Sunday, April 23, 2023

आँख

 

चित्र के अंदर से

एक आँख हमें देखती है

हम जो देखते हैं

वो उस देखने को नहीं देखती

वो केवल हमें देखती है

इस तरह बनते हैं

दो चित्र एक साथ

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शिल्प की व्याख्याएँ हैं

कला की नहीं

कला का विश्लेषण संभव नहीं

इसलिए भी होती है

कला शाश्वत

--

संकल्प और विकल्प

दोनों प्रकाशित हो जाते हैं

इसलिए भी  

दोनों लेते हैं

एक दूसरे की जगह।

 --

आसमान की तरफ देखते हुए

अपनी देखने की सीमा का बोध नहीं होता

उसके लिए देखना होता ठीक सामने

शायद तभी

हम समंदर और पहाड़ को

एक साथ नहीं देख पाते।

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अपने अंदर कूदकर

निकलने का रास्ता प्राय:

दिख जाता है

जो नहीं कूदते

वे रास्तों की नहीं मंजिलों की

बातें करते हैं अक्सर।

©डॉ. अजित

6 comments:

Onkar said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति

Sweta sinha said...

बेहतरीन अभिव्यक्ति सर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २८ अप्रैल २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

जिज्ञासा सिंह said...

गहन अभिव्यक्ति। उत्कृष्ट रचना ..

Banjaarabastikevashinde said...

क़माल की सूक्ष्मदृष्टि वाली परख़ और लेखनी की तूलिकाओं से विज्ञान और बौद्धिक बिम्ब का संयोजन ... पहले और चौथे ताखे में प्रकाश, बिम्ब व दृश्य वाले भौतिक विज्ञान को स्पर्श करती हुई रचना और दूसरे, तीसरे व पाँचवे में कला की शाश्वतता, संकल्प-विकल्प और रास्ते-मंज़िल का गूढ़ प्रयोग .. शायद ...👌👌👌

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

गहन भावाभिव्यक्ति ।
भले ही समंदर और पहाड़ एक साथ न देख पाते हों फिर भी देखने की क्षमता बहुत अधिक होती है।

मन की वीणा said...

सारगर्भित रचना बहुत सुंदर।