Wednesday, April 26, 2017

एकदिन

सबकुछ ठीक चल रहा था हमारे बीच
दिन भी सात ही होते थे
और महीना भी तीस ही दिन का था
हर तिमाही पर मौसम बदलता था
और छटे छमाही याद की जाती थी
पुरानी प्यारी बातें

फिर अचानक एकदिन
बदल गया काल चक्र
आंधी में उड़ गया हमारा निजी पंचांग
अब सप्ताह होता था दो दिन का
दुनिया जिसे वीकेंड समझ
जश्न की तैयारी में मशगूल होती
उन दो दिनों में भटकता था मैं बेहताशा
महीना अब कोई एक पूरा नही होता था
जेठ में बैसाख और चैत में आषाढ़ के बादल दिखने लगते थे आसमान पर

मौसम अब एक जैसा रहता था
मैं उसके बदलने के इंतज़ार में
थक गया था
दो जोड़ी कपड़ो से बीत गया था साल
न ठंड में ठंड लगी न गर्मी में गर्मी
बरसात रूमानी भी होती है
नही था मालूम
जिस बरसात को जानता था मैं
वो अचानक आती और भिगो देती थी
तार पर टँगी उल्टी बुरशट को

सब कुछ ठीक चलने के बाद
एक दिन चलता है
सब कुछ ठीक न चलना
जो बदल देता है
सारे विशेषण सर्वनाम में

ऐसा नही अब सब कुछ ठीक चल रहा है हमारे मध्य
जो लिख रहा हूँ मैं एक कविता
या बांट रहा हूँ ज्ञान मनुष्य की त्रासदी पर

अब बस इतना है कि
ठीक चलने और ठीक न चलने के बीच
जो कुछ अच्छी बातें याद रह जाती है
एकदम अपनी निरपेक्ष प्रकृति के साथ
उनके भरोसे मैं देख रहा हूँ
माया के उस विचित्र नियोजन को

जिसका दुनिया का
कभी एक कुशल अभियंता था मैं
उसी का आज दिहाड़ी मजदूर हूँ मैं
भूल गया हूँ अपनी सारी निपुणताएं
कर दिया खुद को मांग के हवाले
बस इतना भर याद है
कभी सब कुछ ठीक चल रहा था हमारे मध्य
जो अब नही है।

©डॉ. अजित


Saturday, April 22, 2017

उम्मीद

ये जो तेरी पलकों के छज्जे पर
सूखते हुए ख़्वाबों की परछाई है
जो हो इजाज़त मैं थोड़ी देर इसमें पनाह ले लूं
मेरा जिस्म जज्बाती धूप में झुलस गया है

ये जो तेरी आँखों में गुमशुदा इश्तेहार है
मैं उनसे रास्ता पूंछ लूं ज़रा
भटक गया हूँ मैं सही गलत के कबीले में

फ़कत इतनी इल्तजा है मेरी
तेरी जुल्फों के साए में
अपनी यादों की गुल्लक फोड़ कर
गिन लूं जमा की गई हसीं बातों की चिल्लर

एक बोसा तेरे कान पर टांग दूं
जो हवा देता रहे गर्म लू में तुम्हें हमेशा

मेरे पास कुछ ख्वाहिशों के अधूरे वजीफे है
कुछ शिकायतों के आड़े-तिरछे नक़्शे है
अनकही बातों  का शरबत है
जिसे घूँट घूँट लुत्फ़ लेकर पीना तुम कभी

ये सब तुम्हें सौंपकर मैं अब आराम चाहता हूँ
अपनी बेचैनियों से इंतकाम चाहता हूँ

इसलिए
मुन्तजिर हूँ तुम्हारी फुरसत और बेख्याली का
उम्मीदन तुम आओगी एकदिन
बारहा यूं ही खुद चलकर

उसी दिन आमद होंगी
कुछ कतरों की समन्दर में
और मुक्कमल होगा एक बेवजह का सफर
अपने तमाम अधूरेपन के साथ.

© डॉ. अजित


Friday, April 21, 2017

अन्यथा

ये बातचीत को अन्यथा
लिए जाने का दौर है
आप कहे पूरब
और कोई समझ ले
इसको निर्वासन की दशा

आप कहे मेरा वो मतलब नही था दरअसल
और तब तक मतलब निकल चुका हो हाथ से

इसलिए
बातचीत करते हुए लगता है डर
और बोल जाता हूँ कुछ ऐसा भी
जिसका ठीक ठीक मतलब नही पता होता
मुझे भी।

©डॉ. अजित

Wednesday, April 19, 2017

तुम उदास करते हो कवि...

पहले उसे मैं औसत लगा
फिर बेहतर
उसके बाद थोडा और बेहतर
मैं बेहतरी में आगे बढ़ ही रहा था कि
अचानक उसने कहा एक दिन
तुम कोई ख़ास पसंद नही हो मुझे
बल्कि कभी-कभी लगते हो बेहद इरिटेटिंग भी
मुझे अपनी घटती लोकप्रियता का दुःख नही था
मुझे दुःख इस बात का हुआ  
मैं सतत मूल्यांकन में था.
****
हमारी कुछ ही संयुक्त स्मृतियाँ ऐसी थी
जिनका एक सामूहिक अनुवाद संभव था
अन्यथा
हम चल रहे थे आगे-पीछे अपने अपने हिसाब से
जिस दिन हम अलग हुए चलते -चलते
उस दिन हमारे पास कुछ ऐसी स्मृतियाँ बची थी
जिन्हें बांचते समय लगता कि
हम साथ चल नही साथ बह रहे थे
किनारों से पूछने कोई नही जाएगा
मगर ठीक से वही बता सकता है
हम दोनों की अभौतिक दूरी.
***
ऐसा कई बार हुआ
उसे फोन किया और स्क्रीन पर नम्बर दिखने के बाद
काट दिया तुरंत
ठीक इसी तरह कुछ एसएमएस किए टाइप
और मिटा दिए तुरंत
ये घटनाएं मेरे द्वन्द, संकोच  या अनिच्छा को नही बताती है
ये दोनों बातें बताती है
समय से चूक जाने के बाद
तुम्हें किसी भी वक्त डिस्टर्ब करने का हक़ खो  बैठा था मैं.
***
हमारी बातें इतनी निजी है
जितनी धरती की अंदरूनी दुनिया
हमारी बातें इतनी सार्वजनिक है
जितना आसमान का फलक
हमारी बातों में थोड़ी थोड़ी
सबकी बातें शामिल है
इसलिए जब उदास होता हूँ मैं तो
कभी कभी
सुबक कर रो पड़ता है कोई अनजाना भी.
***
‘तुम उदास करते हो कवि’
किसी ने कहा ने एकदिन
कोई कविता पढ़ने के बाद
मैने जवाब में एक मुस्कान बना दी
यह सच है कि प्राय: लोगो को उदास करता हूँ मैं
क्यों करता हूँ
इसका सही-सही जवाब केवल तुम्हारे पास है
मगर तुमने कोई पूछने नही जाएगा
इसलिए मुस्कान मेरे पास
स्थाई प्रतीक है
अपना दोष स्वीकारने का.

© डॉ. अजित






Tuesday, April 18, 2017

अनिच्छा

ये जो तुम्हारा गूंथा हुआ जूड़ा है
मैं इसमें दूरबीन की तरह झांककर देखना चाहता हूँ
जिसके लिए कर लूंगा
मैं अपनी एक आँख बंद
किसी कुशल खगोल विज्ञानी की तरह
मैं  देखना चाहता हूँ कि
ये  दुनिया कितनी दिमाग के भरोसे  चल रही है
और कितनी दिल के

ये जो तुम धोकर और खोलकर सुखा रही हो अपने बाल
मैं इन्हें हवा में उड़ता हुआ देखना चाहता हूँ एक बार
ताकि पता कर सकूं हवा दक्खिनी है या पहाड़ा
परवा और पछुवा जानने के काफी है तुम्हारी लटें

तुम्हारी गर्दन पर प्रकाशित है
उस समंदरी टापू का नक्शा
जहां ठुकराए हुए लोग जी  सकते है सम्मान के साथ
उनसे  कोई नही करता वहां सवाल  
उसकी प्रतिलिपि मैं ले जाना चाहता हूँ अपने माथे पर
तुम्हारी अनुमति के बाद

तुम्हारे हाथों में सुना है बड़ी बरकत है
आज तक कभी कम नही पड़ा खाना रसोई में
मैं अपनी कलम एक बार तुम्हारे हाथों में देना चाहता हूँ
ताकि क्षमा और प्रशंसा के लिए
कभी कम न पड़े मेरे पास शब्द

ये जो तुम्हारी पलकें है
इनके बाल गिनना चाहता हूँ एक बार
ताकि मैं अपनी बोझ उठाने की क्षमता को परख सकूं
तरलतम परिस्थितियों में

मेरे इस किस्म के छोटे छोटे स्वार्थ और भी है
मगर उनका जिक्र नही करूंगा आज
आज केवल पूछूंगा इतना
क्या तुम्हें इतना भरोसा है खुद पर कि
मैत्री को बचा ले जाओगी
प्रेम के मायावी प्रेत से?

तुम्हें हो न हो मगर मुझे भरोसा है
इसलिए मैं कहता हूँ
ये जो तुम्हारी आँखें है
इनमें साफ-साफ़ दिखता है
भूत और भविष्य एक साथ
मैं दोनों के बीच में वर्तमान
टिकाना चाहता हूँ थोड़ी देर
बशर्ते तुम अनिच्छा से आँखें न मूँद लो.

© डॉ. अजित




Saturday, April 15, 2017

दोस्ती

एक बुरे दौर में
मैंने दोस्तों की तरफ
मदद की उम्मीद भरी निगाह से देखा
कभी ये मदद आर्थिक थी
तो कभी मानसिक
कुछ दोस्तों को मेरी उम्मीद नही दिखी
बस केवल मैं दिखा
मजबूरी की एक कमजोर
प्रस्तुति थी शायद मेरे पास
कुछ दिन ऐसे दोस्तो से मैं रहा बेहद नाराज़
फिर मैंने पाया
मेरी नाराज़गी कोरी भावुकता से भरी थी
जो लगने लगी अप्रासंगिक
कुछ महीनों बाद
दरअसल
बुरे वक्त में दोस्त की मदद न कर पाना
जरूरी नही दोस्त की काहिली हो
कई बार हमारी पात्रता होती है कमजोर
और मदद हो जाती है किसी
लौकिक जटिलता की शिकार

कई बार एक बुरे दौर में
मैने दोस्तो की तरफ
मदद की भरी निगाह से देखा
और दोस्तों ने
मदद की मेरी उम्मीद से बढ़कर
पढ़ लिया मेरा मन
कई कई साल जिक्र तक नही किया
उधार के पैसों का
जो उनके गाढ़े खून पसीने की कमाई थी
शराब के बाद की मेरी 'झक' को
झेला पूरी विनम्रता के साथ
सार्वजनिक रूप से बताते रहें वो
मुझे बेहद प्रतिभाशाली
ऐसे दोस्तो के प्रति
मैने कोई कृतज्ञता प्रकट नही की आजतक
हमेशा लिया इसे एक हक की तरह

ये दो अलग अनुभव नही दरअसल
ये दोस्ती की दो आंखें हैं

इसलिए
नही लिया जाना चाहिए
दोस्तों की बातों को बहुत व्यक्तिगत
बचाए जाने चाहिए रिश्तें
नाराजगियों के बावजूद
दोस्त दरअसल हमारे दोस्त के अलावा
अलग अलग मोर्चो पर लड़ते मनुष्य भी है
जो कहीं जीतते है तो
कहीं हार जाते है

दोस्ती के हिस्से में हमेशा जीत नही होती
मगर दोस्ती के साथ कोई हार
कभी स्थाई भी नही होती

दोस्ती को बचाना
ज़िन्दगी में हार को स्थगित करना है
इस स्थगन के लिए अपेक्षा की हत्या
करनी अनिवार्य पड़े तो
कर देनी चाहें यकीनन
चाहें दिल मानें या न मानें।

©डॉ. अजित

Wednesday, April 12, 2017

कमतर

उसने कहा एकदिन
तुम तो औसत से भी कमतर निकले
मैं तुम्हें बेहतर समझ रही थी
मैंने पूछा
ये बात गुस्से में कह रही हो या सच में
उसने कहा
जैसा तुम समझो तुम्हारी मर्जी
मैंने कहा कमतर को
इतनी छूट देने के लिए शुक्रिया
तुम बेहतर हो अब इस पर
कोई संदेह नही है मुझे।
***
मैंने कहा एकदिन
देखना आंख में कुछ चला गया है
उसने कहा मुझे दिखाई न देगा
मैंने कहा क्यों?
इसलिए क्योंकि मैं ज्यादा
नजदीक हूँ तुम्हारे।

***
हमारी अधिकतर लड़ाईयां
बेवजह की थी
मसलन एकदिन उसने पूछा मुझे
प्यार आदमी की जरूरत है या
आदमी को जरूरत से प्यार करना पड़ता है?
मैंने कहा एक ही बात तो हुई
इस पर वो बिगड़ गई और कहा
तुम हमेशा सवालों से बचते हो
मैंने कहा हां !
मै सवालों से नही जवाबों से बचता हूँ।
***
परसों उसने पूछा
मेरे बिन रह सकोगे तुम
मैंने कहा शायद
उसने मुस्कुराते हुए कहा
अच्छी बात है
इस शायद को कभी मत छोड़ना
चाहे मैं रहूँ या न रहूँ।

©डॉ. अजित 

ब्रेकअप के बाद

ब्रेकअप के बाद
उठ गया था रेखाओं से विश्वास
शुक्र बुध मंगल पर्वत डूब गए थे
अविश्वास के समन्दर में
हथेली देखते वक्त नजर आता था बस पसीना
वो उड़ रहा था
बहने के लिए नही मिलती थी उसको जगह
हाथ तंग हो गया था मेरा

भटक गया था मन का भूगोल
अटक गया था यादों का खगोल

कलाई पर जो बंधा था शुभता का धागा
उसको काटने की तमन्ना होती थी रोज़
चाहता था रास्ते मे न आए कोई मंदिर
प्रसाद को न करना पड़े इनकार

ब्रेकअप के बाद
सूरज शाम को चिढ़ा कर जाता था
सुबह आकर जगाती नही थी
पक्षियों की आवाजें लगती थी कोलाहल
डायरी में दर्ज हर्फ उलटे हो गए थे सब के सब

शराब का ख्याल आता मगर दिल न करता था
एक भी घूंट पीने को
अपने सुकूँ के लिए बड़ी लगती थी ये कीमत

ब्रेकअप के बाद
दिल मे क्या तो कोई सवाल न था
या फिर जवाब ही जवाब थे
जवाब कोई सुनता न था
और सवाल पूछने के लिए जगह न बची थी

ब्रेकअप के बाद
सम्वेदना का था एक बुद्धिवादी संस्करण
भावुकता का था एक लिजलिजा कलेवर
इन दोनों के मध्य दिल था
थोड़ा उदास ज्यादा निरुपाय

ब्रेकअप के बाद जो भी था
वो ठीक नही था
कितना ठीक नही ये नही बता सकता
क्यों नही बता सकता
इसकी वजह समझ आई
ब्रेकअप के बाद।

©डॉ. अजित