Tuesday, February 5, 2008

अपनत्व

अधिकार एवं अपनत्व
दोनों के मूल मे
होती है
एक अंतरंगता
मौन संवाद ही
काफ़ी होता है
परस्पर भाव
संप्रेषित करने के लिए
और यदि
कभी कुछ कहना हो
विशेष
शब्दों का आभाव
प्रतीत होता है
हमे
संबंधो की दिशा
होती है स्वत उन्मुक्त
बन्धन मे बांधना भी
चाहे तो
सम्भव नही होता है
आज अधिकार से
यह भूमिका लिखी है मैंने
मगर
अपनत्व
मुझे कायर बना देता है
अपने भाव भी
ठीक ढंग से संप्रेषित नही
कर पा रहा हूँ
संभवत
तुम असमंजस मे हो
कि
मैं क्या कहना चाहता हूँ
दरअसल
ये अपनत्व का भय
मुझे बना रहा हैं
अधिकार शून्य
क्योंकि
मैं जानता हूँ
कि
भावावेश मे
अधिकारवश कही गई
हरेक बात का
तुम आजीवन
पालन करोगी
जबकि
मैं
अपनत्व एवं अधिकार से
तुम्हे भावनाओ का
संवाहक मात्र
नही देखना चाहता हूँ
देखना चाहता हूँ
तुम्हे पार्थसारथी की
भूमिका मे
यह तभी सम्भव होगा
जब हम
परस्पर मुक्त हो
महसूस करे
जीवन समर
और
देखें मित्रता पर
'अनुभव' का असर ..."
डॉ.अजीत