॉ.अजित


Tuesday, October 4, 2016

विज्ञापन

जब जब ये विज्ञापित करता हूँ मैं
ये चाहता हूँ मै
ये करना है मुझे
उसका एक अर्थ ये भी होता है
वो काम कभी नही होगा
शायद वैसा कभी नही करूँगा मैं

चाहना का प्रकाशन एक क्षणिक सुख है
नष्ट हुए वीर्य की तरह
ताप में विगलित हुए अंडे की तरह
उनकी कोई भूमिका नही होती
भ्रूण के निर्माण में
वो बाह्य की भटक कर
खो देते है अपना अर्थ
अपनी समस्त प्रकृति और संभावनाओं के साथ

क्षणिक रोमांच हत्यारा है
मनुष्य की दृढ इच्छाशक्ति का

लुत्फ़ जो लूट लिया अहा और वाह का
वो कभी करने नही देगा मुझे वो काम
ये बात ठीक से पता मुझे
इसलिए मत करना कभी यकीन
मेरी किसी उद्घोषणा का
चाहे वो किसी अभिनव लक्ष्य की हो
या फिर हो आत्महत्या की।

©डॉ.अजित

Sunday, October 2, 2016

भाष्य

न जाने कितने स्टेट्स थे
जो कभी लिखे ही नही गए

न जाने कितने उलाहने थे
जो कमेंट न बन पाए कभी

न जाने कितनी बातों के लिए
छोटा पड़ गया इनबॉक्स

न जाने कितने लम्हें शेयर करने थे
मगर तुम तब ऑनलाइन न मिले

इतनी की गई बातों के अलावा
लम्बी फेहरिस्त है न की गई बातों की
वक्त बेवक्त सारी बातें करना चाहता हूँ
जो बचती चली आ रही है मुद्दत से

अचानक से याद आ जाता है
तुम्हारा ताना
'तुमनें तो फेसबुक को दिल से लगा लिया'

फिर मैं बदल देता हूँ विषय
लिखने लगता हूँ राजनीति पर
बनता हूँ पैराडॉक्स से वन लाइनर
गाने लगता हूँ गाना
सोने लगता हूँ दिन में
खोने लगता हूँ रात में

आने वाली पीढियां जान सकेंगी
फेसबुक को हमारे जरिए
माया के उत्तर आधुनिक संस्करण के रूप में
ऋषि सूक्त की तरह काम आएँगे मेरे स्टेट्स

हमारी इन बातों को
पढ़ा जाएगा भाष्य की तरह।

©डॉ.अजित

Tuesday, September 27, 2016

थायरॉयड

थायरॉयड
________
बेशक ये बदलाव
हार्मोनल था
मगर इस बदलाव में कोई क्रान्ति न थी
ये एक छिपा हुआ प्रतिशोध था

ये देह को मजबूरी के चरम तक देखने का
देह का एक बड़ा सस्ता मगर क्रूर प्रहसन था

थायरॉइड से लड़ती एक स्त्री की देखी फीकी हंसी
थायरॉयड से लड़ते एक पुरुष का देखा बोझिल गुस्सा
दोनों में एक बात का साम्य था
दोनों जानते थे अपनी थकन का ठीक ठीक अनुमान
व्याधि स्त्री पुरुष को कैसे मिला देती है एक बिंदु पर
साम्यता की यह सबसे गैर गणितीय समीकरण थी

मैंने पूछा जब एक स्त्री से थायरॉयड के बारें में
वो ले गई मेरा हाथ पकड़ कर दीमक की बांबी तक
उसने दिखाया चीटियों को कतार से चलते हुए
उसने दिखाई सीमेंट से पलस्तर हुई दीवार

यही सवाल जब एक पुरुष से किया मैंने
वो बैठ गया ऊकडू
धरती पर बनाया उसने एक त्रिभुज
उसने गिनवाईं अपनी धड़कनें
और लगभग हाँफते हुए बताया
उसे नही है अस्थमा

थायरॉइड उत्तर आधुनिक बीमारी है
ऐसा देह विज्ञानी कहते है
मनोविज्ञान इसे अपनी वाली बीमारी मानता ही नही
जबकि ये सबसे ज्यादा घुन की तरह चाटती है मन को

थायरॉयड से लड़ते स्त्री पुरुष को देख
ईश्वर के होने पर होने लगता है यकीन
वही मनुष्य को इस तरह लड़खड़ाता देख
हो सकता है खुश
और बचा सकता है प्रार्थना के बल पर अपनी सत्ता

थायरॉयड से लड़ते लोगो के परिजन
दवा के अलावा बहुत सी बातों से रहते है अनजान
उन्हें नही पता होता है
जब हंस रहा होता है एक थायरॉयड का मरीज़
ठीक उसी वक्त वो तलाश रहा था होता पैरो तले ज़मीन
गुरुत्वाकर्षण उससे खेलता रहता है आँख मिचोली
मोटापा बन चुका होता है
उसकी जॉली नेचर का एक स्थायी प्रतीक

थायरॉयड दरअसल उस गलती की सजा देता है
जो गलती आपने की ही नही होती कभी
थककर मनुष्य लौटता है पूर्व जन्म में
याददाश्त पर जोर देकर सोचता है
पूर्व जन्म के पाप
या विज्ञान के चश्में से पढ़ता है आनुवांशिकी
जब नही मिलता कोई ठीक ठीक जवाब
फिर डरते डरते पीता है पानी घूँट-घूँट

प्यास में पानी से
भूख में खाने से
डरना सिखा देता है थायरॉइड
और डरा हुआ मनुष्य जिस आत्म विश्वास से
लड़ता है लड़ाई इस बीमारी से
उसे देख थायरॉयड से पीड़ित व्यक्ति के
पैर छू लेना चाहता हूँ मै
मेरे पैर छू लेने से थायरॉइड नही छोड़ेगा
किसी स्त्री या पुरुष को
ये जानता हूँ मै
मगर और कर भी क्या सकता हूँ मैं
सिवाय इसके कि
थायरॉइड के बारें में थोड़ा बहुत जानता हूँ मै
जितना जानता हूँ वह पर्याप्त है
मुझे डराने के लिए।

© डॉ.अजित

Sunday, September 25, 2016

मामूलीपन

बेहद मामूली दुनिया थी मेरी
इतनी मामूली कि
दुखी हो सकता था मै
सब्जी वाले के दो रुपए कम न करने पर

खुश हो सकता था मैं
फटी जुराब होने के बावजूद
किसी को नजर न आने पर

मैं खुद इतना मामूली था
नही जानता था घर की पिछली गली में
कोई मेरा नाम
कई कई साल टेलर नही लेता था मेरी नाप
फिर भी सही रहता उसका अनुमान

मेरी बातें इतनी मामूली थी कि
सबसे गहरा दोस्त भी जम्हाई लेने लगता
और विषय बदल कर पूछता सवाल
और बताओ क्या चल रहा है

दरअसल,
मैंने खुद को जानबूझकर मामूली नही बनाया
मैं बनता चला गया
मामूली सी जिंदगी में
एक मामूली सा इंसान
मैं जब कहता कि मै खुश हूँ
मेरा परिवेश सोचता शराब पी है आज मैंने
मैंने जब कहता कि मैं दुखी हूँ
लोगबाग इसे मेरी आदत समझ लेते

वैसे मामूली होने से
मुझे कोई ख़ास दिक्कत नही थी
बल्कि ऐसा होना मेरे काम आया अक्सर
मुझसे नही थी किसी को सिफारिश की उम्मीद
मेरी अनुपस्थिति नही थी किसी भी महफ़िल में
जिज्ञासा और कौतुहल का विषय

जब मामूली सी बातों को मै दिल से लगा बैठता
यही मामूली होना मेरी सबसे ज्यादा मदद करता
मै हंस पड़ता रोते हुए
मैं रो पड़ता हंसते हुए

इस दौर में मामूली होना आसान नही था
हर कोई वहन नही कर सकता था मामूलीपन
इसकी अपनी एक कीमत थी
जिसको चुकाने की कोई मियाद नही थी
जो इतना बोझ उठा पाता
उसी के हिस्से में आती ये मामूली जिंदगी

मेरे हिस्से से जब किस्से में आई
ये मामूली ज़िंदगी
तब ये उनके समझ में आई
जो मुझे ख़ास समझकर
काट करे थे उम्मीद से भरी जिंदगी

उनकी निराशा पर
मुझे हुई मामूली सी हताशा
यही मामूलीपन बचा ले गया मुझे
गहरे अवसाद के पलों में आत्महत्या से

मामूली होने ने जीना थोड़ा आसान किया
और मरना थोड़ा मुश्किल
मामूलीपन की यही वो खास बात है
जिसे मेरा कोई ख़ास नही जान पाया
आजतक।

© डॉ.अजित

Friday, September 23, 2016

पिता के श्राद्ध पर

पिता के लिए...
तुम पिता थे मेरे
मेरे जीवन में लगभग अनिमंत्रित
बहुत से व्यक्तिगत आक्रोश थे मेरे
कुछ हास्यास्पद शिकायतें भी थी
जो कभी सुनाई नही तुम्हें
बचपन से तुम्हारी एक छवि थी
डर हमेशा आगे रहता
तुम हमेशा पीछे
एक वक्त तुम्हें देख शब्द अटक जाते थे मेरे
भूल जाता था मै चप्पल पहनना भी
शर्ट पहन लेता था पायजामे पर
थोड़ा बड़ा हुआ तो
मैंने तर्को से कई बार किया तुम्हें खारिज़
और विजयी मुद्रा में घूमता रहा आंगन में
असल में वही मेरी असल पराजय थी
जो पराजय का श्राप बन चिपक गई
मेरे अस्तित्व से
एक वक्त वो भी देखा
जब थे तुम बेहद मजबूर
दिला रहे थे मुझे आश्वस्ति
परेहज करने के भर रहे थे शपथ पत्र
तुम्हें लगा मैं डॉक्टर को ठीक ठीक बता सकता हूँ
तुम्हारी दशा
और बचा लूँगा तुम्हें उस वक्त मौत के मुंह से
मैं तुम्हारा बेटा था
मगर उस वक्त तुम
मुझे अपने पिता की तरह देख रहे थे
तुम गलत थे उस वक्त
मैं हमेशा से मजबूर था तुम्हारे सामने
बात जीवन की हो या मौत की
रहा हमेशा उतनी ही मात्रा में मजबूर
तुम्हें बचाने के मामले में
मैं मतलबी हो गया था
नही मानी तुम्हारी अंतिम इच्छा
जब तुमने कहा मुझे मेरी माँ के पास ले चले
वास्तव में मुझे नही पता था
ये आख़िरी शब्द होंगे तुम्हारे
हो सके तो मेरी अवज्ञा के लिए
मुझे माफ़ करना पिता
मैंने विज्ञान को मान लिया था ईश्वर
और इस झूठे आत्मविश्वास में था कि
अस्पताल से ले जाऊंगा तुम्हें ठीक कराकर
नही पता था
कलयुग में नही होता कोई ईश्वर
बस एक सच्चाई होती है मौत
जो नही छोड़ती किसी पिता या पुत्र को
तुम्हारी मौत से पहले
मुझे मांगनी थी कुछ अश्रुपूरित क्षमाएं
मुझे पता था
तुम माफ़ कर दोगे तुरन्त
मगर तुम चालाकी से निकल गए चुपचाप
अब ये क्षमाएं मेरे कंधे पर सवार रहती है हमेशा
आंसू भी नही देते है इनका साथ
सच ये है तुम बिन बड़ा अकेला पड़ गया हूँ मै
इतना अकेला कि जितने अकेले हो
तुम अपनी दुनिया में
और
दो अकेले पिता पुत्र
कभी नही मिला करते
न इस लोक में
न उस लोक में।
(पिताजी के श्राद्ध पर)

Wednesday, September 21, 2016

भदेस

उसने पूछा
क्या तुम कम्युनिस्ट हो?
मैंने कहा तुम्हें कैसे लगा
विरोधाभासों में जीते हो अक्सर
बैचेन भी हो और कंफर्टेबल भी
तुम्हारे पास समस्या है समाधान नही
तर्क है मगर व्यावहारिक संवदेना नही
हित की बातें करते वक्त हो जाते हो
एक तरफा और अतिवादी
इस हिसाब से तो प्लान्ड अपोर्चुनिस्ट हुआ मैं
मैंने हंसते हुए कहा
नही इतने भी चालाक नही हो तुम
मगर मुझे डर है बन सकते हो एकदिन
विचार उत्तेजना के साथ बेईमानी भी सिखाता है
जैसे तर्क को प्रयोग किया जा सकता है मनमुताबिक
तो क्या विचारशून्य होना चाहिए मुझे?
मैंने प्रतिवाद करते हुए कहा
यद्यपि यहां 'चाहना' एक असुविधा है
मगर मैं चाहती हूँ तुम ईमानदार रहो
प्रेम में
विचार में
सम्वेदना में
और सबसे बढ़कर खुद के साथ।
***
एकदिन मेरी खिंचाई करते हुए उसने कहा
ये क्या भदेस-भदेस लगाए रखते हो
सीखने की अनिच्छा को क्यों छिपाते हो
अपने देहातीपन से
क्यों खुद को करते हो इस तरह प्रोजेक्ट जैसे
सब शहरी होते है मतलबी,औपचारिक और संवदेनहीन
एक तुम ही हो सबसे निर्मल और आत्मीय
मैं सकते में आ गया ये सुनकर
नही था उसकी बातों का मेरे पास कोई जवाब
तभी छींक आ गई मुझे
उसने अपने रुमाल देते हुए कहा
लो भदेस आदमी रुमाल तो रखता नही
नाक पौंछते हुए हंस पड़ा मैं
हाईजीन कांशियस भी नही होता भदेस मैंने कहा
हां ! मगर इमेज कांशियस बहुत होता है
जानता है संकोचों को ग्लैमराइज़्ड करना
इतना कहकर हंस पड़ी वो
फिर देर तक हंसता रहा मेरा भदेसपन
सीसीडी में बैठकर।
***
अचानक उसने पूछा
आदमी मरने के बाद कहाँ जाता होगा
मैंने कहा
ये तो मरकर ही बताया जा सकता है
तो ये बात पहले मै बताना चाहूँगी
तुम सुनना हमेशा की तरह चुपचाप
मैंने कहा
मौत किसी के हाथ में नही
इसलिए ये अनुबंध बेकार है
उसने कहा
जिंदगी तो है हाथ में
चलो यही बतातें है जी कर कहाँ जाता है आदमी
मैंने कहा हां बताओं !
हंसते हुए वो बोली
फिलहाल तो तुम्हारी पनाह में
बाद का पता नही
ठीक उस वक्त उसकी आँखों में देख पाया मैं
अंतिम अरण्य का एक स्पष्ट मानचित्र।

© डॉ.अजित

Tuesday, September 20, 2016

चालाकी

जल्दी भरोसा करना
मैंने माँ से सीखा
जल्दी गुस्सा करना
मुझे पिता ने सिखाया
चुप रहना मैंने बहन से सीखा
पहली प्रतिस्पर्धा मुझे भाई ने सिखाई

सपनें देखनें मैंने सीखे
धुर आवारा दोस्तों की सोहबत में
जिनकी बातों की दिलचस्पी
आज भी मरी नही मेरे भीतर

प्रेम करना और छला जाना
प्रेम का घोषित पाठ था
जो लिखा था किसी दसवें उपनिषद में
ये स्व अर्जन स्व निमंत्रण का परिणाम था
इसलिए
प्रेमिका को नही कर सकता रेखांकित
इस संयोग के लिए
माता,पिता बहन और भाई की तरह

इतनी कमजोरियों के साथ बड़ा हुआ मनुष्य
प्रेम बेहद जल्दी में करता है
भरोसा उसकी गोद से उतरने को रहता है आतुर
उसकी पीठ पर लिखे होते है
व्यवहारिक न होने का मंत्र

उसके पास हमेशा रहती शिकायतें
वो रचता है रोज़ अपना एकांत
दुखों का ग्लैमर बचाता है उसका विशिष्टताबोध

वो होता है मेरे जितना चतुर
जो बदल देता है संज्ञा को सर्वनाम में
जैसे मैने बात खुद से शुरू की
और छोड़ दी उस पर लाकर।

© डॉ.अजित

Sunday, September 18, 2016

सवाल जवाब

उसने पूछा
शर्ट इन क्यों नही करते
क्यों दिखतें हो हमेशा अस्त व्यस्त
मैंने कहा
जेन्टिलमैन नही हूँ ना
फॉर्मल भी नही हूँ
हसंते हुए उसने कहा
जो हो उसके बारे में बताओ
जो नही हो तुम
उसे तुमसे बेहतर जानती हूँ मैं।
***
हमेशा देखती हूँ तुम्हें
स्लीपर या सैंडिल में
जूते क्यों नही पहनते हो तुम
उसने विस्मय से उलाहना देते हुए कहा
मैंने कहा
बंधन नही पंसद मुझे
चप्पल याद दिलाती है मुझे आवारगी
फिर तो नँगे पैर रहा करो तुम
एम एफ हुसैन की परंपरा बचाने वाला भी
आखिर कोई फनकार तो होना चाहिए
ताना मारते हुए उसे कहा
मैंने कहा ठीक है देखता हूँ
मुझे सीरियस होता देख उसने कहा
कैसे भी रहो मुझे फर्क नही पड़ता
हां ! तुम्हें चोट न लगे इसकी फ़िक्र जरूर है
मैंने कहा
क्या ये सम्भव है कि मुझे चोट न लगे
मेरे पैर पर अपने पैर रखते हुए उसने
आश्वस्ति और आत्मविश्वास से दिया जवाब
बिलकुल !
कम से कम मेरे साथ चलते कभी न लगेगी।
***
उसने पूछा एकदिन
कॉफी क्यों नही पसन्द तुम्हें
मैंने कहा जैसे तुम्हें चाय नही पसन्द
सवाल का जवाब सवाल नही होता
तुनकते हुए उसने कहा
अच्छा ये बताओ चाय क्यों है पसन्द
मैंने कहा क्यों का जवाब नही होता मेरे पास
मैं क्यों का जवाब ही नही तलाशता कभी
जैसे तुम कभी ये पूछ बैठो
तुम क्यों हो पसन्द मुझे
चाय की तरह नही बता सकता उसकी वजह
हम्म ! ये जवाब सही है
चलो चाय पीते है किसी कॉफी शॉप पर
ये सुनकर हंस पड़ा हमारे बीच खड़ा रास्ता।
***
अचानक एकदिन
उसने किया एक दार्शनिक सवाल
स्थिर प्यार क्या सड़ जाता है
स्थिर जल की तरह?
मैंने कहा
क्या स्थिर प्यार सम्भव है?
वो बोली हाँ ! बिलकुल सम्भव है
मुझे तो नही लगता है
मैने असहमत होते कहा
प्यार रूपांतरित होता रहता है
स्थिर होना सम्भव नही उसके लिए
मैंने कहा क्या महज यह एक जिज्ञासा है
या तुम्हारी मान्यता समझूं?
हंसते हुए उसने कहा फ़िलहाल तो जिज्ञासा ही समझो
मान्यता ब्रेक अप के बाद बता सकूँगी।

© डॉ.अजित

Friday, September 16, 2016

अफ़सोस

उसे नही पता
वो कैसे खुश होता है
उसने उसे मुद्दत से खुश नही देखा है
उसे ये भी नही पता
कौन सी बात उसे खुश कर सकती है
उसने देखा है उसे
खुश होने वाली बात पर
बेवजह उखड़ते हुए

वो खुश नही दिखता
इसका मतलब यह भी नही
वो दुखी है
तो क्या वो दुखी दिखता है
उसने खुद से पूछा कई बार
कोई सही जवाब नही मिला

खुशी एक सापेक्ष भाव है
दुःख से ज्यादा अमूर्त
जिसे आकार लेने में लगता है
लम्बा वक्त

उसने पूछा उससे दुःख के बारे में
सुनाए उसे प्रेरणा के कथन
जगाई सोई हुई सम्भावना
अपने दुख का कोई सही जवाब नही था उसके पास
अपनी खुशी को परिभाषित कर सकता था वो
मगर उसने ऐसा किया नही कभी

वो जितना खुला नजर आता
उससे कई गुना बन्द भी था
अपनी बंद दुनिया में

वो दोनों खोलते थे बाहर की ओर दरवाजे
उनकी खिड़कियां अंदर की तरफ खुलती थी

रोशनी वहां जिद नही करती थी
अँधेरा वहां एकाधिकार नही चाहता था
ऐसी संदिग्ध जगह वो दोनों
केवल सोचते थे प्रेम के बारे में

प्रेम को सोचते हुए उन्होंने जाना
खुद को सम्पूर्णता में
उनका अधूरापन कभी सहायक नही हुआ
प्रेम के मामलें में

पता नही ये बात
खुश होने लायक थी
या अफ़सोस करने लायक।

© डॉ.अजित

Monday, September 12, 2016

षड्यंत्र

चाय पीते वक्त एकदिन
मैने पूछ लिया यूं ही अचानक से
तुम्हारे जीवन की
सबसे बड़ी दुविधा क्या है?
कप को टेबल और लब के मध्य थामकर
एक गहरी सांस भरते हुए कहा उसने
जो मुझे पसन्द करता है
वो बिलकुल भी नही करता तुम्हे पसन्द।
***
मुद्दत बाद मिलने पर
उसने पूछा मुझसे
किसी को सम्पूर्णता में चाहना क्या सम्भव है?
मैंने कहा शायद नही
हम चाहतें है किसी को
कुछ कुछ हिस्सों में
कुछ कुछ किस्सों में
इस पर मुस्कुराते हुए उसने कहा
अच्छा लगा मुझे
जब शायद कहा तुमनें।
***
मैंने चिढ़ते हुए कहा एकदिन
यार ! तुम सवाल जवाब बहुत करती हो
प्रश्नों के शोर में
दुबक जाती है हमारे अस्तित्व की
निश्छल अनुभूतियां
बेज़ा बहस में खत्म होती जाती है ऊर्जा
हसंते हुए वो बोली
हां बात तो सही है तुम्हारी
मगर इस ऊर्जा को बचाकर करोगे क्या
ढाई शब्द तो ढाई साल में बोल नही पाए
ये उस वक्त तंज था
मगर सच था
जो बन गया बाद में मेरे वजूद का
एक एक शाश्वस्त सच।
***
एकदिन उसने
फोन किया और कहा
गति और नियति में फर्क बताओं
उस दिन भीड़ में था कहीं
ठीक से सुन नही पाया उसकी आवाज़
जवाब की भूमिका बना ही रहा था कि
हेलो हेलो कहकर कट गया फोन
उसके बाद उसका फोन नही
एसएमएस आया तुरन्त
शुक्रिया ! मिल गया जवाब
ये उसकी त्वरा नही
समय का षड्यंत्र था
जिसने स्वतः प्रेषित किए मेरे वो जवाब
जो मैंने कभी दिए ही नही।

©डॉ.अजित



प्राश्रय

स्मृतियों के एक अक्ष पर
टांग रखा है तुम्हारी अंगड़ाई को
जब भी दिल उदास होता है
तुम्हें देख मुस्कुरा पड़ता हूँ

उम्मीद और भरोसे के सहारे आजकल
तुम्हारी बातों को ओढ़ता हूँ
बैचेनी और नींद की चादर की तरह एक साथ
लगता है कहीं तुम भूल तो नही गई मुझे
फिर देता हूँ नसीहत खुद को ही
मान लिया भूल भी गई हो मुझे
मगर कैसे भूल सकती है मेरे पवित्र स्पर्श को

चाँद आधी रात कराहता है जब
जाग जाता हूँ हड़बड़ाकर
नही सुन पाते मेरे कान
तुम्हारी शिकायतों को
बन्द कमरे के बाहर चांदनी
चिपका देती है मेरी कुर्की का नोटिस

इनदिनों सबसे ज्यादा याद आता है
तुम्हारा गुस्सा
बरस जाना तुम्हारा आवारा बदली की तरह
मेरा माथा अब गर्म रहता है
बरसात के इंतजार में भूल गया हूँ मै
हिंदी मास के नाम
सितंबर महीने की सुनता हूँ
मौसम की भविष्यवाणी
इस तरह तुम्हें याद करते हुआ जाता हूँ अंग्रेज

कृष्ण -शुक्ल पक्ष और नक्षत्र के फलादेश
बांचता हूँ रोज़
करता हूँ दिशाशूल का विचार
जिस जगह तुम रहती हो
इसी ग्रह पर होने के बावजूद
आसान नही है वहां की यात्रा
शुभ अशुभ से परे मैं घड़ी की सुईयों पर
झूला डाल ऊंघता रहता हूँ दिन में कई बार

भले ही इस देश का बाशिंदा हूँ
मगर तुम्हारा शहर करता है इनकार
मुझे एक नागरिक मानने से
उसे लगता हूँ मै संदिग्ध
और तुम्हारी बाह्य शान्ति के लिए एक खतरा
निर्वासन प्राश्रय के लिए
नही करता वो स्वीकार मेरी तमाम अर्जियां

फिर तुम्हारी यादें देती है दिलासा
कि तुम कर रही हो इंतजार मेरा बसन्त सा
साल कोई सा भी हो
मुझे जाना होगा उसी तरह से घुमड़कर
ताकि बह जाए हमारे मध्य की
तमाम गलतफहमियां
हंसी के पतनालों से

उम्मीद के भरोसे हूँ आजकल
तुम पता नही किसके भरोसे हो
मेरे तो नही हो कम से कम
चलो ! ये भी एक अच्छी ही बात है।

©डॉ.अजित

Saturday, September 10, 2016

डायरी

उसने दो डायरी मुझे गिफ्ट की
और कहा रख लो तुम्हारे काम आएंगी
मैंने रख ली
बिना किसी ख़ास उत्साह के
उनकी खूबसूरती पर
मैं इस कदर मुग्ध था कि
उन पर लिखकर कुछ भी
उनका सौंदर्य नही खत्म करना चाहता था
इसलिए यहां तक उन पर
अपना नाम भी नही लिखा मैंने
आज भी वो मेरे पास सुरक्षित रखी है
एक डायरी में प्लानर भी है
मैं उसे देखता हूँ तो उदास हो जाता हूँ
दूसरी डायरी में एक कविता लिखना चाहता हूँ
जो कभी प्रकाशित न हो
दोनों डायरियों को देख मुझे
अतीत और भविष्य याद आता है
वर्तमान के भरोसे उन्हे छूता हूँ
और लौट आता हूँ
अब मुझे महसूस होता है
तुमनें मुझे महज दो डायरी गिफ्ट नही की थी
बल्कि दो बातें सौंपी थी एक साथ
मुझे खेद है
मै जिम्मेदारी से उनको बचा न पाया
मन के दस्तावेजों को नष्ट करने का दोषी हूँ मै
कागज़ के भरोसे यदि माफी मिलती तो
सबसे पहले दोनों डायरी तुम्हें लौटाता
गिफ्ट लौटाने के अपशुकन की परवाह किए बगैर
ताकि
कोरी डायरी देख तुम समझ पाती
काल संधि पर खड़े एक शख्स के
मन का कोरापन।

©डॉ.अजित

Thursday, September 8, 2016

आब

कभी जिसको हमारे गुरुर पे गुरुर था
वो फ़क़त अधूरे लम्हों का सुरूर था

भीड़ में वो था बेहद तन्हा और मामूली
खुद की तन्हाई में वो बेहद मशहूर था

दिन को कहते थे रात और रात को दिन
वो दौर भी क्या दौर था अजब फितूर था

मैं खोया था अपनी ही बदनसीबियों में
गुफ़्तगु में उसे लगा मैं बेहद मगरूर था

बिछड़ कर उससे रास्तों का पता न मिला
वो शख्स नही हौसलें का एक दस्तूर था

खोकर उसे मैं अपनी आब खो बैठा
वो मस्तक का मेरे ऐसा कोहिनूर था

© डॉ.अजित

दुनिया

दरअसल
मैं ही गैर हाजिर होता जाता हूँ
दृश्य से ओझल सा
निकलता जाता हूँ दृष्टि की सीमा से बाहर

छोड़ता जाता हूँ
मील के पत्थर
जिन पर लिखी है
मंजिल की संदिग्ध दूरी

कहता हूँ मौन की भाषा में
सम्प्रेषण के सिद्धांतों को देता हुआ चुनौति
बात का अटक जाना नियति नही
बात का भटक जाना शायद प्रारब्ध है

जाता हूँ दक्षिण दिशा
छोड़ता हूँ लिपि का अधिकार
बनाता हूँ ध्वनि की नाव
और उतर जाता हूँ
समय के समन्दर में

प्रतिक्षा के कौतुहल मे
स्मृतियों के आंगन में
जम गई है थोड़ी काई
फिसलता हूँ उस पर
खिसियाता हूँ खुद पर
छिपाता हूँ छिली हुई कोहनी
हंसता हूँ तुम्हें देखकर

कुछ भी नही हुआ है
मेरी देह कहती है

लगाता हूँ एक छलांग मन के वितान से
न डूबता हूँ
न तैरता हूँ

बस देखता हूँ किनारे पर खड़ी दुनिया
जो थोड़ी टेढ़ी हो गई है देखते देखतें।

© डॉ.अजित 

Monday, September 5, 2016

जमाना

क्या फायदा अब बहस में जी जलाने का
चलों हम ही देते है मौका भूल जाने का

किस्सों कहानियों में अच्छा लगता है
दुश्वार बहुत है जहां दोस्ती निभाने का

वक्त के मुक़ाबिल जब से वजूद खड़ा था
नही छोड़ा एक भी मौका दिल दुखाने का

जिन रास्तों पर तुम कभी हमसफ़र थे मेरे
फिर न पूछा किसी ने उनसे पता ठिकाने का

हंसी आई तो नम हो गई आँखें अक्सर
दौर था वो बेसबब खुद से रूठ जाने का

© डॉ.अजित

आना जाना

आना होता है जाना होता है
याद में बीता जमाना होता है

नामुकिन सी कुछ बातों को भी
इश्क में बारहा निभाना होता है

लबों की कैद ज़बाँ समझती है
मगर जाहिर अफसाना होता है

थक कर सर को न मिले दामन जब
मयखाना तब एक ठिकाना होता है

संवर गए या बिखर गए थके मांदे घर गए
नींद न भी आए आखिर सो जाना होता है

लिहाज़ आँख की और रिश्तों की बची रहें
बेहद प्यारी चीज़ को भूल जाना होता है

हर जन्म की होती है कुछ अपनी मजबूरियां
अगले जन्म के भरोसे बस मर जाना होता है

न हो शिकवे कोई न हो रंज किसी से हजार
चुपचाप यूं भी बज़्म से चले जाना होता है

बीत जाती है बातें रीत जाती है रातें
रोने से ठीक पहले मुस्कुराना होता है

©डॉ.अजित

Sunday, September 4, 2016

आओं एक बार

आओं! बतर्ज़ मौसिकी से
तुम्हारी रूह को एक काला टीका लगा दूं
उलझी हुई सी मगर भटकी हुई नही जुल्फों को
एक आवारा पहाड़ी हवा से मिलवा दूं
थोड़ा नजदीक बैठो
साँसों की सुलह करा दूं
दफ़अतन बात बस इतनी सी है
ये जो तुम सही गलत की सोचो में गुम हो
हरफ़ और जज्बातों की पैरहन में गुम हो
आओ इनसे तुम्हारी रिहाई करा दूं

एक कली जो यूं मुरझाई
एक हंसी जो बेसबब न आई
एक खामोशी जो चुनती है तन्हाई
करवटों का कर्जा लौटा दूं
जिस्म की पैमाईश घटा दूं
आओ तुम्हें एक बार तुमसे मिलवा दूं

हरगिज़ ये गम न होगा
तुमसे कुछ भी तुम्हारा कम न होगा
वसल औ हिज्र की रातों का तजरबा नम न होगा
खुशबूओं का फिर ऐसा मौसम न होगा
गई रुतों को एक चिट्ठी लिखवा दूं
आओं तुम्हारे माथे पर आधा चाँद उगा दूं

नुमाईश नही ये जिक्र ए वफ़ा है
हयात खुद बने के खड़ी हया है
पलकों के रोशनदान में लगे जाले हटा दूं
रोशनी के लिबास में कुछ वादें दोहरा दूं
शिकवों से हर एक रंज मिटा दूं
आओं तुम्हारे कान पर एक ताबीज़ छुआ दूं

आओं फिर से एक नई बात सुना दूं
आओं हकीकत को थोड़ी देर के लिए उलझा दूं।

©डॉ.अजित

Sunday, August 21, 2016

बात

मुझसे नफरत के दिनों में
उसने बताया मुझे
मेरी खूबियों के बारे में
मुझसे मुहब्बत के दिनों में
वो निकालती रही
मुझमें मीन मेख
मुझसे दूरियों के दिनों में
रखती गई याद
मुझसे नजदीकियों के दिनों में
वो भूलती गई मुझे
और जब एक दिन
उसनें कहा मुझे डरपोक
कसम से मुझे बुरा नही लगा
क्योंकि ठीक उस दिन
मैं भूलने को था उसे
मुझे बुरा नही लगा
यह बात उसे बेहद बुरी लगी।

© डॉ.अजित

Thursday, August 18, 2016

बाज़ दफा

वक्त के सफहो पर कुछ वरक नए खुले थे
जब इत्तेफ़ाकन हम बावस्ता यूं ही मिले थे

वफाओं की बात कभी दरम्यां चली ही नही
गोया दो वजूद कुदरत की साजिश से आपस में घुले थे

ख्वाब ख्याल या अफसाना नही था उनका मिलना
पोशीदा एक मकाम के सिरहाने दोनों के अश्क धुले थे

वो एक हसीं सफर था जब तुम साथ थे
हिज्र के किस्से खामोशियों के दर पर मुफ्त में तुले थे

अचानक एक लम्हा,
तुम नाराज़ हुई तो फिर होती ही चली गई
मनाने की कोशिशें रोती ही चली गई

उम्मीद का बोसा जब तुम्हारे लब से रुखसत हुआ
बाद उसके बेरुखी के वजीफे मुफलिसी में मिलते चले गए

बाज़ दफा ज़िंदगी हंसकर बदले लेती है।

© डॉ.अजित

Tuesday, August 16, 2016

बेवजह

इतना अस्त व्यस्त तुम्हें हमेशा देखना चाहता हूँ कि
तुम भूल जाओ कि महीना तीस का है या इक्कतीस का

सोमवार के दिन देर से उठो हड़बड़ा कर और कहो कल सन्डे के चक्कर में लेट हो गई

तुम्हें देखना चाहता हूँ अनुमान के कौशल से
पैर के पंजे से बेड की नीचे से स्लीपर निकालते हुए
अपने अनुमान को परखती तुम्हारी मिचती खुलती आँखें सृष्टि की सबसे दिव्य घटना होती है

इतना अस्त व्यस्त तुम्हें हमेशा देखना चाहता हूँ कि
तिरछी लगी रहे बिंदी और तुम्हें इसका पता भी न हो

देखना चाहता हूँ तुम्हें रसोई में लाइटर खोजते हुए जबकि वो पड़ा हो ठीक तुम्हारे सामने

देखना चाहता हूँ खुद के पर्स की खराब चैन को आहिस्ता से बंद करते हुए
ये सावधानी तुम्हारे निर्जीव प्रेम का सबसे जीवंत उदाहरण है

देखना चाहता हूँ दूध की मलाई को फूंक से हटाते हुए अचानक आँख के सामने आई लट को कान की अलगनी पर टांगते हुए
तुम्हारा कान भटके हुए मुसाफिर का अरण्य हो जैसे

इतना अस्त व्यस्त तुम्हें हमेशा देखना चाहता हूँ कि
तुम भूल जाओ मुझ से मिलकर रोज़मर्रा की जरूरी बातें
और पूछो बेहद मामूली से मासूम सवाल

मसलन

मैं जिंदगी से क्या चाहता हूँ?
बुरा नही लगता उपलब्धिशून्य जीवन?

मेरे हंसने पर देखना चाहता हूँ तुम्हारी खीझ

इतना अस्त व्यस्त तुम्हें हमेशा देखना चाहता हूँ कि
तुम भूल जाओ मैचिंग के रंग और जीने लगो अपने ही फ़्यूजन में

तुम्हें अस्त व्यस्त देखना ठीक वैसा है
जैसे धरती को बरसों बरस पीछे जाकर देखना
जब बिना नियोजन के भी
बची हुई थी खूबसूरती

तुम्हें यूं बेतरतीब देखना
उस दुनिया को देखना है
जहां अभी भी बची हुई है
लापरवाही बेहद ख़ूबसूरत अंदाज़ में

जिसके भरोसे जीया जा सकता है इस मतलबी दुनिया में
मुद्दत तक बेवजह पूरी जिंदादिली के साथ।

©डॉ.अजित



Sunday, August 14, 2016

नाराज़गी

उसका एसएमएस मिला
एकदिन
व्हाट्स एप्प और इनबॉक्स के दौर में
एसएमएस
कम बड़ा आश्चर्य नही था
एक लाइन में लिखा था उसनें
नाराज़ हूँ तुमसे
मैंने कोई जवाब नही दिया
नाराज़गी की वजह भी नही पूछी
दिन में एक बार पढ़ लेता था
उस एसएमएस को
फिर इंतजार करता था
एक दुसरे एसएमएस का
शब्दों को आगे पीछे करके
पढ़ता रहता कई बार
नाराज़गी का एसएमएस
पहला नही था
मगर ये आख़िरी होगा
इसकी उम्मीद नही थी
तब से मैं किसी से नाराज़ नही हुआ
मुद्दत से सबसे खुश हूँ मै
किसी से कोई शिकायत भी नही
ना ही कभी होगी किसी से
उसकी नाराज़गी के बाद
जान पाया यह बात
जब कोई नाराज़ होता है
वो खुद से भी खुश नही होता
हम बस उसे खुश मान लेते है
अपने हिसाब से।
©डॉ.अजित

Wednesday, August 10, 2016

पंच प्यारा

वो पांच स्त्रियों का
अकेला प्रिय पुरुष था
पांचों उसे कर रही थी
एक साथ प्रेम
बिना किसी पारस्परिक बैर भाव के

वो एक कुशल सारथी के जैसा था
सबको छोड़कर आता था
उनके सपनों की मंजिल तक

एकाधिकार वहाँ अप्रासंगिक था
उस पर पांचों का सामूहिक अधिकार था
मगर नही टकराता था
किसी का अधिकार दुसरे के अधिकार से

वो पंच प्यारा था
जिसे उम्मीद ने गढ़ा था
बिना शर्त के प्रेम के लिए

उसे देखा जा सकता था प्रायः
दिन और रात के संधिकाल पर
सूरज और चांद के खत बदलते हुए
वो अंगड़ाई की एक मुस्कान के जैसा था
जो तोड़ता था आसक्ति की तन्द्रा
उसको लेकर ठीक वैसी थी अमूर्तता
जैसी होती है विचारों की जम्हाई के वक्त

उसे महसूस किया जा सकता था
झरने के वेग की तरह
वो नदी की गहराई में अकेला पड़ा पत्थर था
जिसे समंदर तलक जाने की कोई चाह न थी

पांच तारों की युक्ति से बना वो पंच ऋषि था
जिससे रश्क होता था सप्त ऋषि तारामंडल को
पूर्वोत्तर के लोक नृत्य की तरह
वो रहता था उनका पांचो के मध्य
कभी धरती तो कभी आसमान बनकर

भले ही उन पांचो स्त्रियों की आपस में घनिष्ठता न थी
मगर वो अकेला था उन पांचो का घनिष्ठ

उसका होना सह अस्तित्व के दर्शन का मानवीयकरण होना था

किसी को नही थी आपस में कोई ईर्ष्या
उसको लेकर थी सबके मन में अपने अपने किस्म की दिव्य आश्वस्तियां

वो अकेला मुसाफिर था
जिसकी जेब में थे पांच अलग अलग पते
मगर न उसे कहीं पहुँचना था
न कहीं अटकना था

वो भटक रहा था अकेला इस ग्रह पर
पांच आत्मीय शुभकामनाओं के भरोसे।

©डॉ. अजित

वो

उससे कोई आग्रह अपेक्षा नही थी
मगर उसे उदास देख
कहीं खो जाता था
एक वक्त का भोजन
एक वक्त की चाय
और बेवजह की मुस्कान

और उसकी खिलखिलाती हंसी की व्याख्या
की जा सकती थी अपने मन मुताबिक़
एक को लगता वो खुश है
एक को लगता वो खुश दिख रहा है
एक को लगता वो दुःख छिपा रहा है
एक को लगता वो हंस रहा है बेमन से
एक को लगती उसकी हंसी दुर्लभतम्

उसकी बातों में छल नही था
उसकी आँखों में कल नही था

वो जी रहा था वर्तमान बेहद मुक्त अंदाज़ में
उसके चलतें वो भूल गई थी
अपना भूत और भविष्य
वो बह रही थी वर्तमान की दिशा में
दक्खिनी हवा बनकर

उन्होंने मिलकर रच ली थी अपनी एक समानांतर दुनिया
जहां हवा आकाश धरती नदी जंगल सब उनके अपने थे
वो घूम रहे थे बेफिक्र हर जगह


उसकी दुनिया में कोई प्रतीक्षारत में नही था
इसलिए
वो टहल सकता था निर्द्वन्द
मगर कब तक ये कोई नही जानता था

मगर वो जब तक
तब तक था एक बहुमूल्य चीज़ की तरह
जिसे खोने का भय सबको एक साथ था
जब वो खो जाएगा
नही चलेगा पता कि किसकी प्रिय वस्तु खोई है

क्योंकि
उसके बाद नही हो सकेगी
कुछ लोगो की आपस में मुलाक़ात
वो अकेला पता था
जो मिलाता था अनजान लोगो को एक साथ
बिना किसी दोस्ती के।

©डॉ. अजित

Wednesday, August 3, 2016

पिता के बाद

पिता की मृत्यु पर
जब खुल कर नही रोया मैं
और एकांत में दहाड़ कर कहा मौत से
अभी देर से आना था तुम्हें
उस वक्त मिला
पिता की आत्मा को मोक्ष।
***
पिता की अलग दुनिया थी
मेरी अलग
दोनों दुनिया में न कोई साम्य था
न कोई प्रतिस्पर्धा
जब पिता नही रहे
दोनों दुनिया के बोझ तले दब गया मैं
मेरी आवाज़ कहीं नही पहुँचती थी
मुझ तक भी नही।
***
कोई भी गलत काम करने से पहले
ईश्वर का मुझे लगता था बहुत भय
पिता की मौत के बाद
ईश्वर का भय हुआ समाप्त
और पिता का भय बढ़ गया
इस तरह ईश्वर अनुपस्थित हुआ मेरे जीवन से
पिता के जाने के बाद।
***
पिता के मर जाने पर
मनुष्य के अंदर का पिता डर जाता है
वो जीना चाहता है देर तक
अपने बच्चों के लिए
भले जीते जी वो कुछ न कर पाए
मगर
मर कर नही बढ़ाना चाहता
अपने बच्चों की मुश्किलें।

©डॉ.अजित

Tuesday, August 2, 2016

बातें

आज तुम्हारी रेसिपी से चटनी बनाई मैंने
चटनी की कोई मौलिक रेसिपी नही होती
इसलिए मेरा कोई दावा नही उस पर
चटनी एक फ़्यूजन है जिसे स्वादुनसार बनाते है सब

आज मैंने तुम्हारी बताई किताब पढ़ी
वो दरअसल मेरी बताई हुई नही थी
मुझे किसी ने बताई थी मैंने पढ़ी अच्छी लगी
तो तुम्हें बता दी
वो मेरी खोज नही तो उसे मेरी कैसे कहूँ?

आज तुम्हारे पसन्द के कलर की शर्ट पहनी मैनें
हां देखा ! मगर अब वो मेरे पसन्द का रंग नही रहा
अरे ! पसंदीदा रंग कैसे बदल सकता है
जब स्थाई प्यार बदल सकता है रंग क्यों नही बदल सकता?
अब इस पर कोई बहस नही !

आज मैंने तुम्हें याद करते हुए नदी को देखता रहा
इसे प्लीज़ मेरी याद से मत जोड़ो
तुम अंदर से खाली होंगे तभी एक जगह रुक गए
याद में आँखें बंद हो जाती है
इसलिए मृत्यु अंतिम और स्थाई याद है

आज कैलेंडर देखा तो पाया
मेरा तुम्हारा बर्थडे एक महीने में आता है
ये कैसा विचित्र संयोग है
ये ठीक वैसा ही संयोग है जैसे घनी बारिश के बाद उदासी आती है

आज दिल किया बहुत दिन हो गए साथ चाय पिए
मैंने चाय पीनी छोड़ दी है अब इसलिए दिल कुछ और पीने को याद करें तभी दिल की बात सुनने लायक होगी

अच्छा तुम्हारा क्या प्लान है
मेरा कोई प्लान नही बस यही प्लान है

आज तुम्हारे जैसी खुशबू मेरे करीब से गुजरी
वो परफ्यूम की खुशबू होगी,
मेरी खुशबू मेरे वजूद में कैद रहती है

आज ऐसा क्यों लग रहा है तुम नाराज़ हो

इसलिए लग रहा है तुम आज में बात कर रहे हो
और मैं कल में जवाब दे रही हूँ।

©डॉ.अजित

Saturday, July 30, 2016

चाहतें

आओ ! इन नरगिसी आँखों के सदके लूँ
पुखराज़ को तुम्हारी वेणी में गूंथ दूं
ओस के कतरो से पलकों पर कश्ती उतार दूं
शुष्क लबों पर झील का धीरज सजा दूं

मुस्कान और हंसी के बीच की हरकतों पर
कुछ छोटी छोटी मुकरिया लिख दूं
धड़कनों के बीच एक खूबसूरत ग़ज़ल रफू कर दूं
साँसों के पैबंद लगा कर रूह का बोसा ले लूँ

आओ ! तुम्हारी अंगड़ाईयो की स्याही से समंदर को खत लिखूँ
गुस्ताखियों के कागज़ का जहाज़ बनाकर उड़ा दूं
मुहब्ब्तों का लगान मद्धम चराग की रोशनी में पढूं
शिकवों पर नादानी की मुहर लगा बेपते रवाना कर दूं

आओ ! किसी दिन
तुम्हारे कान में फूंक दूं कुछ तिलिस्मी मंत्र
सीखा दूं थोड़ी बदमुआशी थोड़ी अय्यारी
जिस्म के वजीफे मांग लूँ उधार
ताकि उतर सकें दिल की पर ज़मी एक लिज़लिजी काई

आओ ! मगर इस तरह आना
जैसे समंदर के किनारे आते है सीप
जैसे नदियां भूल जाती है अपने उद्गम गीत
जैसे हवा अचानक बन जाती है दक्खिनी
जैसे लोहा टूटकर भी चाहता है धौंकनी

आओ ! किसी दिन इस तरह भी
मेरी तरह नही केवल अपनी तरह
मुन्तजिर हूँ मुफकिर हूँ बेफिक्र हूँ
तुम जरूर आओगी इस तरह भी
एक दिन।

© डॉ.अजित

Friday, July 8, 2016

असफलता

मुद्दत बाद मिलनें पर उसने कहा
बड़े अश्लील हो गए हो तुम
और थोड़े घटिया भी
उसने जवाब दिया
कोई नई बात कहो
इतने दिन बाद मिली हो
और वही कह रही हो
जो दुनिया कहती है

अच्छा ! दुनिया ऐसा कहती है तुम्हारे बारे में?
उसने चौंकते हुए कहा

हां !

फिर तुम ये नही हो सकते
तुम तो दुनिया को गलत साबित करने के लिए पैदा हुए थे
मैं गलत थी फिर इस हिसाब से

अच्छा क्या हो गए हो फिर तुम?

मेरे ख्याल से थोड़ा तल्खज़बाँ
थोड़ा बदतमीज़
उसने आत्म समर्पण की मुद्रा में जवाब दिया

हम्म !
आदत अच्छी नही मगर इतनी भी बुरी नही कि
तुम्हारी शक्ल देखना पसन्द न करें कोई

क्या फर्क पड़ता है इन सब बातों से! वो अब दार्शनिक मुद्रा में था

फर्क बस इतना पड़ता
अब हमें हंसी नही आती इन बातों पर
ये क्या कोई कम बड़ा फर्क है तुम्हारे हिसाब से,उसने चिढ़ते हुए कहा

हंसी हमेशा किसी बात पर ही आती है इसलिए हंसी मजबूर चीज़ है थोड़ी
उदास आदमी बेसबब भी हो सकता है

ओह हो ! तो ये बात है
शायर हो गए हो तुम उसने छेड़ते हुए कहा

शायर हुआ नही जाता है आदमी हो जाता है

मतलब इश्क विश्क टाइप उसने हंसते हुए पूछा

छोड़ो ये बातें अच्छा ये बताओं
दिलचस्पी का मरना किस तरह देखती हो तुम
उसने कहा ठीक वैसे जैसे तुम्हें देखकर खुद को देखती हूँ

ये ठीक बात कही तुमनें तमाम बातों के बीच

अब एक मेरे भी एक सवाल का जवाब दो
प्यार बदलता क्यूँ है
प्यार बदलता नही है स्थिर होकर सूख जाता है

ऊँहूँ ! बात जमी नही कुछ
इतने कमजोर तर्क कब से करने लगे?

चलो ! अपनी वही प्रेम कविता सुनाओं
जिसे पढ़कर प्यार दुनिया की सबसे पवित्र चीज़ लगता था

उसने कहा,याद नही अब तो

तुम में सच अब बेहद घटिया हो गए हो
अश्लील भी
इसलिए नही कि दुनिया कहती है
इसलिए अब तुम अपनी प्रिय कविता भूल गए हो

हम्म !

फिर कोई सवाल जवाब नही हुआ दोनों मध्य
दोनों एक दूसरे को देखते रहें थोड़ी देर
और विदा हो गए
अपनी अपनी असफलता पलकों पर लेकर।

©डॉ.अजित

Tuesday, July 5, 2016

इयत्ता

अपनी इयत्ता में सिमटा
हर शख्स
थोडा सा अजीब हो ही जाता है

अनुमानों से छलनी उसका सीना
प्रेम भी करता है बेहद झीना

बात केवल एक अवस्था की नही है
एकदिन आप भूल जातें है
अपनी चड्ढी बनियान का नम्बर
फिर अनफिट चीज़े पहनना
एक किस्म की मजबूरी भी होती है
मगर नही रहती किसी से कोई शिकायत

शिकायत का न होना एक किस्म की संधि है
जिसका उल्लेख किसी युद्ध के इतिहास में नही मिलेगा

दुनिया की कृत्रिमता छिप भी जाए
खुद पर सवाल खड़े करने वाले नही छिप पाते
किसी सुदूरवर्ती द्वीप पर भी
वो दराज़ में मुंह देकर खंगालते है पुराने कागज़
ताकि मिल सके उनकी रिहाई का खत

अजीब लोगो की बीच रहते है कितने अजीब लोग

इसी रिहाइश पर
कुछ लोग नक्शा लेकर खड़े होते है
वो चाहतें दुनिया से करना
इन अजीब लोगो को बेदखल
ताकि दुनिया में बची रहे एकरूपता

अपनी इयत्ता में सिमटे हुए शख्स
इतने मामूली होते है कि
आप उन्हें हंसते या रोते हुए नही पहचान सकते

उनकी हूक में विलुप्त हुई जातियों के ऋण दबे होते है
उनकी हंसी में क्लोन के सन्देह शामिल होते है
उनकी मुस्कान गैर बौद्धिक होती है
नही कह सकते आप उसे मासूम

सिमटता हुआ आदमी
दिखता है बेहद अरुचिपूर्ण
सबसे आसान होता है उसे खारिज़ करना
दरअसल,उसे खारिज़ करना ठीक वैसा है
जैसे धरती पर बैठकर कहना
यही है धरती का एकमात्र मध्यबिंदू
फिर आप व्यवस्थित करते रहे
कर्क रेखा अपने हिसाब से

अपनी इयत्ता में सिमटा हर शख्स खतरा है
सभ्य समाज के लिए
क्योंकि वो नही जानता विशुद्ध साइंटिफिक केलकुलेशन
वो होता लगभग अनपढ़
रिश्तों को उपयोग करने के कौशल में
वो जोड़ लेता दशमलव के बाद का भी शून्य
अपनत्व के भरम में

उसे खदेड़ना चाहिए देखते ही
डराना चाहिए पाषाणकालीन आवाज़ों से
अलबत्ता तो वो डरेगा नही अगर एक बार डर गया
फिर वो जोर जोर से गाएगा गर्व से भरे गीत

अपनी इयत्ता में सिमटे शख्स का डर
होता है बेहद विचित्र
वो डर जाता है एक आत्मीय हंसी से
एक निजी सवाल से
और जब वो डरता है
तब दिखता है ठीक उनके जैसा
जिनकी खुद से बिलकुल मुलाकातें नही

अपनी इयत्ता में सिमटे शख्स को
बस हम इसी तरह देखना चाहतें है
फिर हो जातें है हमे थोड़े बेफिक्र
सुला देते है अपने बच्चों को दिन में
और रात में लिखतें है न होने क्रांतियों के पाठ

जिन पढ़कर एक जवान पीढ़ी हो जाती है तुरन्त बूढ़ी।

© डॉ.अजित

एकदिन

बहुत दिन बाद
मिलनें पर पूछा उससें
क्या तुम्हें भी आवाज़ मोटी लगती है मेरी
याददाश्त पर जोर देकर सोचते हुए
उसनें कहा हां थोड़ी भारी है
मैंने कहा एक ही बात है
इस पर बिगड़ते हुए वो बोली
एक ही बात कैसे हुई भला
आवाज़ हमेशा भारी या हलकी होती है
मोटी या बारीक नही
मोटा आदमी हो सकता है
बारीक नज़र हो सकती है
तुम्हारी आवाज़ भारी है
मैंने कहा फिर तो तुम्हारे कान भी थकते होंगे
उसनें कहा नही
मेरा दिल थकता है कभी कभी
मैंने कहा कब थकता है दिल
लम्बी सांस लेकर उसने कहा
जब तुम्हारी आवाज़ भारी से मोटी हो जाती है
तब तुम्हारी नजर बेहद बारीक होती है
ये सुनकर मैं हंस पड़ा
उसने कहा तुम्हारी हंसी भारहीन है
मैंने कहा कब तौली तुमनें
उसने कहा
जब तुम उदास थे।

©डॉ.अजित

Thursday, June 30, 2016

गजल

जब खुद के अंदर बाहर रहना
तब क्यों किसी को बुरा कहना

सारे ऐब ही जब हमारे अंदर है
मत आदतन हमे अब खुदा कहना

समन्दर से गुफ़्तगु तुम करते हो
नदी से पूछते क्या होता है बहना

दर ब दर किस्मत में लिखा था
हम क्या जानें एक मकाँ में रहना

रंज ओ' मलाल जेवर थे जिंदगी के
वक्त बेवक्त जिन्हें था हमनें पहना

निकल जाऊँगा चुपचाप अकेला मैं
बस कुछ दिन और इसी तरह सहना

© डॉ.अजित

Sunday, June 26, 2016

औसत मनुष्य

देह की थकन देना चाहती है
मन को विश्राम
वो नींद को करती है स्वीकार
बिना किसी परिभाषा के

मन की थकन चाहती है मांगना
देह से कवच कुण्डल
वो लौटा देती है नींद को बिना पता बताए

दोनों थकानों में थकता है
एक मनुष्य
जिसे बाद में कहा जाता है
एक औसत मनुष्य।

©डॉ.अजित

जीवन

जब देखा
शोक से विलाप करती स्त्रियों को
उसने त्याग दिया
आत्महत्या का अपना बेहद पुराना विचार

किसी मदहोश आँख को देखते हुए
शुष्क लबों की बेरुखी को झेलते हुए
भले ही मरा जा सकता हो

मगर
शोकातुर स्त्रियों को देख लगा
किसी भी तरह से मरना ठीक नही
अपनी शान्ति की कीमत
इतनी बड़ी नही हो सकती
कम से कम

इसलिए
उसने कहा स्त्री और जीवन
एक स्वर में
और जीता चला गया
तमाम जीने की असुविधाओं के बावजूद।

©डॉ.अजित

Thursday, June 23, 2016

निजता

उसनें एकदिन पूछा
तुम्हें कभी निजता के संपादन की जरूरत महसूस हुई?
मैंने कहा हां एकाध बार

उसने पूछा कब?

मैंने कहा जब कोई ख्याल
सार्वजनिक तौर पर कयासों की देहरी पर
बेवजह टंग गया
और बहस मेरी रूचि न बची थी

उसे बचाने के लिए निजता को
सम्पादित करना पड़ा है मुझे

अच्छा ! उसने दिलचस्पी से मेरी तरफ देखा
कैसे किया तुमनें निजता का सम्पादन ?

मैंने कहा फेसबुक की तरह
कुछ विकल्प थे मेरे दिल ओ' दिमाग में

मैं कर सकता था उस ख्याल को सीमित
दुनिया से हटाकर दोस्तों तक
दोस्तों से हटाकर खुद तक
या खुद से हटाकर किसी एक दोस्त तक

एक बार सोचा क्यों न परमानेन्ट डिलीट ही कर दूं
फिर लगा ये तो उस ख्याल के साथ नाइंसाफी होगी
 
मुझे निजता और ख्याल दोनों बचाने थे
इसलिए उसको कर दिया सीमित
मेरे और तुम्हारे बीच

जानता हूँ तुम्हें इसकी खबर नही है
मगर मेरी निजता का एक बड़ा हिस्सा
तुम्हारे साथ यूं ही बेखबर रहता है

तुम्हारे साथ शेयर कर सकता हूँ
मैं बेहद मामूली बातें भी

मसलन
कैसे मुझे नया जूता काट रहा था
जींस पर बेल्ट बांधते समय मुझसे एक हुक छूट गया था
या मुझे बहुत देर से पता चला कि बनियान को कैसे समझा जाता है उल्टा या सीधा
शर्ट इन करने के बाद पहली ही सांस के साथ बेतरतीब ढंग से शर्ट क्यों आती है बाहर
पहली दफा जब एटीएम से पैसे न निकलें और मैसेज आ गया था फोन पर अकांउट डेबिट होने का
कितना घबरा गया था मैं
ये भी बहुत दिन बाद जान पाया कि जिस दोस्त के घर बच्चें होते है
नही जाना होता उनके घर खाली हाथ
प्यार से ज्यादा जरूरी होती है अंकल चिप्स,चॉकलेट और फ्रूटी

ये बातें सुनकर वो खिलखिला कर हंस पड़ी
पहली बार यह महसूस हुआ
ये निर्बाध हंसी
हमारी निजताओं की दोस्ती की हंसी थी
जिसे फिलवक्त किसी सम्पादन की जरूरत नही थी।

©डॉ.अजित

मुद्दत से

मुद्दत से मेरे पास कोई ऐसी खबर नही
जिसे सुन मेरे दोस्त खुशी से झूम उठे और
बिना मेरी सहमति के कर ले पार्टी प्लान
और मुझे लगभग चिढ़ाते हुए कहे
बड़े आदमी हो गए हो बड़े अब हमारे लिए वक्त कहाँ !

मेरे पास जो खाली वक्त है
ये उसका सबसे क्रूर पक्ष है

मुद्दत से मेरा कोई रिश्तेंदार
मुझसे मिलनें को लेकर उत्साहित नही है
इंतजार का औपचारिक उलाहना सुनें
मुझे अरसा हो गया
एमए पीएचडी होने के बावजूद कोई नही रखता अपेक्षा कि
उनके बच्चों के करियर पर मैं कोई सलाह दूं
बल्कि यदि बच्चें मेरे इर्द गिर्द इकट्ठा हो जाए
उन्हें फ़िक्र होने लगती है
कहीं वे मुझे अपना आदर्श न मान लें
और ढीठता से सीख न लें
असफलताओं का ग्लैमराईजेशन

मुद्दत से मेरी बातों में नूतनता का नितांत अभाव है
कुछ पढ़ी पढ़ाई सुनी सुनाई बातों के जरिए
बचाता रहा हूँ अपने कथित ज्ञान की आभा
पिछले दिनों एक बच्चें ने सत्रह का पहाड़ा पूछ लिया मुझसे
जब मैंने कहा मुझे नही आता
उसनें इस तरह देखा मुझे
जैसे मैं लगभग अनपढ़ हूँ

कुछ पढ़े लिखे दोस्तों की बातचीत से चुपचाप चुराता रहा हूँ विचार तर्क और मान्यताएं
कविताओं से सीखता रहा हूँ प्रेम को इस तरह पेश करना
जैसे अर्थ से बड़ी दरिद्रता प्रेम की दरिद्रता है
जिनका मैं कर्जमंद हूँ
जब वो पढ़तें है मेरी प्रेम कविताएँ
उनकी खीझ चरम पर होती है
इतने आत्मविश्वास से बोलता हूँ झूठ कि
सत्य को संदेह होने लगता है खुद पर
यह मेरा अधिकतम वाचिक कौशल है

मुद्दत से मैंने खुद से बातचीत नही है
अपने आसपास जमा किया है मैंने इतना शोरगुल कि
न सुन पाऊं दिल या दिमाग की एक भी बात
इसलिए, मैं जो बोलता हूँ वो एक सीमा तक जरूर मौलिक है

मुद्दत से मेरे कुछ शुभचिंतक प्रतीक्षारत है
उन्हें लगता है मेरे अंदर अपार सम्भावनाएं है
बस मैं मन का थोड़ा अस्थिर हूँ
हनुमान की तरह भूल गया हूँ अपना ही बल
एक दिन करूँगा मैं कुछ बड़ा

मैं उनकी मासूम उम्मीदों पर ठहाका मार हंसना चाहता हूँ
मगर हंसता नही
क्योंकि ये अपेक्षाओं का नही मनुष्यता का निरादर होगा
नही कर सकेगा फिर कोई किसी पर भरोसा
नही देख सकेगा कोई साँझे स्वप्न

मुद्दत से यही नैतिकता मेरे जीवन में बचाए हुए है
थोड़ी बहुत औपचारिक प्रतिबद्धता

मुद्दत से 'गुड फॉर नथिंग' जैसे सांसारिक उत्पाद का
ब्रांड एम्बेसडर बना हुआ हूँ मैं
अपनी तमाम थकान के वावजूद
किसी को नही है सन्देह मेरी प्रचार क्षमता पर
मेरी उत्पादकता से षड्यंत्र की बू आती है
बहुधा लोगो को लगता है कि
बहुत से मुरीद बनाए मैं बड़े वली वाले मजे में हूँ

जबकि सच तो यह है
मुद्दत से मैं कहाँ हूँ मुझे खुद नही पता
मैं गुमशदा हूँ या गमज़दा ये बता पाना भी मुश्किल है

मुद्दत से मैं बस जहाँ हूँ वहीं नही हूँ।

©डॉ.अजित

उम्मीद

कल तुम्हें फोन किया
फोन स्विच ऑफ़ बता रहा था

मैंने दोबारा मिलाया तो
आउट ऑफ़ रेंज बताया गया

जो मध्यस्थ मुझे तुम्हारे फोन के बारें में बता रहा था
उसकी आवाज़ इतनी शुष्क थी कि
तीसरी दफा फोन करने की हिम्मत न हुई

हारकर एक एसएमएस किया
मगर उसकी डिलवरी रिपोर्ट नही आई

कल तुम कहां थी
ऐसा बेतुका सवाल नही पुछूँगा
मगर कल जिस जगह तुम्हारा फोन था
वो दुनिया का सबसे भयभीत करने वाला कोना था

हो सकता है ये चार्जिंग पर टंगा हो
या फिर फ्रिज के ऊपर हो
ये तकिए के नीचे भी हो सकता है

खैर कहीं भी हो मुझे क्या
तुम्हारी चीज़ है
मुझे पुलिसिया ढंग से
पूछताछ करने का कोई हक भी नही
मगर कल जब तुमसे बात न हो पाई
और मध्यस्थ पुरुष ने मुझे
दो अलग अलग बात बताई तो

यकीं करो दोस्त !
मैंने खुद से ढ़ेर सारी बातें की
उन बातों में जगह जगह तुम थी

दरअसल, ऐसा करके मैं खुद को भरोसा दिला रहा था कि

फोन ही तो नही मिल रहा है मात्र
तुम एक दिन जरूर मिलोगी
उसदिन तो बिलकुल मिलोगी
जिस दिन तुम्हारी सबसे सख्त जरूरत होगी मुझे

फिलहाल उम्मीद तुम्हारे फोन के विकल्प के रूप में
अपनी मेमोरी में सेव्ड कर ली है
झूठ नही कहूँगा थोड़ा सा डर भी है कि
कहीं तुम्हारे फोन की तरह ये भी किसी दिन
स्विच ऑफ़ या आउट ऑफ़ रेंज न मिले।

©डॉ.अजित

Tuesday, June 21, 2016

ग्रामर

उसकी एक बात ने
प्रेम में हाइफ़न लगा दिया था

मेरी कोई दलील
इंवर्टेड़ कोमा में नही थी

वहां सवाल बिना क्वेश्चयन मार्क के थे
वहां जवाब में कोई कोमा भी नही था

न जाने क्यों एक दिलचस्प बातचीत में उसनें
एक सेमीकॉलम बनाया और आगे लिख दिया
फ्रीडम फ्रॉम द नॉन

मुझे लगा ये किसी फिलासफी की बात है
मगर दरअसल वो फुल स्टॉप की एक भूमिका थी

दोस्ती के ग्रामर में मेरी पंचुएशन खराब थी
इसलिए नही कह पाया कभी ये बात
महज एक शुद्ध वाक्य में
प्लीज़ बी विद मी !
इफ पॉसिबल।

©डॉ. अजित

हसरत

बहुत दिन बाद उसने अपना हाल लिखा
कही पे जलाल तो कहीं पे मलाल लिखा

तासीर ही उस ताल्लुक की कुछ ऐसी थी
अहसास ए हकीकत को भी ख्याल लिखा

जिन दिनों परेशां था आरजू ओ' ज़ुस्तज़ु में
उन दिनों को ही उसने महज कमाल लिखा

मुहब्बतों के खत लिखतें है जमाने के लोग
मगर उसनें अपनी नफरतों का हाल लिखा

माँगा नही जवाब हमनें अपनी हसरतों का
फिर भी सवाल के जवाब में सवाल लिखा

मिलना बिछड़ना गोया तकदीर का खेल था
साथ होना फिर भी हमारा बेमिसाल लिखा

©डॉ.अजित


Monday, June 20, 2016

चिट्ठी

तुम्हारा खत मिलतें ही
मैंने सबसे पहले चाहा एकांत

खत की खुशबू के लिए
मैंने चाहा खुला आकाश

तुम्हारी लिखावट से जब
मिलाना चाहा हाथ
वहां देखा पसरा हुआ संकोच

आखिर में जहां तुम्हारा नाम लिखा था
वहां लगा जैसे तुम बैठी हो
देख रही मुझे यूं अस्त व्यस्त
मुस्कुरा रही हो मंद-मंद

ये महज तुम्हारी एक चिट्ठी नही है
ये एक चिकोटी है
जो काटी है तुमनें मेरी गाल पर
पूछनें के लिए
कैसे हो मेरे बिना इनदिनों

मैं अक्षर गिन रहा हूँ
और तुम्हारी हथेली के स्पर्शों की
छायाप्रति निकाल कर रख रहा हूँ बायीं जेब में
कागज़ की तह से पूछ रहा हूँ तुम्हारा उत्साह
लिफाफे को रख दिया एक उपन्यास के बीच में

पहली फुरसत में लिखूंगा
दिन और रात का फर्क
दूरियों का भूगोल
उधेड़बुन का मनोविज्ञान
परिस्थितियों का षड्यंत्र
विलम्बित होती गई तिथियों का विवरण
कुछ शिद्दत के पुर्जे
कुछ बेबसी के कर्जे

अचानक एकदिन मिलेगी
तुम्हें मेरी चिट्ठी
जिसमें होगा
ज्यादा हाल ए दिल
थोड़ा हाल ए जहां
विश्वास करना मेरा
लिखता अक्सर हूँ
बस पोस्ट नही करता

क्यों नही करता
तुमसे बेहतर मैं भी नही जानता।

©डॉ.अजित

Sunday, June 19, 2016

वजह

कारण चाहे जो भी रहे हो
जो बच्चें लौकिक रूप से
सफल न हो पाए
नही दे पाए अपने पिता को
गर्व की एक भी वजह
बल्कि सुननी पड़ी हो
नसीहतें जिनके कारण
होना पड़ा हो शर्मिंदा पिता को गाहे बगाहे

माँ जिनके कारण
कोसती रही हो अपनी ही कोख को
कहती रही वो ऐसे सपूती से तो वो नपूती भली थी

भाई जिनके कारण छिपाते रहे हो अपना कुल
धारण करते रहे हो घर के मसलों पर चुप्पी
अजनबीपन जीने का कौशल बनाना पड़ा हो

बहन तलाशती रही हो
ममेरे फुफेरे भाईयों में अपनत्व
सदा शामिल रही हो
माँ बाप के औलाद वाले दुःख में बढ़ चढ़कर

ऐसे उपेक्षित बेकार समझें गए बच्चों से
जब दोस्ती की गई
यकीन मानिए वो कमाल के दोस्त साबित हुए
यारों के यार
आधी रात भी साथ खड़े होने को तैयार

उनसे किसी ने नही पूछा
उनके जीवन का खेद
असफलता का बोझ
और यूं ही बेवजह बर्बाद होने का सबब

जब एकदिन मैंने पूछना चाहा किसी एक से
वो हंसकर टाल गया
जातें जातें उसने एक बात कही
जो फंसी रह गई मेरे दिल में
फांस की तरह

'कुछ क्यों ऐसे होते है जिनका कोई जवाब नही होता है'।

© डॉ.अजित

Saturday, June 18, 2016

विज्ञापन

मैंने एकदिन पूछा
तुम्हारे हिसाब से
सबसे झूठा विज्ञापन कौन सा है
उसनें कहा
'हीरा है सदा के लिए'
मैंने वजह जाननी चाही क्यों?
थोड़ी दार्शनिक मुद्रा बनाकर उसने कहा
प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नही होती

फिर एकदिन मैंने आदतन पूछ लिया
तुम्हारे हिसाब से
सबसे सच्चा विज्ञापन कौन सा है
उसने कहा
सच्चा तो नही पता मगर सबसे अच्छा विज्ञापन है
गार्नियर का
'अपना ख्याल रखना'
मैंने कहा क्यों?
खीझते हुए उसने कहा
ये मेरी दिन रात की फ़िक्र और प्रार्थना बताता है।

©डॉ.अजित

Friday, June 17, 2016

प्यार

प्यार शहतूत था
जहां गिरता मिठास बो देता था
प्यार कुछ कुछ हिस्सों में प्रलय जैसा था
सब कुछ खतम की उम्मीद में भी
छोड़ जाता था कुछ वीरान टीले
प्यार एक मुकम्मल सफर था
दो साथ चले लोगो को उतरना था
अलग अलग मंजिलो पर
प्यार मुमकिन करता था
रात में इंद्रधनुष देखना
और दिन में चांद
प्यार में यार के माथे पर
एक अधूरा लफ्ज़ टँगा था
इसलिए अधूरेपन से प्यार को भी था प्यार
प्यार बताता था फर्क करना
ख्वाब और हकीकत में
प्यार मदद करता था
बेहतर इंसान होने में
प्यार की बस एक ही अच्छी बात थी
इसके सहारे मुस्कुराया जा सकता था
चरम अवसाद के बीच
प्यार की बस एक ही खराब बात थी
ये बिन बताए आता
और जाता था हमें
ठीक ठाक ढंग से बताकर।


©डॉ.अजित

Thursday, June 16, 2016

बेबसी

एक दरख्वास्त
तुम्हारी बेरुखी की दराज़ में
सबसे नीचे मुद्दत से रखी है

एक इस्तीफ़ा तुम्हारी मेज़ के कोने पर
नामालूम नाराज़गी के पेपरवेट तले दबा
अरसे से फडफड़ा रहा है

एक खत तुम्हारे डस्टबिन की मुहब्बत में
कुछ महीनों से गिरफ्तार है
स्याही की गोंद बना वो उसके दिल से चिपक गया है

एक बोसा तुम्हारी पलकों
की महीन दरारों में दुबका बैठा है
उसे डर है तुम्हारे आंसू उसका वजूद न खत्म कर दे

एक शिकायत
गंगाजल में जा मिली है
रोज़ आचमन के समय तुलसीदल के साथ
तुम उसे घूँट घूँट पीती है
मगर तुम्हें इसकी खबर नही है

कुछ मलाल तुम्हारे लॉन की घास के साथ उग आए है
वो रोज़ तुम्हारे नंगे पाँव के सहारे
तुम्हारे दिल में दाखिल होना चाहतें है
मगर तुम उन्हें खरपतवार समझ उखाड़ देती हो

कुछ बहाने,कुछ सात्विक झूठ और कुछ सफाईयां
रोज़ तुम्हारी चाय के कप के इर्द गिर्द भटकती है
तुम जैसे ही फूंक मारकर चाय से मलाई हटाती हो
वो उस तूफ़ान में भटकर
धरती के सबसे निर्जन कोने में पहूंच जाते है

तमाम कोशिशों के बावजूद भी
तुम्हारे वजूद में
नही दाखिल हो पा रहा है मेरा वो हलफनामा
जिसमें कहना चाह रहा हूँ
इस वक्त मुझे तुम्हारी सख्त जरूरत है
वक्त की चालाकियों में मिट रहें हरफ
बस एक लफ्ज़ बचा पाया हूँ बड़ी मुश्किल से

'ईश्वर मेरी मदद करें'।

©डॉ.अजित

Sunday, May 29, 2016

वो

उसकी सबसे अच्छी बात ये थी
प्रेम संवेदना और मौन समझ के बावजूद
नही मरने दी उसने अपनी मौलिकता
बचाए रखा अपना विचार हमेशा
नही मिलाई हमेशा मेरी हां में हां
उसके लिए मैं नही था सबसे सुपात्र व्यक्ति
ये अलग बात थी
वो किसी की तलाश में नही थी
वो आँख में आँख मिलाकर बता सकती थी
मेरे तमाम ऐब
जब वो स्पष्ट बोलती तो साफ नजर आता था
स्पष्ट और कड़वे बोलने का फर्क
उसने प्रेम और अधिकार के समक्ष
कभी गिरवी नही रखा अपना विवेक
उसके पास था असहमति का नैतिक बल
साथ ही
विचार और संवेदना का अद्भुत संतुलन
विमर्श को बना सकती थी वो कविता
और कविता में तलाश लेती थी वो विमर्श
उसके पास था कौशल
बिना व्यक्तिगत हुए भी लम्बी बहस करने का
वो उदासी के पलों में ऐसी कल्पना कहती
हंस पड़ता था मैं
निर्जीव वस्तुओं पर कमाल का था उसका व्यंग्यबोध
मानों जानती हो उनकी अंदरुनी दुनिया करीब से
वो जानती थी
अस्तित्व का मूल्य
प्रेम की जरूरत
और मनुष्य की कद्र
इसलिए
बेहद कम समय के लिए मिल पाए हम
वो इर्द गिर्द के लिए
विस्तार के लिए बनी थी
उसको जीया जा सकता था बस
समझ तो वो न तब आती थी
और न आती है अब।

©डॉ.अजित

Friday, May 27, 2016

बातें

चलो उन दिनों की  कुछ बातें करतें है
जब सीख रहें थे सम्बन्धों के
सबसे कोमल षड्यंत्र
जब देख रहे थे
धरती के नीचे बहती नदी का सागर से मिलन
जब बना रहे थे
बादल और चाँद के बीच एक ठिया
ताकि बरसात में पी जा सके साथ चाय
जब शिकायतों को भेजतें थे व्यंग्य की शक्ल में
और उड़ाते थे वायदे बनाकर

चलो उन दिनों की कुछ बातें करते है
जब याद रहता था हमें हमेशा
एक दूसरे का
जन्मदिन
पसंदीदा कपड़े
और पसंदीदा खाना
जब रास्तों को पता होता था हमारे स्लीपर का नम्बर
दरख़्त जानतें थे हमारी काया का व्यास
पक्षी आपदा और मौसम की घोषणा करते थे
देखकर हमें साथ-साथ

चलो उन दिनों की कुछ बातें करते है
जब मनुष्य का मनुष्य पर बचा हुआ था भरोसा
प्रेम था दुनिया का सबसे साहसी काम
विश्वास था जब परीक्षण से मुक्त
सन्देह था जब सबसे उपेक्षित
हमारा साथ था जब सूरज सा शाश्वस्त

चलों उन दिनों की कुछ बातें करतें है
जब हवा बहती थी हमारे पसीने के आग्रह पर
बादल आतें थे तुम्हारे चेहरे की शिकन देखकर
बारिश होती थी हमें अकेला देखकर
फूल मुरझा जातें थे तुम्हें उदास देखकर
तितलियाँ उड़ जाती थी हमारी निजता सोचकर

चलों उन दिनों की कुछ बातें करतें है
चौराहों के पास होते थे अफवाहों के खत
गलियों के पास होता था जल्दबाजी का मनीऑर्डर
रास्तें अपने अपनी प्रेमिका को दिखाते थे हमारी शक्ल
धूप जब आती थी डेढ़ घण्टा विलम्ब से
साँझ जब होती थी पौने दो घण्टें पहले
दिन और रात छोड़ना चाहते थे
कुछ घण्टे कुछ मिनट न जाने किसके भरोसे

चलो उन दिनों की कुछ बातें करते है
क्योंकि
जब केवल बातें बच जाती है
उन्हें दोहरा-दोहरा कर ही करना होता है खतम
बातों का बच जाना
मनुष्य के बच जानें से कम खतरनाक नही है
इसलिए कह रहा हूँ लगातार
चलों उन दिनों की कुछ बातें करतें है।

©डॉ.अजित

Wednesday, May 25, 2016

कौतुहल

बहते जल की छोटी सी धारा में
बनता है एक छोटा भवँर
मुझे याद आती है
तुम्हारी नाभि
भँवर में समा जाता है
शाख से टूटा एक पत्ता
तब मुझे याद आती है
अपने कान की प्रतिलिपि
जो समा गई थी तुम्हारी नाभि में
मगर भँवर की तरह नही
बल्कि उस बच्चे की तरह
जो रेल की पटरी पर कान लगा
सुनता है रेलगाड़ी आने की ध्वनि
मेरी और उस बच्चे की मुस्कान में
कोई ख़ास अंतर नही था
वो आश्वस्ति से भरा था
और मैं एक कौतुहल से।

©डॉ.अजित

Tuesday, May 24, 2016

असुविधा

एक स्त्री कहती है
तुम्हारी वजह से
मैंने आत्महत्या को स्थगित कर दिया

एक स्त्री कहती है
तुम्हारी वजह से
एक दिन आत्महत्या कर सकती हूँ मैं

एक स्त्री कहती है
तुमनें जीवन का सच जान लिया है

एक स्त्री कहती है
सच ये है तुम बेहद डरपोक और भगौड़े हो
बस प्रतीत नही होने देते

एक पुरुष कहता है
तुम और बेहतर हो सकते हो

एक पुरुष कहता है
तुम कितने खाली और बेकार हो

एक बुजुर्ग कहता है
तुम आदमी काम के हो
मगर गलत वक्त पर पैदा हुए हो

एक बुजुर्ग कहता है
तुम दोषी हो
तुमनें रास्तों को मंजिल का सही पता न दिया

एक बच्चा कहता है
आपके जूते के फीते खुले है
शर्ट का एक बटन सही बंद नही है

एक बच्चा कहता
आपसे डर लगता है
आप हंसते कम हो

एक धर्म कहता है
ईश्वर एक है
वो दयालू है

एक धर्म कहता है
सब ईश्वरों का भी एक ईश्वर है
उसे नही मानोगे तो
तुम्हें दंड मिलेगा वो

इन सबसे एक
निरुपाय मनुष्य कहता है
हो सके तो
मुझे माफ़ करों

क्षमा का याचन पलायन नही
तटस्थता का अभिनय भी नही

दरअसल,
माफी मांगना एक सुविधा है
उनके लिए
जिन्होंने जीवन में चुनी हमेशा
असुविधा।

©डॉ.अजित 

Sunday, May 22, 2016

एक मेरे पिता थे
जो यदा-कदा कहतें थे
तुम्हारे बस का नही ये काम

एक वो है
जिनका पिता मैं हूँ
उनकी अपेक्षाओं पर जब होता हूँ खारिज़
ठीक यही बात कहतें वो
आपके बस का नही ये काम

दो पीढ़ियों के बीच
इतना मजबूर हमेशा रहा हूँ मैं
ये कोई ग्लैमराइज्ड करने की बात नही
ना अपनी काहिली छिपाने की
एक अदद कोशिश इसे समझा जाए

बात बस इतनी सी है
मैं चूकता रहा हूँ हमेशा बेहतर और श्रेष्ठतम् से
नही कर पाता
कुछ छोटे छोटे मगर बुनियादी काम
और मनुष्य होने के नातें
ये एक बड़ी असफलता है मेरी
यह भी करता हूँ स्वीकार

अपने पिता और पुत्रों के मध्य
संधिस्थल पर बैठा प्रार्थनारत हूँ न जाने कब से
घुटनों के बल बैठे बैठे मेरी कमर दुखने लगी है
मेरा कद  रह गया है आधा

इसलिए नही देख पाता
अपने आसपास बिखरी
छोटी-बड़ी खुशियों को

मेरे वजूद का यही एक ज्ञात सच है
जो बता सकता हूँ मैं
अपने पूरे आत्मविश्वास के साथ।

©डॉ.अजित

Saturday, May 21, 2016

जीभ

शास्त्र के हिसाब से
देखा जाए तो
तुम्हारी जीभ पर
सरस्वती का वास है
मगर मेरे हिसाब से
वहां किसी का वास नही
वो तुम्हारे देह की सबसे मुक्त मांसपेशी है
जो जानती है देह से बाहर की यात्रा
प्रेम और गरिमा के साथ
तुम्हारे होंठों उसका भार कृतज्ञता से भरा है
वो समझती है स्पर्श का मनोविज्ञान
लौकिक और अलौकिकता से परे
शब्द,अर्थ, स्पर्श और यात्रा के जरिए
वो सहेजे है बेहद निजी
मगर उतने ही पवित्र प्रसंग
तुम्हारी जीभ महज वाणी का एक अंग नही
बल्कि चैतन्यता का एक अमूर्त आख्यान है
जो छपा है दिल ओ' दिमाग के ठीक बीचोबीच।

© डॉ.अजित

जलसा

अहसासों की एक जुम्बिश 
रोज़ शाम पीछा करती है
सफहों पर रक्खे कुछ लफ्ज़
हाशिये की बेरुखी से इल्तज़ा करते है 
तुम्हारी पोशीदा हथेलियों के टापू पर 
एक दरिया रोज़ मुझे बुलाता है 
वो चाहता है मैं डूब भी जाऊं और खुदकुशी भी न हो 

हवाओं ने तुम्हारी जुल्फों को पहरेदार बना दिया है 
वो आँखों के काजल को आंसूओं से सूखता देखती है
बादलों ने मेरे खत जला दिए है 
सूरज आजकल उनसे रोशनी उधार मांगकर ज़मी पर आता है 

तुम थोड़ी मुतमईन थोड़ी गाफिल होकर 
जब मुस्कुराती हो
कायनात तब अपने छज्जे से कुछ पंछी उड़ा देती है 
आसमान की बालकनी में 
एक गीला तौलिया टंगा है धूप उसकी तलाश में
मेरे घर की तलाशी लेती है 
वहां महज तुम्हारे ख्यालों की महक मिलती है तुम नही 
इस बात पर धूप मुझे ताना देती है
मुद्दत से मैं अंधेरो में जीता हूँ 
खुद की धड़कनों को तुम्हारे ख्याल के तबस्सुम से सीता हूँ

अजब सी कशमकश है 
मरासिम की एक वसीयत मेरे सिराहनें रखी है 
और मैं शिफ़ा के नुस्खे तलाश रहा हूँ 
चाँद तारों से तुम्हारी करवटों का हिसाब ले रहा हूँ 
वो खबरी नही है फिर भी मुझे बताते है 
तुम्हारे तकिए की बगावत के किस्से
और हंस पड़ते है 

इनदिनों, तुम्हारा जिक्र मैं उन रास्तों से करता हूँ 
जो अब कहीं नही जातें है 
वो मुझे कोई मशविरा नही देते नसीहत भी नही
बस मेरे पैर को चूम लेते है

आख़िरी चिट्ठी मुझे तुम्हारी अंगड़ाई की मिली थी
जिस पर लिखा था 
तुम याद आएं और मैं मुस्कुरा पड़ी

इन्ही तसल्लियों पर आजकल जिन्दा हूँ 
जिन्दा हूँ मगर एक ख्वाब की तरह
तुम दूर हो उस हकीकत की तरह
जिसकी रौशनी में 
हमारी पीठ एक दुसरे के सहारे टिकी है 

उदासियों का उर्स है
मैं खताओं की कव्वालियां गा रहा हूँ 
मेरे मुर्शिद ने मुझे सरे राह छोड़ा क्यों 
मुरीद का तमन्नाओं से दिल तोड़ा क्यों

खता का इल्म वफ़ा के अदब से भारी है
जमीं के जिस हिस्सें में तुम नही 
आजकल वहीं अपनी परदेदारी है।

©डॉ. अजित

मोक्ष

एक दिन ये देश छोड़ना चाहता हूँ
और एक दिन ये दुनिया
दुनिया और देश के अलावा भी
निर्वासन के लिए जगह तलाशता हूँ

जब कहीं की नागरिकता नही मिलती
मैं भटकता हूँ ब्रह्माण्ड में
किसी आवारा उल्का पिंड की तरह

मेरा नष्ट होना महज प्रकाश का चमकना नही होगा
मैं फ़ैल जाऊँगा राख की शक्ल में
उस द्वीप पर
जहां कोई स्त्री नही रहती

खरपतवार की पत्तियों पर नसीब होगी
मुझे आखिरी नींद
प्रेम का गल्प बनेगा
मेरे मोक्ष का एक शास्त्रीय प्रयोजन

इस तरह से खतम होगी मेरी
शून्य से शून्य की यात्रा।

©डॉ.अजित


Wednesday, May 4, 2016

स्मृतिलोप

और एकदिन कवि पाता है
अपनी सारी कविताएं बनावटी और खोखली
जैसे मन की सतह पर छाया हुआ
एक भावनात्मक झाग
या फिर एकालाप के अधूरे राग
जिनकी बंदिशें उलझी हुई है आपस में
वो हंसता है खुद पर
उस हंसी को देख डर सकता है कोई भी
और एकदिन कवि भूल जाता है
अपनी सारी कविताएं
वो महज़ पाठ ही नही भूलता
वो भूल जाता है कविता का शिल्प नुक्ते और मात्राएं
जब वो सुनता है कोई बढ़िया कविता
सबसे पहले उसे खारिज करता है
फिर करता है स्वीकार
कवि का स्मृतिलोप अदैहिक घटना है
कवि जिस दिन भूल जाता है कविता
ठीक उसी दिन उसका जीवन लगने लगता है कविता
जिसका पाठ होता है
यत्र तत्र सर्वत्र
कवि की अनुपस्थिति में।

© डॉ.अजित

Tuesday, May 3, 2016

बातें

मिलनें पर आदतन
वही सवाल किया उसनें
कैसी है तुम्हारी प्रेमिका
मैंने कहा
बिलकुल तुम्हारी जैसी
झूठ ! सफेद झूठ ! उसनें हंसते होते हुए कहा
मैनें कहा क्यों हो नही सकती?
नही हो सकती !
जब आज तक तुम्हारे जैसा कोई दूसरा न मिला
मेरे जैसे कोई कैसे मिल सकती है तुम्हें
हम्म ! कहकर बदल दी मैंने फिर बात
मगर देर तक हमारे बीच अकेला बैठा रहा
ये बेहद प्यारा सच।
***
ऐसा कई बार हुआ
फोन उठाना बन्द कर दिया उसनें
नही दिया जवाब किसी एसएमएस का
मैंने हर बात का बदला लिया
सिवाय इस बात के
जब भी आया फोन लपक कर उठा लिया
तलाश कर लिया धरती का सबसे सुरक्षित कोना
सुनता रहा उसे मुग्ध होकर
हर एसएमएस का दिया व्यंग्य रहित जवाब
बस इसी बात के लिए
आज भी मुझे शिद्दत से याद करती है वो।
***
उसने पूछा एकदिन
तुम्हारे जीवन के सबसे खराब दिन कौन से थे
मैंने कहा जब दिमाग ने दिल को को समझा दिया था
तुम नही हो आसपास
और सबसे अच्छे?
जब दिल ने दिमाग को कहा
शर्ते लगाना बन्द कर वो यही है आसपास
और सबसे तटस्थ दिन
अब मैं हंस पड़ा और कहा
वो याद नही कब थे
चलो मैं याद दिलाती हूँ उसनें कहा
तुम्हारे सबसे तटस्थ दिन तब थे
जब तुम दो लोगों के बातों पर
मुस्कुरा रहे थे एकसाथ
वो सबसे खराब दिन थे मेरे।

©डॉ.अजित

Tuesday, April 26, 2016

एकदिन

एकदिन पूछा मैंने
तुम्हारा वो दोस्त मुझसे अच्छा है क्या?
उसनें बड़े आत्मविश्वास से पलक झपकतें हुए कहा
हां ! वो तुमसे कई मामलें बहुत अच्छा है
मैंने कहा फिर मुझसे ये मेल मिलाप क्यों?
थोड़ी गम्भीर होते उसनें कहा
मुझे कम अच्छे लोग पसन्द है
इसलिए।
***
मैंने एकदिन कहा
क्या तुम्हारा वो दोस्त तुम्हें मेरे जितना समझता है
उसनें कहा हां ! तुम मुझे बिलकुल उतना नही समझते
जितना वो समझता है
इस मैं थोड़ा उदास हो गया
उसनें मेरे हाथ अपने हाथ में लेकर
बिना पलकें झपकें कहा
वो केवल मुझे समझता है
तुम मुझे जीते हो
इसलिए दोनों में कोई बराबरी नही है
उस वक्त मेरे चेहरे पर जो मुस्कान थी
वो इतनी असली थी कि चमक रही थी तुम्हारी आँखे।
***
मैंने एकदिन पूछा
अगर किसी दिन तुम्हें चुनना पड़े
हम दोनों में से कोई एक
तब तुम क्या करोगी, किसे चुनोगी?
किसी को भी नही
उसनें दृढ़ता से कहा
फिर क्या करोगी
हंस पड़ी ये सुनकर
फिर बोली रोया करूंगी तन्हाई में
ये सोचकर
दो समझदार पुरुष भी नही सहेज पाए मुझे।
***
एकदिन उसको देख
भावुक हो किसी बात पर
रो पड़ा मैं
उसने कुछ नही कहा
फिर अचानक बोली
तुम्हारे लायक नही ये दुनिया
यहां तक मैं भी नही
तुम गलत वक्त पर पैदा हुए हो
हो सके तो
इतंजार करना मेरा अगले जन्म तक
इतना कहकर वो रो पड़ी
थोड़ी देर हम दोनों खामोश रहे
फिर हंस पड़े कैंटीन का बिल देखकर।

©डॉ. अजित