Wednesday, December 30, 2015

बात

एकदिन मैंने खुद के विकल्प के रूप में
सुझाए कुछ
कवि,लेखकों और बुद्धिजीवियों के नाम
बताई खुद की तमाम कमजोरियां
गिनाई उन नामों के साथ जुड़ी
साहित्यिक गुणवत्ताएं
और अभिमान के पल
स्वीकार किया खुद का उनसे प्रभावित होना
कहा उनका साथ तुम्हें और अधिक संवार सकता है
मेरे इर्द गिर्द है यथास्थिति का जंगल
अवसाद का पहाड़
और अनिच्छा की नदी
तुम्हारा उत्साह और धैर्य दे जाएगा जवाब
जब दस साल बाद भी यही बातें होंगी मेरी
खुद के ऐसे होने के कुछ गढ़े हुए औचित्य
भर देंगे तुम्हें अंदर की खीझ से
सम्भव है एकदिन तुम फट पड़ो
किसी ज्वालामुखी की तरह
इसलिए मुझसे बेहतर एक दुनिया
तुम्हारे इन्तजार में है
यह कहकर एक चाय की घूँट भरी मैंने
तुमनें ठीक उसी वक्त
अपना कप नीचे रखा और कहा
छोड़ना चाहते हो मुझे?
मैंने कहा वो बात नही है दरअसल
तुम समझ नही रही हो
कल्पना और यथार्थ का अंतर
मैं देख रहा हूँ भविष्य में
उसने तुरन्त चाय खत्म की
और निकल पड़ी
जाते हुए बस इतना कहा
ज्यादा बना मत करों
तुमसे मिलना मेरे लिए
नही है विकल्पों का रोजगार
ना ही है ये कोई सम्भावनाओं का षड्यंत्र
मेरे लिए क्या बेहतर है
ये मै बेहतर जानती हूँ
तुम अपनी सोचो
मित्र हो मित्र ही रहो
गाइड और फिलॉसफर मत बनों
उसके बाद
साथ चाय पीनी छूट गई
और सलाह देने की आदत भी।
© डॉ. अजित 

Monday, December 28, 2015

सफेद झूठ

लम्बे अरसे से
समन्वय और समझौते की धूरी पर
टँगा हुआ एक वृत्त था वो
जिसकी गति और नियति तय थी
उसकी चाल का आघूर्ण अज्ञात था
वो शापित था
अन्यथा लिए जाने के लिए
वो रोज़ चलता था
मगर पहूंचता कहीं नही था
उसके व्यास में एक लोच थी
इसलिए उसका ठीक ठीक मापन सम्भव नही था
उसके आंतरिक वलयों का एकांत
अप्रकाशित था
वो घूम रहा था
अपनी तयशुदा मौत के इंतजार में
उसका इंतज़ार अंतहीन था
उपेक्षा की हद तक वो खारिज़ था
वो यारों का यार था
हमेशा माफी मांगने को तत्पर
उसे यकीं नही था
खुद के सच होने का
वो झूठ था
सफेद झूठ
कुछ दाल में काला
या फिर आटे में नमक
यह तय करना मुश्किल था
उसके लिए
सबके लिए।

© डॉ. अजित 

एकदिन

एक दिन भूल जाऊँगा मैं
समस्त विद्याएं
नही भेद कर सकूंगा
विधाओं में
आदमी को परखना और समझना तो
खैर मुझे कभी नही आया
दुनिया की सबसे निष्प्रयोज्य वस्तु बन जाऊँगा एकदिन
आदमी से वस्तु बनना
कोई अच्छा या खराब अनुभव नही होगा
बस एक बेवजह का अनुभव जरूर होगा
तब मेरी बातों में न रस होगा और न व्यंग्य
अर्थ के दरवाजें कस लेंगे अपनी सांकल
अँधेरा सवार हो जाएगा रोशनी की पलकों पर
परिवेश मेरा आंकलन करेगा तब
कुछ किलो और ग्राम में
मेरा होगा एक निश्चित द्रव्यमान
मेरे शब्दों में नही बचेगी लेशमात्र भी गुणवत्ता
मेरे भाव हो जाएंगे बाँझ
मेरी आकृति हो जाएगी धूमिल
मेरा होना तब होगा
रूचि और कौतुहल से परे
मेरी स्मृतियां ऐन वक्त पर दे जाएगी धोखा
नही बता सकूंगा मैं सही दिन और साल
कहने के लिए मेरे पास नही बचेगा एक भी सम्बोधन
मेरी टिप्पणियों के अर्थ उड़ जाएंगे हवा में
धरती पहाड़ जंगल और नदी मान लेंगे
मेरा प्रवासी होना
नही सुनाएंगे मुझे वो कोई पीड़ा या गीत
अपनों और सपनों की भीड़ में
मैं भूल जाऊँगा खुद के स्पृश
देह और मन की उम्र पारे की तरह
लोक के तापमान से चढ़ती रहेगी ऊपर नीचे
ऐसे विकट समय में
क्या तुम कह सकोगी मुझे ठीक इतना ही अपना
जितना आज कहती हो
कभी खुलकर कभी छिपकर
ये कोई सवाल नही है तुमसे
ये एक जवाब है
जो हम दोनों जानते है मगर
ये दुनिया नही जानती
जो हंसती है
रोती है
कुढ़ती है
चिढ़ती है
हमें तुम्हें यूं साथ देखकर।

©डॉ.अजित 

Thursday, December 17, 2015

दो बात

पहाड़  से मिलनें के लिए
ग्लेशियर होना पड़ता है
तुम नदी थी
इसलिए समन्दर का पता पूछती रही।
***
धरती शिकायत करती
तो किससे करती
सब चाँद सूरज के गवाह थे
आसमान छुट्टी पर था
हवा ने अफवाह उड़ा दी
और यूं धरती हुई बेदखल।

© डॉ.अजित

Sunday, December 13, 2015

नोक झोंक

चंद नोक-झोंक
____________

मैंने कहा
साफ साफ कहा करो
क्या बात बुरी लगी है
दर्शन की भाषा मत बोला करो
साफ़ बोलने से मसले जल्दी हल होते है
उलझतें नही है
जवाब में भी एक शब्द नही बोली वो
मैंने कहा अब क्या हुआ
दर्शन की भाषा समझतें नही हो
मौन का अनुवाद भी भूल गए हो
तुम तो ऐसे न थे, अब क्या फायदा
अब मैं चुप था।
***
कुछ दिन बातचीत बंद के बाद
अचानक मैंने फोन किया
तुमनें रिसीव भी किया
मगर हमारी कोई बात नही हुई
हम दोनों बोलते जरूर रहे
अपने अपने फोन से
हमारी आवाजें रास्ता भटक कर
लौट आई हम तक
रिश्तों यह 'ईको'
जानलेवा था बेहद।
***
बाल ज्यादा छोटे क्यों करा लिए
वो वाली शर्ट क्यों नही पहनी
इतने चुप क्यों रहते हो
पेंट की जेब में हाथ डालकर मर चला करो
तुम्हारी ये कुछ छोटी छोटी शिकायतें थी
जिन्हें दूर न करने का खेद रहा है मुझे
मगर कहा कभी नही
अगर कभी कह देता तो
तुम छोड़ देती टोकना
जो कभी नही चाहता था मैं।
***
आख़िरी बार तुम इस बात पर
नाराज़ थी मुझसे
बेहद लापरवाह हूँ मैं
जीता हूँ केवल खुद के लिए
हो जाता हूँ कई बार बेहद कड़वा
मैंने तुम्हें मना नही पाया बावजूद इसके
लापरवाह नही असावधान था मैं
खुद के लिए नही तुम्हारे लिए जीता था मैं
कड़वा मेरा लहज़ा था दिल नही।

© डॉ. अजित 

Saturday, December 12, 2015

नामकरण

कुछ पेड़ इस बात पर मनुष्य से खफा है
मनुष्य ने खोज लिया है उनका वनस्पतिक नाम
विज्ञान की गोष्ठियों और शोध पत्रों में
इन्ही नाम से सम्बोधित करता है
वैज्ञानिक बना मनुष्य
पेड़ जब आपस में बातें करतें है
वो रुआंसे हो जाते है
अपने ये अजीब ओ गरीब नाम सुनकर
वो शिकायत करते है मनुष्य के बुद्धिमान होने की
जिस बात पर मनुष्य को सबसे ज्यादा गर्व है
पेड़ पौधों की दुनिया में उसका कोई मूल्य नही
वो चाहते है यदि पुकारना  जरूरी है तो
मनुष्य उन्हें पुकारे
उनके असली नाम से
जिसे जानता है बच्चा-बच्चा
वैज्ञानिक नामकरण से खफा पेड़ एकदिन
मनुष्य से बातचीत कर देगा बंद
वो दिन पृथ्वी का सबसे त्रासद दिन होगा।

© डॉ.अजित

Tuesday, December 8, 2015

स्त्री मन

एक स्त्री के मन को
जानने और समझनें के दावें
उतने ही खोखलें है
जितना जीवन वो जानने समझनें के है
स्त्री जीवन की तरह विश्लेषण की नही
जीने की विषय वस्तु है
वस्तु शब्द पर खुद मुझे ऐतराज़ है
मगर शब्दकोश भी बौना है
वो नही बता पाया
आज तक स्त्री की सम्पूर्णता पर एक
प्रमाणिक शब्द
अनुमानों और प्रतिमानों से
बचना चाहिए
जब बात एक स्त्री की हो
क्योंकि
स्त्री धारणाओं में नही जीती
समर्पण उसका स्थाई सुख भी है
और दुःख भी
स्त्री को समझना
दरअसल खुद को समझना है
अनुराग की देहरी पर बैठ
आलम्बन की चक्की पिसते हुए
उसके चेहरे पर जो थकान दिखती है
वो थकान नही है दरअसल
वो उसकी देह पर मन की छाया है
जिनका सौंदर्यबोध कमजोर है
वो नही देख पातें
ऐसी थकान की ख़ूबसूरती
स्त्री का मन
आलम्बन नही स्वतंत्रता चाहता है
न जाने किस उत्साह में जिसे
आश्रय की अभिलाषा समझ लिया जाता है
धरती की तरह
स्त्री जनना जानती है उम्मीदें
इसलिए उम्मीदों के लगातार टूटने पर भी
नही छोड़ती वो अपना एक धर्म
प्रासंगिकता की बहस में
वो निकल जाती है अकेली बहुत दूर
क्योंकि
जब तुम विश्लेषण में रहते हो व्यस्त
कर रहे होते हो अपेक्षाओं का आरोपण
तब एक स्त्री
बीन रही होती है अधूरी स्मृतियों की लकड़ियाँ
जला रही होती है खुद को
ताकि आंच ताप और रोशनी में
नजर आ सके सब कुछ साफ़ साफ़
स्त्री सम्भावना को मरने नही देती
एक यही बात
न उसे जीने देती और न मरने देती
जब कोई करता है स्त्री के अस्तित्व पर भाष्य
देता है मनमुताबिक़ सलाह
स्त्री हंस पड़ती है
उसे प्रशंसा समझ
मुग्ध होने की नही सोचने की जरूरत है
एक यही काम है
जो शायद कोई नही करता।
© डॉ. अजित

Monday, December 7, 2015

वक्त रहतें

यदि वक्त रहते
मांग ली जाती कुछ माफियां
तो थोड़ी बेहतर हो सकती थी
ये दुनिया
यदि वक्त रहते
कर दिया जाता इजहार तो
अपनेपन के वृत्त का होता एक सीमित विस्तार
यदि वक्त रहते
बता दी जाती अपनी सीमाएँ
तो इतनी नही होती शिकायतें
वक्त रहते बहुत कुछ
किया जा सकता था
जो नही किया गया
इसलिए अफ़सोस की बही पीठ पर लादें
घूम रहें है हम
दर ब दर।
© डॉ.अजित


सवाल

उस आदमी से पूछिए
खो जाने का अर्थ
जो भीड़ में नितांत अकेला हो
उसी से पूछा जा सकता है
एकांत शोर और कोलाहल का महीन अंतर
पूछने की और भी कई बातें है
मसलन
हर रास्ता एक  चौराहे पर आकर
क्यों हो जाता है भरम का शिकार
बढ़ता कदम क्या सच में आगे बढ़ता है
या दूसरा कदम पीछे खिंचता है बार बार
धरती अपना बोझ किसके यहां कराती है दर्ज
आसमान के झुकनें की अधिकतम सीमा क्या है
यदि वह देखें तुम्हारी तरफ तो
यह भी जरूर पूछना कि
कुछ बीज क्यों निकल जातें है बांझ
बारिश क्यों छोड़ जाती है
हर बार हिस्सों में नमी
हवा किसके कहने पर बदलती है रुख
इतने सवालों के बीच
वह तुम्हारे एक भी सवाल का जवाब देगा
इस पर मुझे सन्देह है
इसलिए नही पूछता मैं
कभी कोई सवाल
किसी से भी
मगर तुम जरूर पूछना
अपने पूरे आत्म विश्वास के साथ।

© डॉ.अजित

Sunday, December 6, 2015

चुप

उन दिनों जब बेवजह चुप थी तुम
मौन का भाष्य कर रहा था मैं
चुप की बोली का अनुवाद करने के लिए
बना रहा था एक स्वतन्त्र शब्दकोश
अनुमानों को परख रहा था
समय की प्रयोगशाला में
तुम्हें कहे शब्दों को कर रहा था संग्रहित
स्मृतियों के संग्रहालय में
मन से मन दूरी नापने के लिए
दिल की दहलीज़ और मन की मुंडेर पर
स्थापित की थी दो अलग अलग वेधशालाएं
तुम्हारी हंसी को सूखा रहा था पुराने चावल की तरह
ताकि उसकी खुशबू से महक सके मन का उदास कोना
तुम्हारी मुस्कान को नाप रहा था इंच और दशमलव में
ताकि वहां हिस्सों में खड़े अपने पागलपन को देख सकूं
अपने सायास अनायास अपराधों को कर रहा था सूचीबद्ध
ताकि खुद की सफाई में दे सकूं कुछ ठोस दलील
स्पर्शों की तह में देख रहा था अपनत्व की नमी
बचा रहा था उन्हें संदेह की सिलवट से
जिन दिनों तुम बेवजह चुप थी उनदिनों
ठहर गई थी दुनिया
बदल गए थे ग्रहों उपग्रहों के परिक्रमा के चक्र और पथ
सूरज की तरफ तुम्हारी पीठ थी
चाँद को हथेली ढ़क दिया था तुमने
तारें धरती पर लेट देख रहे थे तुम्हारा चेहरा
उनकी काना फूसी देख दुखी था आकाश
एक तुम्हारी चुप ने
नदियों के किनारे बदल दिए थे
पहाड़ कराह रहे थे सर्वाइकल के दर्द से
जंगल में लग गई थी निषेधाज्ञा
कोई पत्ता नही करता था अब उसकी चुगली
पेड़ झुक कर बैठ गए थे नमाज़ पढ़ने
तुम बेवजह चुप थी
और मैं वजह तलाश रहा था हर जगह
मेरी ये दशा देख हवा मुझसे कहती
चुप की वजह नही चुप तोड़ने की विधि तलाशों
ये चुप तुम पर ही नही
पूरी सृष्टि पर भारी है
हवा की सलाह पर थोड़ी देर के लिए
चुप हो जाता था मैं।

© डॉ. अजित

Thursday, December 3, 2015

बातचीत

'सवाल ओ' जवाब वाया बातचीत'
__________________________

एक दिन मैंने पूछा
तुम्हारे जीवन का सबसे बड़ा दुःख क्या है
उसने कहा ज्ञात या अज्ञात
मैंने कहा अज्ञात
तब थोड़ी अनमनी होकर उसने कहा
तुम्हें पाना क्यों नही चाहती मैं !
***
एकदिन मैंने पूछा
तुम्हारे जीवन का सबसे बड़ा सुख क्या है
उसने कहा प्रकट या अप्रकट
मैंने अप्रकट
तब मुस्कुराते हुए उसनें कहा
बिना ख़ास कोशिश के तुम अचानक मिल गए।
***
उसनें अचानक एकदिन पूछा
तुम जिंदगी से क्या चाहते हो
मैंने कहा कुछ ख़ास नही
ये अच्छी बात है क्योंकि
खुद को बेहद आम समझती हूँ मैं।
***
उसनें एकदिन कहा
अच्छा एक बात बताओं
मेरा तुम्हारे जीवन में विकल्प हूँ या संकल्प
मैंने कहा इस तरह सोचा नही कभी
इस पर खुश होते हुए उसनें कहा
सोचना भी मत कभी
दोनों इंसान को कमजोर करते है
तुम्हें कमजोर देखना
मैं कभी नही चाहती।

© डॉ.अजित

Sunday, November 29, 2015

सजा

अचानक से छूट गए हाथ
स्पर्शों को याद करते है मुद्दत तक
कोई वजह नही तलाश पातें
अपनत्व की नमी में आई कमी की
सम्बन्धों की जलवायु को दोष भी नही दे पातें
विदा से अलविदा की यात्रा को देखते हुए
वो शुष्क हो जाते है
उनकी गति का दोलन बदल जाता है
वो ओढ़ लेते है एक अजनबीपन
अनायास जब दिल पर रखें जातें है ऐसे हाथ
वो देते है हमारे खिलाफ गवाही
बतातें है हमारी एकतरफा ज्यादती
जिसकी बिनाह पर दिल सुनाता है सजा
यादों की उम्रकैद में
रहो ताउम्र आधे-अधूरे।

©डॉ. अजित

Monday, November 23, 2015

बगावत

कुछ अलहदा से ख़्वाब थे वो
रोशनी के छूटे हुए कतरों के चश्मदीद गवाह
उनके माथे स्याह ठंडे थे
उनके लबो पर आह की नम खुश्की थी
दरख्तों के साये में उन्हें पनाह नही मिली थी
वो धूप की गोद से जबरदस्ती उतार दिए गए थे
दरिया के पास उनकी शिकायतों के मुकदमें थे
मगर वो खामोश बह रहा था
बिना किसी सुनवाई के
कुछ परिंदे मुखबिर बन गए थे अचानक
सपनों की तलाशी ली जा रही थी
ख़्वाबों की सरहदों पर
लम्हों में पिरोयी धड़कने जब बगावत कर बैठी
तब पता चला ये सुबह से पहली रात है
जहां अंधेरा चरागों को सुस्ताने की
नसीहत देने आया है
दुआ में हाथ उठे मगर लब खामोश रहें
सिलसिलों ने करवट ली तो
तुम्हें बहुत दूर पाया
इतनी दूर जहां से
खुली आँख से तुम्हें देखा नही जा सकता था
आँख मूँद कर तुम्हें देखनें की कोशिश की तो
इन्हीं ख़्वाबों की भूलभुलैय्या में खो गया
तुम्हें देखनें का मिराज़
अब तक का सबसे हसीं सदमा था।

© डॉ. अजित

Sunday, November 22, 2015

खत

लिखता हूँ रोज़ चंद अफ़साने
हकीकत की शक्ल में

लड़ता हूँ रोज़ एक लड़ाई
जज्बात और अक्ल में

कुछ अहसासों को रखता हूँ गिरवी
उम्मीद को लेता हूँ उधार
बांट देता हूँ सपनों को पुरज़ा-पुरज़ा

आदतों में बस गई है एक नमी
तुम्हारे ख्याल की
कोई रोशनी नही पहुँचती वहां तक
फिर भी दिल के कुछ कोने रोशन है
तुम्हारी यादों से

सिमट गई है मेरी दुनिया
तुझ से तुझ तक
हैरतजदाँ हूँ थोड़ा और थोड़ा बेचैन भी

तुम हो भी
और हो भी नही।

© डॉ. अजित

Saturday, November 21, 2015

मजबूरी

ख्यालों से निकलना गैरजरूरी समझता है
इश्क सच्चा हो तो मजबूरी भी समझता है

तन्हाई में रोकर भी क्या हुआ तुम्हें हासिल
वो आज भी तुम्हें पत्थरदिल समझता है

दिलों में फ़कत कुछ लम्हों का फांसला था
कमबख्त वो इसे भी मेरी दूरी समझता है

चलों बिछड़ जाए उसी मोड़ से हम दोनों
रास्ता भी मुसाफिर की मजबूरी समझता है
©डॉ.अजित

Thursday, November 19, 2015

आलाप

चंद कहा-सुनी
----
बेवजह एक दिन भड़कते हुए
उसनें कहा
तुम्हारे भाव बढ़ गए है आजकल
ठीक से जवाब भी नही देते
बात क्या है?
मैंने कहा
सच कह रही हो
आजकल इतने भाव बढ़ा रहा हूँ खुदके कि
तुम्हारे सिवाय कोई और खरीद न सके मुझे
फिर ठीक है,ये कहकर वो हंस पड़ी।
***
मैं उसदिन परेशान था किसी बात पर
और वो छेड़े जा रही थी मुझे
मेरी कथित प्रेमिकाओं के नाम पर
मैंने कहां हां ! मेरी कई प्रेमिकाएँ है
अब खुश हो
इस बात पर वो खुश नही थी पहली दफा
वो चाहती थी
मैं करूँ उसके सारे आरोप खारिज।
****
चाय पीते समय
मेरी गति अधिक थी
इस बात पर उसको रहता था
हमेशा ऐतराज़
झल्ला कर कहती वो
किस जल्दी में रहती हो
कौन सी ट्रेन छूट रही है तुम्हारी
मैं कहता चाय पीना और तुमसें बातें करना
एक साथ नही हो पाता मुझसे
वो हंस पड़ती और कहती
हो जाने दो फिर चाय ठंडी
कोई बात नही दूसरी मंगा लेंगे।
***
अचानक एकदिन
उसने बातचीत बन्द कर दी
मैंने वजह नही जाननी चाही
मुझे गैर जरूरी लगा ऐसा पूछना
उसका एसएमएस मिला एकदिन
इसलिए नही चाहती थी
किसी बुद्धिजीवी से प्रेम करना
मैं शर्मिंदा था
अपने कथित ज्ञान पर।

©डॉ.अजित




Wednesday, November 18, 2015

खेद

कंघी में उलझे पड़े थे कुछ बाल
एकदम से उपेक्षित
जिन्हें खींच कर फेंका जाना तय था
घर के सबसे छोटे दर्पण ने
छोड़ दी थी जगह
वो हिलता डुलता दिखाता था चेहरा
अलंकारिक श्रृंगार के सब साधन
अपने अंतिम पड़ाव पर थे
नही बची थी उनके रखरखाव की कोई
स्त्रियोंचित्त इच्छा
जीवन में कोई ज्ञात दुःख नही था उसके
मगर फिर भी वो
बेपरवाही से खर्च कर रही थी
अपनी एक-एक प्रिय चीज़
वो काजल से खिंचती थी कर्क रेख
ताकि भेद कर सके लोक और खुद के समय में
उसकी त्वचा के स्पर्श ऊब ढ़ो रहे थे
वो भूल जाती थी अक्सर
हेयर पिन, सुई धागा बटन और बिजली का बिल
उसकी हड़बड़ाहट साफ़ झलकती थी
बर्तन मांझते समय
उसके पास दूध के उबाल जैसा विस्मय था
और नमक के जैसा प्रेम
वो प्रार्थना के पलों में दिखती थी
सबसे निर्मल
मौन और चुप के मध्य उसने विकसित कर ली थी
अपनी एक विचित्र बोली
जिसका कोई शोर नही था
ना कोई उलाहना
वो थोड़ी व्यस्त थी
ज्यादा अस्त-व्यस्त
उसके समन्वय पर मुग्ध हुआ जा सकता था
जीवन के अमूर्त कौशल पर
वो बधाई की पात्र थी
उसकी मुस्कान में एक हलकी उदासी की दरार थी
जिसमें बहता था
समन्दर नदी की ओर
उसका हंसना
समय पर एक अहसान था
जिसके बोझ में वो घट रहा था रोज़ पल-पल
उसके पास न कोई सवाल था
न कोई जवाब
उसके पास कुछ अनुभव थे
जिनकी समीक्षा सम्भव न थी
उसे कहीं नही पहुंचना था
मगर वो रोज़ चल रही थी
एक नियत गति से
उसकी एकमात्र जवाबदेही खुद थी
इसलिए
उसकी वजह से कोई तकलीफ में नही था
वो खुद कहां थी
इसकी पड़ताल के लिए
अहम के गुरुत्वाकर्षण को तोड़
उपग्रह की भांति
पृथ्वी की कक्षा का
कम से कम एक चक्कर लगाना जरूरी था
वो अज्ञात थी
किसी मंत्र की तरह
वो ज्ञात थी किसी की शहर की तरह
ये सब बातें तब पता चली
जब वो उपस्थित थी
अपनी अनुपस्थिति के साथ
इस बात का किसी को खेद नही था
बस यह खेद की बात है।

©डॉ. अजित

Tuesday, November 17, 2015

प्रेम और दुःख

अज्ञेय कहते है दुःख व्यक्ति को मांझता है
केवल दुःख ही नही
प्रेम भी व्यक्ति को मांझता है
प्रेम करता हुआ व्यक्ति
देख सकता है चींटी के देह की पीड़ा
पहाड़ का बोझ
और तरल नदी का विवशता
प्रेम का दुःख
व्यक्ति को दोहरा मांझता है
वो देख सकता
अपने अंदर बैठी दो छाया एक साथ
प्रेम का सुख और प्रेम का दुःख
बाहर से भले ही अलग दिखे
अंदर से होते लगभग एक समान
दुःख की आंच में जब पिघल जाता है प्रेम
तब मन का एक हिस्सा जम जाता है
ग्लेशियर की तरह
शीत ताप के मध्य
स्मृतियों की जलवायु का सहारा ले
व्यक्ति तय करता है
अपने ग्रह पर अपनी स्थिति का ठीक ठीक आंकलन
किसी खगोलविज्ञानी की तरह
प्रेम में पड़ा व्यक्ति  एक साथ हो सकता है
विज्ञानवादी और भाग्यवादी
दुःख और सुख से इतर
प्रेम व्यक्ति का भर देता है आंतरिक निर्वात
बदल जाते है उसके गुरुत्वाकर्षण के केंद्र
प्रेम व्यक्ति को बदलता नही
बस रूपांतरित कर देता है जगह जगह से
इसलिए प्रेम का विस्मय हमेशा
व्यक्ति को बताता है
जीवन की अनिश्चिता के बारें में
दुःख की चमक भले ही स्थाई हो
मगर उस चमक को देखनें के लिए
प्रेम का दर्पण ही काम आता है
भले ही उस पर अवसाद की धूल चढ़ी हो
प्रेम किया हुआ व्यक्ति
हो पाता है एक सीमा तक ही क्रूर
खुद को समझनें और समझानें में
जितना मददगार प्रेम है
उतना कोई दूसरा मनोवैज्ञानिक परामर्शन
नही हो सकता है
प्रेम में जीता हुआ व्यक्ति हमेशा करता है
प्रेम में हारे हुए व्यक्ति का सम्मान
मनुष्य में बची रहे मनुष्यता
इसके लिए दुःख के अलावा
प्रेम एक अनिवार्य चीज है
जिसे जीना और बचाना दोनों जरूरी है।

© डॉ. अजित

प्रेम

अचानक उसनें कहा
प्रेम बड़ा है या जीवन ये बताओं
मैंने कहा
जीवन
इस पर नाराज़ हो वो बोली
फिर प्रेम क्या है तुम्हारे लिए
मैंने कहा जीवन
फिर बस वो मुस्कुरा कर रह गई।
***
चलतें चलतें उसने कहा एकदिन
तुम्हें सबसे प्यारा कौन है दुनिया में
मैंने कहा मैं खुद
बड़े आत्ममुग्ध हो
ये ठीक बात नही वो बोली
खुद से प्यार करना
तुम्हें प्यार करने की जरूरी योग्यता है
मैंने कहा
फिर वो हंस पड़ी बस
प्यार का ये सबसे संक्षिप्त व्याख्यान था
हमारे बीच।
***
फिर एक दिन उसनें
फोन पर पूछा
कहाँ रहते हो आजकल
कुछ खबर नही है
मैंने कहा इसी फोन की फोनबुक में
जिससे बात कर रही हो तुम
वो खिलखिलाकर हंस पड़ी इस बात पर
मिलतें भी रहा करो कभी कभी
क्योंकि
तुम्हारा नम्बर अक्सर
फोन से डिलीट करती रहती हूँ मैं।
***
मैंने कहा एकदिन
सवाल बहुत करती हो तुम
इतनी शंकाओं के मध्य
कितना बेचारा लगता है हमारा रिश्ता
उसनें कहा
समझा करो ये शंकाए नही है
बल्कि ये सब जवाब है
जो मुझे पता है
बस तुम्हारे मुंह से सुनना
अच्छा लगता है ये सब।

©डॉ.अजित

Friday, November 6, 2015

साधना

पराजित देवता के आशीर्वाद से
उसनें प्रेम किया
त्याज्य ऋषियों ने उसे दीक्षित किया
मंत्र को उसनें गीत की तरह पढ़ा
उसके यज्ञ की समिधा
जंगल की सबसे उपेक्षित वनस्पतियां थी
उसकी आहूतियां बिलकुल शास्त्रीय नही थी
उसके आह्वहान में थोड़ा रोष करुणा के साथ था
उसके विसर्जन के सूत्र अप्रकाशित थे
इतनी विषमताओं के बावजूद
वो आश्वस्त था
बहुत सी बातों को लेकर
यह बात अचरज भरी थी
उन लोगो के लिए
जो प्रेम और जीवन को
आदर्श स्थिति में जीने के आदी थे।

© डॉ.अजित


Thursday, November 5, 2015

निर्वात

शब्दों की आवृत्तियां
समय के सबसे छोटे हिस्से में
बदल रही थी
शब्दों को इतना
मजबूर कभी नही देखा था
इधर मैं कुछ कहता
उधर उसका अर्थ रूपांतरित हो जाता
तटस्थता का विस्मय
अर्थ का निर्वात नही भर पाता था
ध्वनियों में इतनी यात्राएं समानांतर जीवित थी कि
अक्सर
यह तय करना मुश्किल था
कौन किसके साथ था वहां।
© डॉ.अजित

Wednesday, October 21, 2015

फर्क

उसनें कहा
तुम खुश होना भूल गए हो
तुम्हारी ध्वनियां अनुशासित है बहुत
बेवजह की एक चीज है तुम्हारे पास
वो है उदासी
तुम प्रशंसा की खुराक पर जीवित हो
मगर उसका भी उपयोग नही जानते
विलम्ब और अनिच्छा से मध्य सो रहे हो
न जाने कब से
मैंने कहा सब का सब सच कहा तुमनें
फिर वो उखड़ गई
मेरे आत्म समपर्ण पर और बोली
सच कहूँ या झूठ
तुम्हें क्या फर्क पड़ता है
मैंने कहा फर्क पड़े न पड़े
इस बहाने तुम्हारी अरुचि पढ़ लेता हूँ मैं
और खुश हो जाता हूँ
अपनें ऐसा होने पर
वैसे एक बात यह भी है
हम एक दुसरे को बदलनें के लिए नही
एक दुसरे के लिए जीने के लिए बनें हैं।

© डॉ. अजित 

Sunday, October 18, 2015

जोखिम

सन्नाटें के मध्य
चुपचाप पड़ी है कुछ ध्वनियां

एक रूमानी गीत के मध्य
उपस्थित है बेसबब बिछड़ने का सबब

रात और दिन
सुबह और शाम के मध्य
जिन्दा है समय का मिला-जुला प्रभाव

ऐसे में यह तय करना
सबसे मुश्किल था
कौन निकट है कौन दूर

फिर भी
मैं सतत् चलता रहा एक ही दिशा में अनवरत्

उम्मीद थी पहूंच जाऊँगा तुम तक एकदिन

उम्मीद को परखना
जीवन का सबसे बड़ा ज्ञात जोखिम था।

© डॉ.अजित

दफ्तरी प्रेम

किसी पुरानी फाइल में
बसी नमी सा था मेरा प्रेम
जिसकी गोद में
हाशिए पर दर्ज थी
टिप्पणियाँ संस्तुस्तियाँ अग्रसारण
और अस्वीकृतियाँ
मेरा अस्तित्व बचा था
एक अनुपयोगी दस्तावेज़ की शक्ल में
जिसे इन्तजार था
अवशिष्ट निस्तारण की एक
आधिकारिक निविदा का
मन के सरकारी दफ्तर में
एक निर्जन कोने में पड़े करना था
मुझे एक उपयुक्त समय का इन्तजार
ताकि अनिच्छाओं के टैग से निकाल
कर दिया जाए मुझे
आग और हवा के हवाले।
***
एक परिपक्व प्रेम सम्बन्ध में
मेरे हिस्से आई थी
कुछ सीएल कुछ ईएल
मैं जी रहा था प्रेम
पूर्व स्वीकृत डीएल की तरह
अवकाश के हिस्सों में
प्रेम का विस्तार उगा था
बेहद ऊबड़ खाबड़
वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर
अफ़सोस की शक्ल में
मेरी यादें काउंट हुई
उसके बाद से
मैं एम एल पर था
निरन्तर...!
***
क्यों न आपके खिलाफ
अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाए की
तर्ज़ पर एकदिन मुझे मिला था नोटिस
क्यों न आपको विस्मृत कर
आगे बढ़ा जाए
मैं जवाब में व्याख्या पत्र बना ही रहा था कि
एकपक्षीय निर्णय लेते हुए
कर दिया गया मुझे बर्खास्त
खेद इस बात का है
इसके बाद किसी भी न्यायालय ने
नही की स्वीकार
मेरी दया याचिका।
***
मेरे उत्साह पर
रख दिया तुमनें एक दिन
अपने ज्ञान का पेपरवेट
मैं फड़फड़ा नही
बल्कि अस्त व्यस्त घूम रहा था
तुम्हारी दुनिया में
कागज़ की तरह दब गया मैं
तुम खुश थी
खुद के अनुशासन पर।
***
डस्टबिन के तल
पर विश्राम कर रही थी
मेरी मुलाकात की कुछ अर्जियां
खिन्नता से तुमनें
जैसे ही खाली करने का आदेश दिया
सेवक को
मैं समझ गया
असली निर्वाण का
समय आ गया है अब
उन अर्जियों को जला
ताप रहे थे दफ्तर के लोग
मैं धुआं बन उड़ रहा था
तुम्हारे रोशनदान की ओर
मोह की माया इसी को कहते शायद।

© डॉ.अजित

(प्रेम में दफ्तरी हो जाना)

Friday, October 16, 2015

आदमी

दिखनें में होता है
बेहद सामान्य
या फिर औसत से थोड़ा बेहतर
वाग्मिता में निपुण
और औचित्य सिद्ध में दीक्षित
अंदर से मरा हुआ आदमी
मौत एक ही बार नही आती
यह उपस्थित रहती है टुकड़ो में भी
अंदर से मरे हुए आदमी को
कुछ ही जिन्दा लोग पहचान पातें है
ये शिनाख्त करने का कौशल
लगभग जीवनपर्यन्त उपलब्धि जैसा है
और उनके जिन्दा होने का प्रमाण भी
अंदर से मरा हुआ आदमी
कम हंसता है
वो जानता है हंसी की कीमत
कम बोलता है
उसे होता है मृत्यु के सार्वजनिक होने का भय
वो तलाशता है एकांत
ताकि अंदर की मौत को बाहर विदा कर सके
मगर हर बार
मौत लौट कर आती है उस तक चुपचाप
अंदर से मरे हुए आदमी को
अनिच्छा से होता है प्रेम
वो करता जाता है विलम्बित
पंचांग के तमाम शुभ महूर्तों को
अंदर से मरा हुआ आदमी
जिन्दा लोगो के बीच सबसे खतरनाक जीव है
क्योंकि वो बार बार याद दिलाता है
जिन्दा और मरे हुए का फर्क
जिंदा रहने के लिए
इस फर्क को भूलना अनिवार्य योग्यता है
इसलिए अंदर से मरा हुआ आदमी
बाहर जिन्दा रहता है
ताकि जिंदा रहें बाहर के लोग।

© डॉ.अजित


Wednesday, October 14, 2015

एक डिप्रेश सी शाम में
याद आता है
सबसे उदास गीत
जिसके एक अन्तरे में
तुम्हारा जिक्र मिलता है
उसी जिक्र के सहारे
मैं लौट आता हूँ
खुद के गैर जरूरी
होने की वसीयत पर
अफ़सोस
वो अमल करने लायक
तभी होगी
जब रफ्ता रफ्ता खतम हो जाऊँगा मैं
जैसे खतम हो जाती
नए कलम में पुरानी स्याही।
©डॉ. अजित

Thursday, October 8, 2015

भविष्यवाणी

तुम्हारा विस्मय समझता हूँ
तुम्हें अचरज है
मेरे तुम पर अटक जाने पर
पात्र अपात्र की धूरी को भूल
तुम्हारे केंद्र की परिक्रमा करने पर
तुम थोड़ी सशंकित भी हो
मगर एक बात है
जो तुम भूल रही हो
मैं अपनी ही कक्षा के चक्कर लगा रहा हूँ
उपग्रह की भाँति
एक दिन नष्ट हो जाऊँगा
टकरा कर किसी धूमकेतु से
इसलिए आश्वस्त रहो
मुझसे कोई खतरा नही है तुम्हें
अवशेष तक को
तुम्हारी भूमि न मिलेगी
इसकी प्रत्याभूति देता हूँ मैं
मेरी भूमिका फिलहाल
अंतर्मन को कुछ छूटे चित्र भेजनें भर की है
ताकि मन के मौसम की जीते जी
कुछ सटीक भविष्यवाणी की जा सके
जिसे कुछ लोग
मेरी कविता भी समझतें है।
© डॉ.अजित 

Wednesday, October 7, 2015

स्मृतियां

एक दिन केवल बच जाएंगे
स्मृतियों के भोजपत्र
जिन पर यंत्र की भाषा में लिखी होंगी
तुम्हारी हितकामनाएं
मैं भूल चूका हूँगा तब तक
उसकी प्राण प्रतिष्ठा के बीज मंत्र
उन्हें उड़ा देना होगा हवा में या फिर
बहा देना होगा बहते जल में
स्मृतियों की ऐसी गति देख
समय हंसेगा मुझ पर
और मैं खड़ा रहूंगा
थोड़ा निष्प्रभ थोड़ा अवाक्
मैं उस दिन की प्रतिक्षा में नही हूँ
इसलिए मुझमें उत्साह की मात्रा
कुछ प्रतिशत कम नजर आती है
स्मृतियों के औचित्य सिद्ध करने के
सूत्र नही मिलते किसी किताब में
ज्ञात अज्ञात के मध्य
ये रेंगती है अपने हिसाब से
स्मृतियों का उपयोग करना नही आता मुझे
इसलिए भी दुविधा में हूँ
तुम्हारे बिना
तुम्हारी स्मृतियों का क्या करूँगा मैं।

© डॉ. अजित

Monday, October 5, 2015

प्रेम का विमर्श

उसनें सच्चाई से कहा एक दिन
प्रेम नही करती तुमसे मैं
मैंने धन्यवाद कहा
प्रेम करने से बचता नही है
प्रेम को जीना पड़ता है
अपने अपने हिसाब से।
***
तुम भी मुझसे प्रेम नही करते
मेरे बारें ये उसकी आम राय थी
मैंने कहा हां नही करता तुमसे प्रेम
मैं वो हर काम करने से बचता हूँ
जिसमें मूलयांकन अनिवार्य हो
मैं जीता हूँ बस तुम्हें सोचते हुए
बिना शर्त बन्धन मुक्त।
***
प्रेम में उड़ान भूल जाते है पंछी
भटक जाते है वो नीड़ से
यह कहते हुए
तुम उपदेशक की भूमिका में थी
मैंने कहा
भटकना भी जरूरी होता है प्रेम में
बंधकर नही किया जाता कभी प्रेम
भटकन प्रेम का शाश्वत सच है।
***
प्रेम बंधन में बांधता है या मुक्त करता है
अचानक तुमनें ये दार्शनिक प्रश्न किया
प्रेम न बांधता है
न मुक्त ही करता है
प्रेम विस्तारित करता है
हमारे अस्तित्व का सच
सच प्रिय अप्रिय हो सकता है
फिर तुमनें प्रतिप्रश्न नही किया।

© डॉ. अजित

Tuesday, September 29, 2015

हमदर्द

मेरे हमदर्द होने का वो यूं पता देते थे
दर्द जहां था बस वहीं से दबा देते थे

जमानतें मांगता था वो दुनिया भर की
आदतन हम अपना शेर सुना देते थे

तड़फने का एक मंसब इतना हसीं था
रोते हुए भी बारहा हम मुस्कुरा देते थे

बिछड़ कर उनसे हुआ ये मालूम हमें
शिकारी भी कभी परिंदे उड़ा देते थे

रात का सफर एक मुसलसल किस्सा था
रोज़ सुबह ख़्वाबों की ख़ाक उड़ा देते थे

© डॉ.अजित

Sunday, September 27, 2015

सम्भालना मुझे...

संभालना मुझे उस नाजुक दौर में
जब भूल जाऊं मैं
धरती और आसमान का फर्क
बातें करूँ बहकी बहकी
हो सकता हूँ मैं बेहद सतही भी
जब कभी अनायास वाणी से
हिंसा पर उतर आऊं
होता जाऊं क्रूर और कड़वा
संभाल लेना मुझे
उस नाजुक दौर में
जब तुम्हें खोने के मेरे पास
हजार बहाने हो
और तुम्हें सम्भाल कर रखने का
कौशल हो गया हो समाप्त
अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद
मुझे आश्वस्ति है
तुम सम्भाल लोगी मुझे
उस नाजुक दौर में
ठीक अपनी तरह ।

© डॉ. अजित

प्रतिक्षा

तुम्हारी प्रतिक्षा में
मैंने मृत्यु स्थगित कर रखी है
शब्दों को अर्थ के घर
सुला आया हूँ
घर का सबसे उपेक्षित कोना
साफ किया है तुम्हारे लिए
नही चाहता जब तुम आओ
हवा को भी इसी खबर लगे
तुम्हारी प्रतिक्षा में
प्रार्थना को बांध दिया है
अनुराग की दहलीज़ पर
और खुद खड़ा हूँ
धरती से कुछ दशमलव ऊपर
तुम्हारी प्रतिक्षा में
व्याकुल या आतुर नही हूँ
बस मैं ठहर गया हूँ
समय के एक अधूरे समकोण पर
जब तुम आओगी
उस क्षण की कल्पना में
धकेल रहा हूँ अवसाद को सदियों पीछे
देख रहा हूँ एक युग आगे
भटक रहा हूँ आवारा दर ब दर
मेरे पास आश्वस्ति की बांसुरी है
जिस पर बजा रहा हूँ एक उदास धुन
यह सोचते हुए
एक बार रास्ता भूल भी गई तो भी
इस धुन के सहारे मुझे तक पहुँच जाओगी तुम
तुम्हारी प्रतिक्षा में
खुद को प्रतिक्षारत रख
मैं समय को साध रहा हूँ
ताकि तुमसे ठीक वैसा ही मिलूँ
जैसा कभी मिला था पहली बार।

© डॉ. अजित

Wednesday, September 23, 2015

नियति का राजपत्र

उन दिनों जब तुम मेरे लिए
खुद से खूबसूरत और मेरी हमउम्र
प्रेमिका तलाश रही थी
तुम्हें व्यस्त देख
मैं निकल आया था बहुत दूर
तुम्हारे उत्साह में कंकर मार
मन की तरल सतह पर
वलय नही बनाना चाहता था
इसलिए मैंने स्मृति में मार्ग को नही रखा
मैंने रास्ते में देखे कुछ बेजान पौधे
धूल के कुछ छोटे पहाड़
और एक आधी अधूरी पगडंडी
उन दिनों
तुम्हारे सुझाए विकल्पों पर
मैं केवल मुस्कुरा सकता था
मगर तुम मुझे प्रेम में
हंसते हुए देखने की जिद में थी
इसलिए भी मैं निकल आया था
चुपचाप
सम्भव है तुम्हें लगा हो यह पलायन
या फिर मेरी पुरुषोचित्त कायरता
अधूरी पगडंडी पर चलता हुआ
आ गया हूँ उस दिशा में
जहां से मेरी ध्वनि समाप्त होती है अब
तुम्हारे विकल्पों को अनाथ छोड़ने पर
मैं थोड़ा सा शर्मिंदा भी हूँ
दरअसल
तुम और तुम्हारे विकल्प के मध्य
चुनने की सुविधा तुमनें दी नही थी
और मैं खुद समय का एक विकल्प था
मेरा निकलना तय था
क्योंकि ठहरने का एक अर्थ
तुम्हें खोना था
नियति के राजपत्र पर
यह बात प्रकाशित की थी
मैंने,तुमनें और समय ने
एक साथ मिलकर
किसी षड्यंत्र की तरह।

© डॉ. अजित


Tuesday, September 22, 2015

उदास गीत

कुछ लोग मुझसे छूट रहें है
कुछ लोगो से मैं छूट रहा हूँ
ऐसा नही हमारी पकड़ ढ़ीली है
दरअसल
हमारे हथेलियों में सन्देह का पसीना है
जिसकी नमी से स्पर्श खिसक रहें इंच भर
धरती के गुरुत्वाकर्षण के उलट
बदल रहें है हमारे केंद्र
एक दिन वो भी आएगा
जब सूरज निकलेगा एकदम अकेला
योजनाओं का साक्षी नही बनना पड़ेगा उसे
चांदनी के पास नही होगा एक चुस्त तलबगार
धरती उस दिन होगी सबसे अकेली होगी
छूटे हुए लोगो के लिए
अनजानी हो जाएगी हर चीज
जिसमें मैं भी शामिल हूँ
मैं नदी झरनें और पहाड़ को
तब सुनाऊंगा एक उदास गीत
जिसके मुखड़े को सुन बारिश हो जाएगी
और भाप बन उड़ने लगेंगी यादें
स्मृतियों के जंगल से।

© डॉ. अजित

Thursday, September 17, 2015

इन्तजार की ऊब

इन्तजार की ऊब में डूबे
किसी शख्स से मिलें कभी आप
उसकी घड़ी का समय
मिनट पहले बताती है
घंटे बाद में
इन्तजार की आश्वस्ति
खुद को समझाने की बढ़िया युक्ति है
जो अटकी रहती है
किसी के होने
और न होने के बीच
इन्तजार की ऊब से पुते चेहरे
खो देते है शिल्प की ख़ूबसूरती
व्यक्त अव्यक्त के समानांतर
वो जीते है कयासों से भरी दुनिया
कभी समय के सापेक्ष
कभी समय के निरपेक्ष।

© डॉ.अजित 

Tuesday, September 8, 2015

जन्मदिन पर

लौटा रहा हूँ
तमाम यादें किस्सें और बेवकूफियां
भेज रहा हूँ
खत लिबास और रोशनी
खरीद रहा हूँ एक मुठ्ठी एकांत
सौंप रहा हूँ
तुम्हें तुम्हारे हिस्से का अवसाद
कह रहा हूँ
स्थगित धन्यवाद और विलम्बित क्षमायाचना
आरम्भ कर रहा हूँ
एक नया अंत
मध्यांतर की शक्ल में
दे रहा हूँ
अवांछित शुभकामनाएं
मांग रहा हूँ
राग में दबी पवित्र कामनाएँ  वापिस

मात्र इतना ही उल्लास हर्ष उत्सव और विज्ञापन
बचा है मेरे पास
आज खुद के जन्मदिन पर।

© डॉ. अजित

सम्वाद

एक बोझिल
बातचीत में
जितनी दफा
तुमनें लबों पर ज़बां फेरी
बस उतनी ही बार लगा

मेरी बातों में थी थोड़ी बहुत गुणवत्ता।
***
तुम्हारी अनुपस्थिति में
एक फूल खिला देखा
बस देख ही पाया
उसे छूने का साहस नही था मेरे पास
तुम्हारी अनुपस्थिति में।
***
अस्तित्व मेरे और
मेरी छाया के मध्य खड़ा था
निरुत्तर
प्रश्न एक तरफा थे
उत्तर का कोई मार्ग नही था

मैं हंस सकता था
बिना आँख के, थोड़ा प्रकाश थोड़ा अँधेरे में।
***
मैंने माफी मांगी
उसे विनम्रता में कमजोरी नजर आई
मैंने क्रोध किया
उसे इसमें भी मेरी कमजोरी नजर आई
मैं मुस्कुराया
उसे यह कूटनीतिक लगी
मैं हंसा
उसे यह नकली लगी
मैं जब चुप हो गया
उसे लगा मौन में हूँ मैं
किसी साधना के निमित्त।
© डॉ.अजित

Sunday, August 30, 2015

यार

इस कदर बीमार न थे हम
कभी यारों के यार थे हम

तंज लहजे में शामिल है अब
था इक वक्त गुलबहार थे हम

उसकी उदासी के लम्हों में
पतझड़ में भी बहार थे हम

सफर पर निकले जिस दिन
जल्दबाजी में तैयार थे हम

दुश्मन आज हुआ है जो
कल तक उसके यार थे हम

© डॉ. अजित



Tuesday, August 25, 2015

लोकप्रियता

फिर भी
जितनी लोकप्रियता होनी चाहिए थी
उतनी नही थी मेरे पास
यह मेरे जीवन का स्थाई खेद था

मेरे पास एक कच्चा शिल्प था
जो पढ़ने में आसान था
समझने में तो और भी आसान

मेरी बातें रोजमर्रा की बतकही थी
उनमें शास्त्रीयता का था नितांत ही अभाव
दर्शन की जटिलता नही थी उनमें
मन का बिखरा हुआ मनोविज्ञान कहता था मैं

अधूरापन स्थाई भाव था
जो आकर बैठ गया था
मेरी कलम की पीठ पर

कुछ दोस्तों का मत था
एक ख़ास जगह जाकर
थोड़ा अटक थोड़ा भटक गया हूँ मैं

पुनरावृत्ति की शिकार थी मेरी सम्वेदनाएं

मैं किस लिए कहां था
नही बता सकता था किसी साक्षात्कार में

अरुचि और एकालाप के मध्य खींच कर वृत्त
डमरू बजाता था मैं
मेरी कविता इतनी निजी किस्म की थी
कुछ ही लोग 'मैं' को तोड़ जी पाते थे उसका दशमांश

मैं लिख रहा था भूत
वर्तमान की शक्ल में
मैं जी रहा था भविष्य
अतीत की दहलीज़ में
मेरी कोशिसें थी बेहद अस्त व्यस्त और अनियोजित

शायद, तभी संदिग्ध थी मेरी लोकप्रियता।

© डॉ.अजित



Monday, August 24, 2015

मांग पत्र

हमनें बिछड़ते वक्त
कुछ भावुक वायदे किए थे

धुल गए वो धूप की बारिश में

अब वायदों के आकार बच गए है
जैसे चाय के कप की नीचे बच जाता है एक वृत्त
चाय के बाद जितना अप्रासंगिक हो चला है
अब बतकही से हरा भरा वक्त

हमनें बिछड़ते वक्त
कुछ स्पर्श दिए थे उधार

जिनके ब्याज़ से
आज तक चल रहा है
दाल रोटी नमक

मिलने बिछडनें के मांग पत्र
कोई मूल्य नही बचा है

पता नही है यह सम्बन्धों का
अर्थशास्त्र है या
मनोविज्ञान।

©डॉ.अजित 

Sunday, August 16, 2015

उसकी बातें

उसकी बातें: किसकी बातें
--------------------------

उस पर सबसे ज्यादा
कोफ़्त मुझे तब होती
जब वो किसी शब्द/बात का अर्थ मुझसे पूछती
फिर गूगल भी जब उसी से मिलता जुलता जवाब देता
तो बड़े उत्साह से मुझे वो बात बताती
उसका शोध
जब अविश्वास की उपकल्पना से गुजरता
तब निसंदेह स्माईली के मेरे जवाब के बावजूद
बहुत खराब लगता था मुझे।
***
उस पर सबसे
ज्यादा प्यार मुझे तब घुमड़ता
जब वो मेरे खराब मूड की परवाह किए बिना
आदतन पूछती
आज क्या खाया है लंच में
ब्रेकफास्ट किया की नही।
***
उस पर सबसे ज्यादा गुस्सा
तब आता था
जब उसनें सीख ली समझदारी
और छिपाने लगे अपने दुःख।
***
उस पर सबसे ज्यादा
विश्वास इसलिए भी था
वो खुद से ज्यादा
दुसरे के ठगे जाने की करती थी परवाह
हर बार, हमेशा।
***
उस पर सबसे
कम बातें हुई
और वो सबसे ज्यादा बचती रही
मेरे अंदर।

© डॉ.अजित


Thursday, August 13, 2015

सरनेम

जब मैं कहता हूँ
मैं भी लिखता हूँ कविताएँ
एक दिलचस्प बातचीत में भी
ख्यात कवि की
अरुचि चरम् पर पहूंच जाती है
कवि चाहता है
एकालाप
कभी उसके
कभी उसकी कविता के बारें में
सवाल यह भी बड़ा है
कविता मेरी या उसकी
कैसे हो सकती है
कविता तो बस कविता है
हाँ कुछ कविता
नाम के सहारे तैर जाती है
लूट लेती है समीक्षकों का मत
कुछ कविताएँ
भोगती है अपने हिस्से का निर्वासन
कविता का वर्णवाद
कम खतरनाक चीज़ नही है
कविता में आरक्षण जैसी सुविधा भी नही
फिर भी हाशिए के लोगो की
कच्चें कवियों की
कविता जिन्दा है
ठीक ठाक पढ़ी भी जा रही है
इस बात पर
थोड़ा खुश जरूर हुआ जा सकता है
मगर थोड़ा ही
क्योंकि आज भी ख्यात कवि की
कविता से ज्यादा कवि के सरनेम में
दिलचस्पी है।

© डॉ. अजित

Monday, August 3, 2015

अबोला


जिन दिनों तुमसे
बातचीत बंद थी बेवजह
उन दिनों
आसमान का रंग हो गया था सफेद
धरती हो गई थी काली
हवा का वजन कुछ ग्राम बढ़ गया था
नदी समुन्द्र तल से नीचे बह रही थी
पहाड़ अनमना हो बैठ गया था ऊकडू
जंगल हो गए थे समझदार
खरपतवार बन गए थे सलाहकार
झरने बंट गए थे हिस्सों में
पत्थरों के पास थे नसीहत के राजपत्र
उनदिनों
बादल हो गए थे चुपचाप
बूंदे बढ़ा रही थी ताप
रास्तों ने मिलकर तय कर लिए थे भरम
जिन दिनों तुमसे बातचीत बंद थी
उन दिनों
सपनों की फ़िल्म एक्स रे की माफिक
चांदनी में देखता तो
चाँद में साफ़ नजर आता था
बाल भर अविश्वास का फ्रेक्चर
तारें देते थे सांत्वना वक्त बदलनें की
उन्ही दिनों मैंने जाना
बातचीत कितनी जरूरी चीज़ थी
मेरे जीवन की
इसी बातचीत के सहारे
मैं धकेल सकता था दुःख को सैकड़ो मील दूर
स्थगित कर सकता था अवसाद का अध्यादेश
लड़ सकता था खुद से एक बेहतर युद्ध
मुक्त हो सकता था हार और जीत से
बता सकता था खुद की कमजोरियों का द्रव्यमान
उम्मीद को पी सकता था ओक भर
ताकि बचा रहे एक बेहतर कल
दरअसल
बातचीत का बेवजह बंद हो जाना
उतना अप्रत्याशित नही था
जितना अप्रत्याशित था
इस बात का इतना लम्बा खींच जाना।

©डॉ.अजित

एक दिन

उस दिन मैने दुनिया के
सबसे बड़े सर्च इंजन को
सबसे नकारा घोषित कर दिया
जिस दिन वो तुम्हें खोजनें में असफल रहा
ठीक उसी दिन मैंने
मोबाइल नेटवर्क को भी अपने जीवन में
सबसे अनुपयोगी वस्तु पाया
जब मेरे फोन में तुम्हारी खनकती आवाज़ ने
आने से इनकार कर दिया
इसी दिन मैंने
खुद को याददाश्त को खारिज किया
क्योंकि वो तुम्हारी अच्छाई
याद नही दिला पा रही थी
महज एक दिन में
फोन इंटनेट और याददाश्त
मेरे जीवन की सबसे
निष्प्रयोज्य चीज़ बन गई
इनदिनों जब तुम नही हो
मैं सोचता हूँ उस दिन के बारें में
जिस दिन के बाद
तुम, तुम न रही
और मैं भी शायद मैं नही रहा हूँ।

© डॉ. अजित 

ज्ञात अज्ञात

सम्बंधो के पुनर्पाठ में
बच जाते है कुछ विकल्प
जिसके भरोसे रच लेते है
एकांत का संसार
छूटे हुए सिरों की परवाह भी
छूट जाती है धीरे धीरे
जैसे नदी भूल जाती है
ठोस बर्फ से तरल पानी बनना
सम्बन्धों में तृप्ति सबसे बड़ी असुविधा है
ज्ञात सबसे बड़ी बाधा
सतत् बचना जरूरी होता है
कुछ अज्ञात कुछ अनकहा
तभी बच पाता है
समबन्धों का भूगोल
विश्वास के झरनें सूख जाते है जब
तब न पत्थर में शिल्प दिखता है
न गहराई की लिपि समझ आती है
सम्बन्ध एक ख़ास किस्म की जटिलता बुनतें है
हम सरलता से समझना भी चाहें तो भी
नही जान पाते अपनी चाह का मनोविज्ञान
सब कुछ ठीक होना
हमेशा सब कुछ ठीक होना नही होता है
कभी कभी विश्वास शंका और मान्यताओं के जंगल में
निपट अकेले पड़ जाते है सम्बन्ध
मनुष्य की सीमा कर देती है
उसको सबसे अकेला
एक अच्छी खासी भीड़ के बीच।

© डॉ.अजित

Friday, July 31, 2015

बातें

मैंने एक दिन उससे कहा
यू डिजर्व बेस्ट
वो इस बिन मांगी सलाह पर हैरान थी
फिर दार्शनिक मुद्रा में बोली
बेटर या बेस्ट कुछ होता ही नही
फिर क्या होता
मैंने पूछा
उसने कहा जिंदगी का ज्यादा ग्रामर नही पढ़ा मैंने
बस इतना पता है
क्या तो कोई जिंदगी में कुछ होता है
या फिर कुछ होता ही नही
अब मैं चुप था।
***
अचानक एकदिन उसनें पूछा
तुम्हारी आँखों में प्यार नही दिखा कभी
ये प्यार छिपाना कहां से सीखा
मैंने कहा तुम्हारी बातों से
फिर पूरे ढाई दिन उसनें बात नही की मुझसे
मेरी शुष्क आँखें इस प्यार को जरूर देख सकती थी
वो भी मीलों दूर।
***
कभी कभी हम एक दूसरे से
अजनबी की तरह पेश आतेे
हो जाते थे बेहद औपचारिक
दुआ सलाम तक हो जाती थी बंद
बस एक बात बचा लेती थी
रिश्तों की ख़ूबसूरती
तमाम अरुचियों असहमतियों के बावजूद
कभी भी अविश्वास नही था हमारे बीच।
***
एकदिन उसनें पूछा
एक आसान सवाल का जवाब दो
प्यार जिंदगी है या
जिंदगी प्यार है
मैं जवाब सोच ही रहा था
अचानक वो खिलखिलाकर हंस पड़ी
इतना सोचने वालों के लिए
न प्यार है न जिंदगी है
फिर क्या है मैंने नाराज़ होते हुए कहा
सोचकर बताऊंगी
यह कहकर वो फिर हंस पड़ी।
***
© डॉ.अजित

Monday, July 27, 2015

दरख़्त

कुछ दरख्तों के साए में
छांव के साथ
नमी भी मिलती है
छनकर आती धूप का
बढ़ा होता है तापमान
कुछ घनें दरख्त
इतनें खामोश किस्म के होते है
उन्हें नही बोल पातें हम
सुप्रभात या शुभ रात्रि
इन दरख्तों की पत्तियां होती है
बेहद अनुशासित
वो हवा को भी घूमा कर बना देती
थोड़ी भारी हवा
इन दरख्तों को छूने का साहस
बमुश्किल जुट पाता हैं
ये खड़े है बरसों से एक जगह
यह देखकर बस एक आश्वस्ति मिलती है
जिसके सहारें
इन दरख्तों को हम घोषित करते है
अपना सबसे परिपक्व और समझदार मित्र
आश्वस्ति जड़ता का चयन करती है
और गम्भीरता रहस्य का
दरख्तों के बीच जीतें आदमी
कभी कभी दरख्त लगने लगते है
और कभी कभी दरख्त आदमी
ये दरख्त हमारे साथ रहते हुए भी
हमसे इतने ही अजनबी है
जितने इनके साथ रहते हुए
हम इनसे
इसलिए कहना पड़ता है
साथ का मतलब
हमेशा साथी नही होता।

© डॉ. अजित

Friday, July 24, 2015

विदा

हमेशा विदा को
अलविदा से बचाता रहा
दरअसल
अलविदा एक बढ़िया सुविधा है
एक युक्तियुक्त पलायन
विदा एक जिम्मेदारी है
एक कल्पना है
एक बेहतर कल की
विदा बचाती है उम्मीद
लौट आने की
बिना किसी अपराधबोध के
अलविदा कहना मुश्किल जरूर होता है
मगर विदा को देखना
उससे भी ज्यादा मुश्किल काम है
मैनें जीवन में अक्सर चुनी थी विदा
जो दुर्भाग्य से बन गई अलविदा
उदासी की कुछ पुख्ता वजहों में से एक है
विदा का अलविदा में बदल जाना।

© डॉ.अजित 

Wednesday, July 22, 2015

गुफ़्तगु

अभी तो रूह ने करवट ली थी
पलको से अहसासों की गर्द छटी थी
बेफिक्र आफ्ता साँसों ने इल्तज़ा की थी
कुछ गिरह खुल भी न पाई
एक सुरमई शाम
ख्वाब की दहलीज़ पर बैठी सिसकती है
शक ओ शुबहो में खर्च होती
जिंदगी को थोडा संवर जाने दो
बेसाख्ता लम्हों को बिखर जाने दो
रोज़ उलझते हुए दयारो में
जब तुमसे मुलाक़ात होती है
लफ्ज़ अहसास की चादर से छिटक जाते है
जैसे रात के अँधेरे में कुछ आवारा ख्याल
अपनी धुन में निकल जाते है
मैं लम्हा लम्हा सिरे जोड़ता हूँ
तुम्हे तुम्हारे अंदर तलाशता हुआ
आवाज़ देता हूँ मगर तब तक
वक्त की गर्दिशे ख्याल को जब्त कर जाती है
सुबह ओस की पहली बूँद सी बातें बिखर जाती है दुनियादारी की चौखट पर उदासी के दिए जलते है
कुछ अहसासों को महफूज़ कर लेता हूँ कि
किसी दिन बात से बात निकले
तो वो बात कह सकूं
हां ! मुझे शिद्दत से तुम्हारा इन्तजार रहता है
हो किसी शाम तुम्हारा साथ
और बुनते रहे कुछ आवारा ख्याल
मंजिल से बड़े हो जाए कुछ रास्ते
फिर पुरकशिस लम्हों का लोबान जला
फूंक दू कुछ दुआ तुम्हारे हक में
कैद कर कुछ लम्हों को अक्सों की शक्ल में
एक बोसा लूँ उन आवारा ख्यालो का
जो रोज़ अपने सिराहने बो सो जाती हो तुम
बातें मेरी समझनें जरूरत कब जानाँ
बातों से मेरी रफू करना अपनी तन्हाई को
पैबन्द लगाना कुछ अनकहे ख्यालों का
तुम्हारे लिए नींद को गिरवी रख
चन्द ख्याल उधार लाया हूँ
धड़कनों के बीच अटक गई है
कुछ बातें उनको सुनोंगी तो पाओगी
दिल से रूह के दरम्यां कुछ लम्हें घरोंदे बनाते है
कुछ बेअदब से ख्याल
कुछ आवारा सी रोशनी
मेरी रूह को रोशन करती है
एक तुम्हारा तस्सवुर काफी है
मुझे फिलहाल उधार की जिंदगी के लिए।

© डॉ. अजित

अंतिम

अंतिम पगडंडी
ठीक उसी रास्ते पर खत्म होती है
जहां दोराहा चौराहें से मिलता है
अंतिम कदम उतना ही भारी होता है
जितना पहला दुस्साहस
अंतिम बात कभी अंतिम नही रह पाती
वो छोड़ देती है हमेशा सम्भावना
एक नई बात की
अंतिम जो भी दिखता है
वो दरअसल अंतिम नही होता
वो होता है प्रथम का विलोम
ठीक निकट का विरोधाभास
सत्य का ऐच्छिक संस्करण
अंतिम अकेलेपन को समझते हुए
हुआ जा सकता है सिद्ध
जीवन और मृत्यु के बीच फंसी
हर बात अंतिम नही होती
ठीक जैसे
अंतिम नही होता इच्छा का मर जाना
अंतिम होना एक किस्म की सांत्वना है
यात्रा की समाप्ति या शुरुवात नही
यात्रा का मध्यांतर है अंतिम होना।

© डॉ. अजित

Tuesday, July 7, 2015

धरती

धरती घूम रही है
अपनी एक थिर गति से
कायदे से
इसे रुक जाना चाहिए
कुछ पल के लिए
ताकि जड़ हुए मनुष्य
छिटक कर जा पड़े मीलों दूर
मनुष्यता को बचाने का
कम से कम एक प्रयास
धरती को करना चाहिए जरूर।
***
देखना एक दिन ऐसा होगा
धरती बंद कर लेगी अपनी आँखें
फिर फर्क करना मुश्किल हो जाएगा
दिन और रात का
उस दिन
आसमान कोई सलाह नही देगा
वो देखेगा
मनुष्य को भरम के चलते
गिरते-सम्भलतें हुए
धरती आसमान के बीच उस दिन
सबसे अकेला होगा मनुष्य।
***
धरती की शिकायत
बस इतनी सी है
मनुष्य उसे अपनी सम्पत्ति समझता है
जबकि
वो खुद ब्रह्माण्ड के निर्वासन पर है
जिस दिन पूरा होगा उसका अज्ञातवास
मनुष्य सबसे अप्रासंगिक चीज़ होगा
धरती के लिए।
***
धरती गोल है
यह एकमात्र वैज्ञानिक सत्य नही है
धरती के गोल होनें के मिले है
ठोस मनोवैज्ञानिक प्रमाण भी
तभी तो
मनुष्य जहां से चलता है
एक दिन लौट आता है उसी जगह
कभी हारकर कभी जीतकर
धरती जरुर गोल है
मगर मनुष्य का कोई एक आकार नही है
यह बात सिद्ध होनी बाकि है अभी
किसी वैज्ञानिक/मनोवैज्ञानिक शोध में।

© डॉ. अजित 

Saturday, July 4, 2015

ज्योतिष

मैंने कहा
जरा हाथ दिखाओं अपना
उसनें कहा
अपनी रेखाओं से
आधी सेंटीमीटर रेखाऐं घटा दो
दक्षिण के अंशों को
उत्तर से मिला दो
माथे से उतार कर देखों
मेरी अनामिका के निशान
अगर फिर भी न बांच सको भविष्य
तब दिखाऊंगी अपना हाथ
उसके बाद
हाथ देखना छोड़ दिया मैंने
उसका तो क्या खुद का भी।
***
मैंने पूछा
तुम्हारी राशि क्या
उसनें कहा
अनुमानों के विज्ञान में यकीन नही मेरा
और मेरे अनुमानों में
मैंने पूछा
तुम्हारे भी अनुमानों में नही
बस तुम में यकीन है मेरा।
***
आदतन एकदिन मैं
बांचने लगा उसका फलादेश
दशा महादशा प्रत्यंतर
सबकी गणना करता हुआ
कर रहा था आधी अधूरी भविष्यवाणियां
वो जोर से हंस पड़ी
मैंने कहा कुछ गलत कहा मैंने
उसनें कहा नही
प्रेम में तुम्हें अंधविश्वासी होता देखना
फिलहाल अच्छा लग रहा बस।
***
अचानक एकदिन उसनें पूछा
ये शनि की साढ़े साती की तरह
प्रेम की साढ़े साती भी होती है क्या
मैंने हंसते हुए कहा
प्रेम का पहले ढैय्या चलता है
फिर साढ़े साती
उसनें कुछ गणना की
और कहा जल्द बिछड़ने वाले है हम
उसके इस फलादेश का उपचार नही मिला आजतक।

© डॉ. अजित



Saturday, June 27, 2015

सिद्ध

जिन दिनों मुझसे
बेहद नाराज़ थी तुम
उन दिनों
हवाओं से पूछता था मंत्र
नदियों से मांगता था रेत
जंगल से मांगता था समिधा
तुम्हारे डर से तीनों कर देते थे साफ़ मना
फिर थककर
बनाता था सपनों का हवन कुंड
वादों की सामग्री
और अपनत्व की समिधा
ब्रह्म महूर्त में रोज करता था यज्ञ
उन्ही दिनों मैनें कुछ नए मंत्र सीखें
प्रेम के तंत्र के
प्रत्येक स्वाहा में जलाता था खुद को
ताकि इस नाराज़गी का उच्चाटन कर सकूं
तुम्हारी नाराज़गी
खतम होते होते सिद्ध बन गया था मैं
फिर भी कहता हूँ
हो सके तो फिर कभी
नाराज़ मत होना
क्योंकि अब मैं भूल गया हूँ
सब मंत्र तंत्र
सिर्फ याद है
तुम्हारा नाराज़ होना
और खुद का मजबूर होना
और दोनों ही यादें अच्छी नही है
यकीनन।
©डॉ. अजित

Monday, June 15, 2015

स्मृतियाँ

काश स्मृतियों के पाँव नही
कान होते
उनको सुना पाता मैं
तुम्हारे साथ होने की खनक
वो यूं दबें पाँव न आती फिर
उठा लाता उन्हें गोद में
उनके कान को चूमता हुआ
जिस तरह आती है
बीतें पल की स्मृतियाँ
मुझे नही पसन्द
उनका इस तरह आना
चाहता हूँ वो जब भी आएं
कुछ इस तरह आएं
जैसे पानी पर आती है काई
उन पर फिसलकर
चोट नही लगें
बस लड़खड़ाऊ
और गिरनें से पहलें
थाम लो तुम मेरा हाथ।

© डॉ.अजित

Sunday, June 14, 2015

प्रेम का बचना

धरती की पीठ पर लिखा था प्रेम
नदियां छिपा रही थे प्रेम
झरनें मिटा रहें थे प्रेम
हवा उड़ा रही थी प्रेम
समन्दर डूबा रहे थे प्रेम
तमान कड़वी बातों
तमाम असहमतियों के बीच
इस ग्रह पर
बस हम तुम बचा रहे थे प्रेम
धरती से पूछा जब आकाश ने
किस तरह मिलनें आओगी तुम
उसनें हमारी तरफ इशारा करते हुए कहा
इनकी तरह
फिर अचानक बारिश हो गई
पता नही पानी की बूंदे थी या
आसमान के आंसू
उसके बाद
थोड़ा आसान हो गया था
हमारे लिए प्रेम को बचाना।

© डॉ.अजित

Friday, June 12, 2015

बोध


---
धूप चुनती है उसे
डाकिया
बारिश चुनती है उसे
कर संग्रह अमीन
हवा बना देती है उसे
चपरासी
ढ़ोता है वो वायदों की फ़ाइल
इस दर से उस दर
धरती चाहती है
जरीब से उस पर लिख दें
प्रेम के तीन शब्द
उसकी किस्मत में लिखा है
मात्र लेखपाल होना।
***
वो दिशा भूल गया है
उत्तर को पूरब बताता है
दक्षिण को पश्चिम
पूरब और पश्चिम में भेद नही कर पाता
उसके पास एक मानचित्र है
जिसे देखकर वो केवल हंसता है
कई भाषाविज्ञानी
उसकी हंसी को डिकोड करने में लगे है
वो यारों का यार है
कोई विक्षिप्त मनुष्य नही।
***
उसकी दफ्तर की
दराज़ में कुछ ख्वाहिशें दफन है
वहां कागज के पुलिंदों के बीच
अटका रह गया है एक खत
जिसकी स्याही सूख रही है
लफ्ज़ मिट रहे है
पते की जगह
तीन लाईन की सीढियां बन गई है
वो पिनकोड के जरिए
पहूंचना चाहता है उसके दर तक
इनदिनों वो खुद को भूल
याद करता रहता है उसका पिनकोड।
***
झरनें भेजतें है
वजीफे नदी के नाम
नदी लेंने से मना कर देती है
झरनें अपमानित नही
उपेक्षित महसूस करते है बस
नदी हंस पड़ती
झरनें गाने लगते है बोझ का गीत
समन्दर देखता है
नदी का मनुष्य
और झरनें का देवता होना।

© डॉ. अजित 

Saturday, June 6, 2015

खेत और कविता

तुम्हें अचानक से सामनें देख
ठीक उतनी खुशी होती है
जितनी धान की निकली बाली को
पहली बार देख कर होती है
मुरझानें के डर से
उसकी तरफ उंगली नही करता
और तुम्हारी तरफ नजर।
***
तुम्हारे अंदर
पड़ा रहना चाहता हूँ
अनुपचारित बीज की तरह
शायद कभी तुम्हारे एकांत की  नमी में
अकुंरित हो जाऊं
और छाया दे सकूं
तुम्हारे तपते मन को।
***
देह की मिट्टी पर
उगतें है कुछ खरपतवार
जिनकी कोमलता पर
मुग्ध हो
हम खो बैठतें
सम्बंधों की उत्पादकता।
***
बदलती जलवायु ने
बदल दिया है
फसलों के पकनें का समय
ठीक वैसे ही
जैसे तुम्हारी अनायास उदासीनता ने
बदल दिया है
खुश रहनें का वक्त।
***
खेत पर मेढ़ जाती है
जिस पर चलता हूँ
बड़ा सन्तुलन साध कर
वरना गिर सकता हूँ
लड़खड़ाकर
तुम्हारे घर सीधी सड़क जाती है
नही उठा पाता एक कदम
तमाम साधन संतुलन के बाद भी
यहां गिरनें का नही
पहूंचने का भय है।
***
जलस्तर देख
पौधा कर लेता है समझौता
सीमित कर लेता है जरूरतें
सहन कर लेता है ताप
समझता है धरती की मजबूरी
और खुद की सीमा
तुम उखाड़ देती हो मुझे
कांट-छाँट के नाम पर
मन की बालकनी से
अपनी कोमल ऊंगलियों से
बिना मुझे बताए।

© डॉ.अजित

Tuesday, June 2, 2015

खगोल

यदि तुम मोटिवेशन की तलाश में
मेरे नजदीक आए हो तो
मुझे खेद है
ये तुम्हें न मिलेगा
मेरे पास एक चुम्बकीय क्षेत्र है
जहां जुड़ सकतें हो
या फिर प्रतिरोध पैदा कर सकते हो
चयन नितांत ही तुम्हारा है
सोच लो।
***
बंद घड़ी दो वक्त
सही समय बताती है
यह एक कोरा बौद्धिक झूठ है
चौबीस घंटें में किसी रुकी हुई चीज़ को
दो बार देखकर
हम समय का सही होना तय कर सकते है
समय को सही गलत तय करना
समय का अपमान है
ये बात बंद घड़ी बताती है
बशर्ते वो सच में बंद हो
किसी अभाव में थमी न हो।
***
धरती की आँख पर
काजल लगाने के लिए
ऊकडू बैठा एकदिन
धरती ने आँखें बंद कर ली
उस दिन समझ आया
धरती संवरना नही
सोना चाहती है
मेरी अनामिका से लोरी सुनकर।
***
चांद का एक यही डर
सबसे बड़ा था
धरती को यदि दिख गया
दूसरा चाँद
उसका क्या होगा
धरती चाँद की नही
सूरज की तलाश में थी
एकमात्र इसी बात पर
बचा हुआ था
दोनों के मध्य खगोलीय प्रेम।

© डॉ. अजीत

Monday, June 1, 2015

सवाल

वो जब भी मिलती
सवालों के साथ मिलती
उसके लिए जिज्ञासा का विस्तार था
मेरा होना
उसकी बातों में होता
कुछ दशमलव कौतुहल
कुछ अक्षांश दूरी का पैमाना
और मेरे देशान्तर को परखनें की जिद
प्रश्न-प्रतिप्रश्न और सन्देह का एक ऐसा
त्रियामी मानचित्र बनाती कि
मैं भूल जाता अपनी दिशा
उसकी उपकल्पनाओं में
मेरा दर्शन भीड़ से अलग दिखनें का
एक वितंडा भर था
वो सिद्ध करना चाहती थी
मेरा बेहद मामूली होना
उसके खुद के बनाए हेत्वाभास
मुझे घेरते चक्रव्यूह की तरह
वो देखना चाहती थी मुझे
कर्ण की भाँति निशस्त्र
मेरा अस्तित्व जब एक चुनौति बन गया
तब उसनें निर्णय किया मुझसे प्रेम न करनें का
क्योंकि अपनी तमाम बुद्धिमानी के बीच
वो जान गई थी ये सच
यदि एकबार भी
मुझसे प्रेम किया उसनें
तो फिर उसके पास नही बचेगा
किसी के लिए भी लेशमात्र प्रेम
प्रेम के इस संस्करण को
सबसे बेहतर ढंग से
उसी के जरिए समझ पाया मैं।

© डॉ. अजीत


Sunday, May 31, 2015

ब्रेक अप

ब्रेक अप : कुछ फुटकर नोट्स
----
ब्रेक अप
एक अंग्रेजी शब्द था
मगर इसके प्रभाव थे
विशुद्ध देशी किस्म के
यह जुड़कर टूटने की
बात करता था
शब्दकोश में देखा
इसके आगे पीछे कोई शब्द नही था
ये वहां उतना ही नितांत अकेला था
जितना अकेला
एक एसएमएस के बाद मैं हो गया था।
***
ब्रेक अप के बाद
शब्दों के षड्यंत्र
आकार लेना आरम्भ करते
प्रेम को निगल जाता सन्देह
स्मृतियों को चाट जाती युक्तियां
स्पर्शों को भूल जाती देह
अह्म होता शिखर पर
दिल अकेला हंसता
दिमाग की चालाकियों पर
यही हंसी दिख जाती कभी कभी
आंसूओं की शक्ल में।
***
ब्रेक अप के बाद
मैंने छोड़ दिया पृथ्वी ग्रह
मैं निकल आया प्लूटो की तरफ
मगर वहां के चरम एकांत में भी
ब्रेक अप की ध्वनि
मेरा दिशा भरम करती रही
दरअसल वो ध्वनि नही
एक किस्म का शोर था
शोर ब्रह्माण्ड के हर कोने तक
करता रहा मेरा पीछा
जबतक मैं बहरा न हो गया।
***
ब्रेक अप
सवाल की शक्ल में आया
जवाब की शक्ल में चला गया
सवाल-जवाब के मध्य
रूपांतरित होता हुआ रिश्ता
समुंद्र तल की ऊंचाई से कुछ मीटर
ऊपर का था
जब एक दिन पानी पर
तुम्हारा नाम लिखना चाहा
तब पता चला
कुछ सेंटीमीटर
तुम्हारा तल बदल चुका है
ब्रेक अप एक तरल चीज थी ठोस नही।
***
ब्रेक अप
आसान नही होता
कहना भी करना भी और जीना भी
ब्रेकअप उतना मुश्किल भी नही होता
जितना मैं सोचता था
इधर ब्रेक अप हुआ
उधर मेरी जगह ले ली
किशोर कुमार लता मंगेशकर ने।

© डॉ. अजीत

Saturday, May 30, 2015

तिराहा

पहली बार
तुम्हारे शहर के तिराहे से विदा हुआ
दोराहें और चौराहें से कितना अलग था
तिराहें से विदा होना
एक सड़क सीधी जा रही थी
शहर के आरपार
एक तुम्हारे घर की तरफ
मैं समकोण पर खड़ा
सोच रहा था किधर जाऊं
एक तरफ शहर था
एक तरफ तुम थी
और एक तरफ मैं
जिस तरफ मैं खड़ा था
वो दुनिया की सबसे निर्धन जगह थी
ये जाना तुम्हारे चले जाने के बाद।
***
तिराहें पर खड़ा होना
गुरुत्वाकर्षण खो देने जैसा था
टी पॉइंट से राईट हो रहे थे लोग
और मैं लेफ्ट की तरफ
तांक रहा था
मैंने लेफ्ट इसलिए चुना
तमाम अजनबीयत के बावजूद
लेफ्ट में पड़ा मेरा दिल
धड़क रहा था तुम्हें देखकर
उस वक्त मेरे जिन्दा होने की
यही एक मात्र पुष्टि थी।
***
तिराहे पर खड़े होकर
याद आ रहा था तुम्हारा गुस्सा
मैं गुस्से में था दुखी था अनमना था
नही जानता
गुस्से की आवाजाही में
मैं शहर के उस
सिविल इंजीनियर पर बेहद खफा था
जिसकी नगर योजना का
हिस्सा रहा था यह तिराहा।
***
देर तक खड़ा
यही सोचता रहा
आखिर जिंदगी में क्यों आतें हैं
दोराहें,तिराहें और चौराहें
जब अनमना हो
चुनना पड़ता है
एक रास्ता
दरअसल रास्तें हमें
कहीं नही ले जाते
रास्ते केवल छोड़ते है
दूसरे रास्तें के मुहानें पर
मंजिल इन्ही रास्तों के बीच फंसी
सबसे उदास जगह है।

© डॉ. अजीत

Wednesday, May 27, 2015

दूरी

मेरे तुम्हारे बीच में
महज फांसला नही है
कुछ ग्राम नम हवा भी है
हवा को विज्ञान कैसे तौलता है
नही जानता हूँ
मगर इतना जानता हूँ
हमारे बीच में
कुछ ऐसी महीन चीज़ जरूर है
जो हमें मिलनें नही देगी कभी।
***
देह का आकार
आकृति से बढ़कर नही होता
मन का कोई आकार ही नही होता
देह और मन के अलावा भी
कुछ अज्ञात है
जिसका अनावरण अभी शेष है
यही अज्ञात
हमें मिलनें नही देगा कभी।
***
क्यों न ऐसा करें
मिलाकर देखें
अपनी अपनी रेखाएं
ये समानांतर दिखती जरूर है
मगर है नही
शायद बन जाए कोई
मानचित्र
तुम खो जाओ इससे बेहतर है
इसकी मदद से
तुम्हारा निकल जाना।
***
तमाम किन्तु परन्तु के बावजूद
बहुत कुछ बच गया है
अनसुलझा
स्थगित करना ही पड़ेगा
मंजिल का कौतुहल
सफर आसान होता जाता है
और तुम मुश्किल।

© डॉ. अजीत

Tuesday, May 26, 2015

मार्ग

तुम्हें देख
भूल जाता हूँ
निष्फल प्रेम का अतीत
तुम्हारी छाया टांगती है रोज़
धरती के माथे पर
एक इश्तेहार
जिस पर लिखा होता है
प्रेम का अतीत वर्तमान भविष्य नही होता
प्रेम का होता है केवल इतिहास।
***
तुम्हारी हथेली पर
रख देता हूँ कम्पास
तुम देखती हो मेरी दिशा
और गलत अनुमान से
भटक जाती हो
जबकि मैं खड़ा होता हूँ
ठीक तुम्हारे सामनें।
***
मैं पूछता हूँ
तुम्हारा पता
और तुम हंस पड़ती हो
पोस्ट करता हूँ
सब खत इसी पते पर
इस उम्मीद पर
तुम तक जरूर पहूंचते होंगे
वो सब के सब।
***
दुनिया के अंतिम
तटबन्ध पर
मेरी चप्पल मिलेगी
इससे आत्महत्या का अनुमान मत लगाना
मैं अनुमान से नही
तुम्हें निष्कर्ष के किनारे
खड़ा मिलूँगा
यदि तुम वहां तक पहूंच पाई।

© डॉ. अजीत

दिशा

अब जब मुझमें
तुम्हारी दिलचस्पी
लगभग नही के बराबर बची है
ठीक इस वक्त
देना चाहता हूँ
तुम्हें एक मुट्ठी नमक
ताकि तुम समझ सको
खारेपन का मूल्य
प्यास की अनुपस्थिति में।
***
अब जब लगभग सब कुछ
निर्णय के मुहाने पर
खड़ा है
मांगना चाहता हूँ
तुमसें तुम्हारी खुशबू
ताकि महकती रहें
कुछ खट्टी मिट्टी यादें
तुम्हारी छाया में।
***
हमनें कभी नही मांगा
प्रेम में प्रतिदान
न मांगने का एक अर्थ
यह भी निकाला जा सकता है
अंदर से खाली नही थे हम
प्रेम कहां बसता फिर?।
***
चारों दिशाओं के अलावा
धरती की होती है अपनी एक दिशा
उसी का भरम ले जाता है
हमें उस तरफ
जहां से लौट नही पाते
मर कर भी हम।

© डॉ. अजीत 

Wednesday, May 20, 2015

फलादेश

चांद मुंह नही फेर सकता
तारें आंख नही बंद कर सकते
धरती को तकना
ज्ञात मजबूरी है
मनुष्य सो सकता है
देख सकता है स्वप्न
लिख सकता है कविताऐं
तमाम अन्धकार के बीच
चाँद तारें इस बात पर खुश है।
***
नदी को किनारों से फुरसत नही
उसकी गहराई का एकांत
उदास रहता है अक्सर
पत्थर बचातें है
उसके जीवन में हास्य
वेग की शक्ल में।
***
हवा मुक्त दिखती है
मगर होती नही है
उसकी दिशा तय करता है कोई और
हवा की बेबसी
पूछिए किसी हिलते हुए पत्ते से
वो टूटकर बताना चाहता है सबकुछ
यदि आपको फुरसत हो तो।
***
ग्रहों नक्षत्रों के प्रभाव में मध्य
पृथ्वी होती है नितांत अकेली
झेलती है सबका सकार नकार
कोई ज्योतिषी नही बताता
उसका प्रभाव
उसी पर जीवित
मनुष्यों के जीवन पर
उसकी गोद में संकलित है
उसके समस्त अप्रकाशित फलादेश।

© डॉ. अजीत

Saturday, May 16, 2015

गणित

कुछ दशमलव
प्रेम मांगा तुमसे
तुमने याचक कहा मुझे

कुछ सेंटीमीटर
दूरी थी तुमसे
नही मिली तुम आजतक

कुछ शून्य
नही दिए तुमनें उधार
दहाई बननें के लिए

इसलिए मैनें
बिना योग के
घटा लिया खुद को खुद से
और अनुत्तीर्ण हम हो गए
सम्बंधों के गणित में
बिना किसी परीक्षा के।

© डॉ.अजीत

Friday, May 15, 2015

धरती

डूब रहा था
एक सूरज
एक चाँद
धरती के सामनें
धरती देख रही थी
उसका डूबना
तारों की छांव में
धरती चुप थी
धरती तटस्थ थी
धरती साक्षी थी
डूबनें की मजबूरी देखनें की
खुद धरती मजबूर नही थी
धरती बोझ का आंकलन कर रही थी
इसलिए
सूरज चाँद से ज्यादा
उसे खुद की फ़िक्र थी।

© डॉ.अजीत

धरती

डूब रहा था
एक सूरज
एक चाँद
धरती के सामनें
धरती देख रही थी
उसका डूबना
तारों की छांव में
धरती चुप थी
धरती तटस्थ थी
धरती साक्षी थी
डूबनें की मजबूरी देखनें की
खुद धरती मजबूर नही थी
धरती बोझ का आंकलन कर रही थी
इसलिए
सूरज चाँद से ज्यादा
उसे खुद की फ़िक्र थी।

© डॉ.अजीत

धरती

डूब रहा था
एक सूरज
एक चाँद
धरती के सामनें
धरती देख रही थी
उसका डूबना
तारों की छांव में
धरती चुप थी
धरती तटस्थ थी
धरती साक्षी थी
डूबनें की मजबूरी देखनें की
खुद धरती मजबूर नही थी
धरती बोझ का आंकलन कर रही थी
इसलिए
सूरज चाँद से ज्यादा
उसे खुद की फ़िक्र थी।

© डॉ.अजीत

Wednesday, May 13, 2015

सच

उत्तरोत्तर होता जाऊँगा मैं 
बेहद सतही और सस्ता
नही नाप सकेंगी 
तुम्हारे मन की आँखें भी 
मेरी चालाकियां
प्रेम और छल को मिला 
झूठ बोलूँगा मैं 
पूरे आत्मविश्वास के साथ
किन्तु परंतु के बीच रच दूंगा
एक महाकाव्य 
जहां ये तय करना मुश्किल होगा
ये स्तुति है या आलोचना 
खुद को खारिज करता हुआ
निकल जाऊँगा उस दिशा में 
जिस तरफ तुम्हारी पीठ है 
कवि होने का अर्थ हमेशा
सम्वेदनशील होना नही होता है
कवि को समझनें के लिए बचा कर रखों
थोड़ा सा सन्देह 
थोड़ा सा प्रेम
और कुछ सवाल हमेशा
कवि और कविता का अंतर 
एक अनिवार्य सच है 
भावुकता से इतर 
शब्द और अस्तित्व के  बीच
फांस सा फंसा हुआ सच।
© डॉ. अजीत

Monday, May 4, 2015

पहाड़

पहाड़ पर आकर लगता है
सब सुखद
शायद इसलिए
पीछे छोड़ आतें है हम
अपेक्षाओं का संसार
सागर का तट
नदी का उदगम्
झरनें का निर्वाण स्थल
घनें जंगल
खत्म होते रास्तें
टूटी हुई पगडंडिया
बताते है हमें
लघु और दीर्घ की पीड़ाएं
पहाड़ का मतलब
महज ऊंचाई नही
पहाड़ का मतलब है
खुद के अंदर देख पाना
ऊंचाई
गहराई
और समतल
पहाड़ इसलिए दूर रहतें है हमसें
ताकि उनके साथ
खुद के करीब जा सकें हम।

© डॉ.अजीत

Sunday, May 3, 2015

अति

सबसे ज्यादा डर
अपने गांव/शहर के लोगो से लगता है
सबसे ज्यादा शंकालु
मेरे मुहल्ले के लोग है
सबसे ज्यादा बैचेन
मेरी जाति के लोग है
सबसे ज्यादा असुरक्षित
मेरे धर्म के जानकर लोग है
सबसे ज्यादा मुझे अन्यथा
मेरे करीबी दोस्त लेतें है
सबसे ज्यादा व्यंग्यबाण
मुझे उनके लगे जो जानते है मुझे
लगभग डेढ़ दशक से
सबसे ज्यादा अनजाना
मेरा खुद का पड़ौसी है
रिश्तेंदारों की तो बात ही छोड़िए
अपने आसपास पसरी
इतनी अति के बीच
लिखना है मुझे प्रेम
बताना है अपना स्थाई दुःख
कहनी है अपनी तमाम कमजोरियां
हमेशा उतना आसान नही होता
जितना आसान दिखता है जीवन
इस एक जीवन में
यदि ये सब मैं कर पाया तो
उनके भरोसे पर कर सकूंगा
जो उपरोक्त में से एक भी नही है।

© डॉ. अजीत

Saturday, May 2, 2015

मन

सबसे पहलें मेरे अंदर का
बच्चा मरा
फिर आदमी
फिर इंसान
और अब देह
मेरी मौत बिलकुल संदिग्ध नही है
यह उतनी ही स्वाभाविक है
जितनी तुम्हारें सपनें की मौत है
मन की मौत नही होती
आत्मा को अमर नही कह सकता
क्योंकि आत्मा देखी नही कभी
मगर
मन आज भी जानता हूँ
कई जन्मों पुराना है मेरा
वही विश्वासी मन
वहीं आहत मन
आधा और अधूरा मन।

© डॉ.अजीत

Friday, April 24, 2015

गंभीर

अचानक हो जाना
किसी का गंभीर
जीवन से
खो जाना कौतुहल का
परिपक्वता की निशानी
नही होता है हर बार
सम्भव है खो गई हो उसकी
दराज़ की चाबी
घिसी हुई चप्पल
या कोई पुरानी शर्ट
गम्भीरता डराती भी है कई बार
जैसे इसका सहारा लेकर
कोई करेगा अपनी अंतिम घोषणा
और बदल लेगा मार्ग
हर बार गंभीर होने का अर्थ
समझदार होना नही होता है
गंभीरता में आदमी भूल सकता है
बढ़े हुए बाल नाखून और दाढ़ी
भूल सकता है
प्रेम और प्रेम के वादें
बड़ी सहजता के साथ
कभी कभी हंसते हंसते अचानक से
बिना निमंत्रण के आई गम्भीरता
बताती है कोई चीज जरूर है
जिसे लगातार आपत्ति होती है
हमारी उन्मुक्त हंसी पर
इसलिए गम्भीरता लगनें लगती है
आपत्ति से मिलती जुलती कोई चीज़
ये खुद से आपत्ति है या दूसरे से
इसका अंदाज़ा
गम्भीरता से लगाया जा सकता तो
कुछ लोग
पहले से अधिक या कम
गम्भीर होते आज।

© डॉ. अजीत

Thursday, April 23, 2015

स्वप्न

स्वप्न में भूल जाता हूँ
कवि होना
मनुष्य होना
भाई बेटा पति पिता होना
स्वप्न में भूल जाता हूँ
अक्षर ज्ञान
लिपि भाषा और बोली
स्वप्न में भूल जाता हूँ
धरती का भूगोल
गुरुत्वाकर्षण का केंद्र
मौसम दिन और रात
यहां तक स्वप्न में भूल जाता हूँ खुद की
आयु लिंग धर्म और जाति
स्वप्न में भूल जाता हूँ
दोस्तों के नाम और चेहरें
स्वप्न में भूल जाता हूँ
नदियों के उदगम् स्थल
झरनों की ऊंचाई
झील का आकार
और समन्दर की गहराई
बमुश्किल पांच दस मिनट के स्वप्न में
भूल जाता हूँ सारी स्मृतियां
बस एक बात
आज तक नही भूला
स्वप्न में भी
तुमसे पहला और अंतिम
प्रेम किया है मैनें
ये बात होश और स्वप्न में
रहती है याद
एकदम बराबर
ये अलग बात कि
चेतना के मुहानें पर
आइस पाइस खेलती हुई
बदलती रहती हो
तुम अपना घर।

©डॉ. अजीत

Wednesday, April 22, 2015

दूरी

जिन दिनों तुमसे दूर था मैं
चाँद को बुला लेता था
अपनें सिरहानें
दिखाता था उसे उपग्रह से प्राप्त चित्र
बादलों के छलावे देख
खुलकर हंसता था चांद
उन दिनों
बरसात से मांगता था
थोड़ी सी चटनी उधार
ताकि जीने लायक खा सकूँ रोटी
जिन दिनों तुमसे दूर था
धरती पर पंजो के बल खड़े होकर
देखता था तुम्हारा आना
और धरती अपनी जीभ से
तलवें पर ऐसी गुदगुदी करती
उदासी में भी हंसते हुए
नाचने लगता था मैं
उन दिनों
आवारा खरपतवारों से थी दोस्ती
उनसे सीखता था बेरुखी में जीने की आदत
थोड़ी सी जिद थोड़ा सा जुनून
कल्पना के दीपक पर
निकालता था उम्मीद की स्याही
ताकि आंसूओं के बीच सलामत रहे रोशनी
उन दिनों
तालाब से मांगता था थोड़ा धीरज उधार
नदी में पैर से बनाता था
तुम्हारे घर का मानचित्र
ताकि बहती रहें तुमसें
मिलनें की संभावना
समन्दर की तरफ पीठ करके
फूंकता था सम्मोहन के सिद्ध मंत्र
ताकि वक्त भले ही लगे मगर
नदी की तरह एकदिन
तुम मिलनें आओं जरूर
जिन दिनों तुमसें दूर था मैं
उन दिनों
खुद के इतना नजदीक था कि
तुम्हें एक साथ करते हुए
देख सकता था
मुझसे नफरत और प्यार।


© डॉ.अजीत




Monday, April 20, 2015

जरूरतें

बेहद मामूली थी मेरी जरूरतें
एक अदद मुस्कान से
धुल जाते थे सारे रंज
जब तुम खुद को
करेक्ट करने की मुद्रा में पूछती
डबल एक्स एल नम्बर ही ना शर्ट का
लगता मेरे सुख दुःख का नम्बर
रख रही हो पर्स में
कभी तो ऐसा भी हुआ
तुमसे गलती से कॉल हो गई
और मिस्स कॉल से मुझे लगा
याद किया है तुमनें
तुम्हारे रहतें जरूरतें बेहद सिमट जाती थी
मैं खुश हो सकता था
जूतों में जूराब देखकर
या फिर बाथरूम में नया साबुन देखकर
तुम उस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत थी
इसलिए दुसरी जरूरतें लगभग समाप्त हो गई थी
बेख्याली का ऐसा दौर था
भूल जाता था बाइक में चाबी
जेब में कलम
दराज़ में बटुआ
जैसे तुम्हारी बातें करता हुआ
अभी अभी भूल गया हूँ
तुम अब नहीं हो
अब जरूरतें तंग करती है
खासकर तुम्हारी आदत
क्योंकि
आदतें वैसे भी
यूं ही नही जाती।
© डॉ. अजीत


Sunday, April 19, 2015

उनदिनों

जिन दिनों तुम्हारे प्रेम में था मैं
धरती का व्यास याद था मुंहज़ुबानी
बता सकता था पेड़ की पत्तों की संख्या
खींच सकता था
धरती सूरज चाँद के मध्य सीधी रेखा
ग्रह नक्षत्रों को कर सकता था स्तम्भित
नदी को भर सकता था ओक में
झरनें को उछाल सकता कुछ प्रकाश वर्ष ऊपर
समन्दर के तल पर रख सकता था कुछ बोरी सीमेंट
परवा हवा को खींच फूंक से बना सकता था पछुवा
जिन दिनों तुम्हारे प्रेम में था मै
उनदिनों,
तीन सौ पैसठ दशमलव दो चार दिन का था साल
साढ़े बाईस घंटे के होते थे दिन रात
इतवार आ जाता पौन घंटे पहले
शनिवार जाता था सवा घंटे विलम्ब से
ये जो समय आगे पीछे चल रहा था
इसकी एक वजह यह भी थी
अपनी घड़ी मिला ली थी मैंने
तुम्हारी मुस्कान से
जिन दिनों तुम्हारे प्रेम में था मैं
देख लेता था वाक्यों के मध्य फंसे अपनत्व को
जोड़ लेता शिकायतों की संधि
भेद कर पाता था संज्ञा और सर्वनाम में
लगा सकता था शंका पर पूर्णविराम
मिटा सकता था थूक से प्रश्नचिन्ह
कर सकता था तुम्हारी हंसी का अनुवाद
मध्यम नही उत्तम पुरुष था मैं
काल के हिसाब से
जिन दिनों तुम्हारे प्रेम में था मैं
उन दिनों मैं बस मैं नही था
कुछ और था
क्या था
ये तुमसें बेहतर कौन बता सकता है।

© डॉ. अजीत 

गजल

चेहरें पर आपको जो रौनक नजर आई है
थोड़ी नजरबंदी है थोड़ी हाथ की सफाई है

तन्हा इतना हूँ इस जिंदगी के सफर में
खुद को ही खुद की कहानी सुनाई है

कुछ अदीब इस बात पर मुझसे खफा है
बिना उस्ताद के मैंने कैसे गज़ल बनाई है

मिलते ही पूछते हो अपने मतलब की बात
दोस्त ये बता तालीम किस मदरसे से पाई है

ना काफ़िया ना रदीफ़ ना ख्याल का शऊर है
गजल कहता हूँ शेर मेरे सब के सब हरजाई है

© डॉ. अजीत 

Thursday, April 16, 2015

दुःख

दुःख का आयतन
मांपने के लिए
सुख का वर्गमूल निकालना पड़ता है
फिर जो बचता है शेष
उसे हम नियति कह सकते है
कहनें को तो
सुख को दुःख और
दुःख को सुख भी कहतें है लोग।
***
दुःख और सुख
एक साथ उच्चारित करनें से
कुछ दशमलव कम हो जाता है दुःख
ये गणित का नही
जीवन और उम्मीद का सूत्र है।
***
दो तिहाई दुःख में
एक तिहाई सुख जोड़ो
जिंदगी ने एक सवाल दिया
हल करनें के लिए
आज तक
मेरी स्लेट कोरी है।
***
दुःख का गणित
सुख के मनोविज्ञान को नही समझता
दुःख दरअसल एक दर्शन है
और सुख एक विषय
दुःख और सुख
साथ-साथ नही
आगे पीछे पढ़ाते है अपना पाठ।
***
दुःख विषम होता है
और सुख सम
दोनों के भिन्न आपसे में
नही जोड़े जा सकते
किसी भी समीकरण में
दुःख इसलिए भी होता है
सुख से अधिक जटिल।
***
दुःख की प्रमेय
सिद्ध करनें के लिए
सुख के सूत्र काम नही आते
दुःख हर बार गढ़ता है
नई प्रमेय
नए सूत्र
इसलिए भी दुःख का गणित
नही हो पाता कभी प्रकाशित।
***
दुःख का भूगोल
और सुख का अर्थशास्त्र
यह देखनें में मदद करता है
मनुष्य किस अक्षांश पर स्थित है
और उसकी सकल खुशी दर क्या है
इन्हीं के सहारे ईश्वर
हंस सकता है
यदा-कदा।

© डॉ. अजीत

नदी

नदी
कहती है पहाड़ से
कभी मिलनें आओं
और पहाड़ रो पड़ता है
नदी समझती है बोझ का दर्द
इसलिए फिर नही कहती कुछ
केवल समन्दर जानता है
नदी के आंसूओं का खारापन
क्योंकि
उसके लिए वो बदनाम है
नदी कृतज्ञ है
अंतिम आश्रय के लिए
पहाड़ शर्मिंदा है
प्रथम उच्चाटन के लिए
समन्दर शापित है
चुप रहनें के लिए
नदी पहाड़ समन्दर
एक दुसरे की कभी शिकायत नही करतें
बस देखतें हैं चुपचाप
मजबूरियों का पहाड़ होना
आंसूओं का नदी होना
धैर्य का समन्दर होना।

© डॉ.अजीत

फोन

फोन (मोबाइल)

---
जागता है चौबीसों घंटे
रखता है हिसाब
तारीफ, बुराई
और हिचकियों का।
***
मेरे जाने के बाद
मेरा सच जानने वाला
एकमात्र गवाह
यही बचेगा
जिसकी गवाही कोई नही लेगा।
***
पहचानता है
मेरी स्पर्शों को
पुरानी प्रेमिका की तरह
आंख का पानी
जब लगता है ऊंगलियों पर
ये आदेश मानने से कर देता है इंकार
विज्ञान इसके सेंसर मे दोष बताता है
जबकि सच है
मेरी तरह अतिसंवेदनशील है यह भी।
***
यह महज एक फोन नही है
एक खिडकी है
हमारे बीच
उधर बालों में कंघी होती है
इधर खुशबू आती है
क्लिनिक प्लस की।
***
कभी नही करता शिकायत
बेट्री लो, वाईब्रेशन मोड या म्यूट की
दिन में न जाने कितनी बार
छोड देता हूँ अकेला
अपना इतना है
होता है क्या तो
हाथ में दोस्त की तरह
या फिर रहता है दिल से चिपका
बच्चें की तरह।
***
फिलहाल
फेसबुक,व्हाट्सएप्प, एसएमएस
इसके दिल की तीन प्रमुख धमनियां है
जब आता है किसी का फोन
ये दिमाग से सोचता है
और काट देता है
इंटरनेट का कनेक्शन
देखना चाहता है हमेशा
मुझे एकतरफा
किसी शुभचिंतक की तरह।
***
उदासी और संघर्ष के पलों में
एक आश्वस्ति है इसका होना
लिखना,लिखकर मिटाना
खुद ही खुद को समझाना
देखता है चुपचाप
मेरी कमजोरी जानते हुए भी
उस पर कभी कोई बात नही करेगा
ऐसा तो कोई दोस्त भी नही है मेरा।
***
मुझे लगता है
इसका एकमात्र ऐतराज़
पासवर्ड लगाने से हो सकता है
शायद समझा लेता होगा खुद को
इसी में हम दोनों की भलाई है
नही चाहता मैं भी
मेरे अलावा कोई इसकी तलाशी लें
और करें मुझसें
बेतुके सवाल-जवाब
फिर लाख पासवर्ड लगा हो
इससे कुछ छिपा थोडे ही है मेरा।

© डॉ.अजीत

Monday, April 13, 2015

अनुपस्थिति

तुम्हारी अनुपस्थिति में यह जाना
दो जमा दो चार नही होता हर बार
तुम्हारी अनुपस्थिति में देख पाया
सपनें की यथार्थ के दर पर आत्महत्या
तुम्हारी अनुपस्थिति में समझा
भावुकता और सम्वेदनशीलता में फर्क
तुम्हारी अनुपस्थिति में उलट गई थी
काल गणना
दिन और रात थे छब्बीस घण्टें के
ये दो अतिरिक्त घंटे कहां से लाता था
तुम्हें समझनें के लिए
नही जानता हूँ
दरअसल तुम्हारी अनुपस्थिति
इतनी घनीभूत रूप से मनोवैज्ञानिक किस्म की थी कि
मैं घटना वस्तु समय सबमें तुम्हें तलाशता था
और तुम्हारी अनुपस्थिति
मुझे खारिज करती जाती
तुम्हारी अनुपस्थिति मुझे चाट रही थी घुन की तरह
और मैं अपनी तयशुदा हार
स्थगित करनें में असमर्थ था
तुम्हारी अनुपस्थिति ने चिपका दिए थे कुछ सवाल
मेरी नाक,माथें और पीठ पर
कुछ को मैं पढ़ता था
कुछ को दोस्त पढ़कर सुनाते थे
तुम्हारी अनुपस्थिति में
भूल गया था अपनी तमाम वाग्मिता
सन्देह होता था खुद के स्पर्शों पर
तुम्हारी अनुपस्थिति
ठीक उतना अकेला कर रही थी मुझे
जितना अकेला जन्म के वक्त होता है
मुस्कानों के बीच विस्मय से भरा
एक नवजात शिशु
तुम्हारी अनुपस्थिति मुझ पर इसलिए भी
इतनी हावी थी
क्योंकि पहली बार
तुम्हारी अनुपस्थिति में
तुम उतनी उपस्थित नही थी
जितना उपस्थित था मैं।

© डॉ. अजीत

Saturday, April 11, 2015

धूमकेतु

सुबह
उठता हूं
मगर जागता नही हूं

दोपहर
करवट बदलता हूं
मगर सोता नही हूं

शाम
टहलता हूं
मगर
चलता नही हूं

रात
आधा सोता हूं
ज्यादा खोता हूं
चुप होकर रोता हूं

...एक ख्वाब

रोज अधूरा रह जाता है
पलकों पर कुछ ग्राम बोझ बढ जाता है
बंद आंखों में बारिशें होती है
मुस्कानों के पीछे झांकता है
थोडा दीवानापन
थोडा पागलपन

सुबह शाम रात और दिन के बीच
ठीक उतने ही फांसले नजर आते है
जितने दो नक्षत्रों के मध्य होते है
देह,चित्त और चेतना के ब्रह्मांड का
धूमकेतु बन जीता हूं
सम्बंधों के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त
एक खगोलीय जिन्दगी।

© डॉ.अजीत 

चार बात

कविता जब
कवि से सवाल करती है
कवि हो जाता है
निरुत्तर
कविता इस चुप्पी पर
हंसती है
और हो जाती है
लोकप्रिय।
***
नदी के किनारें
तापमान होता है
कुछ दशमलव कम
ये बात नदी किसी को नही बताती
फिर भी लोग बैठ जाते है
अपना एकांत लेकर
इधर तापमान किनारों का बढ़ता है
उधर झुलसतें है
नदी के तल पर हरे शैवाल।
***
सम्बन्धों का सच
रूपांतरित होने पर
झूठ लगनें लगता है
जबकि सच को शाश्वत बतातें है लोग
झूठ रूपांतरित नही हो पाता
इसलिए यह सांत्वना देता है
सच के आतंक के बीच
हमेशा नही मगर कभी-कभी।
***
पत्थर के अन्तस् में
नमी रहती है
कुछ मिलीमीटर में
उसी के सहारे
वो झेल पाता है
ठोकरें और चोट
जिस दिन टूटता है पत्थर
नमी भी टूट जाती है
मगर वो बिखरती नही
नमी पत्थर का अभिमान है।

© डॉ. अजीत

Friday, April 10, 2015

उदघोषणा

जहां तक जाती है दृष्टि
वो खोजती है
थोड़ा अपनत्व
थोड़ा अधिकार
और ज्यादा प्यार
मनुष्य थोड़ा-थोड़ा पाकर
पाना चाहता है कुछ ज्यादा
एक साथ ज्यादा मिलनें पर
बोझ से क्या तो
झुक सकती है कमर
दुख सकतें है हाथ
या हड़बड़ी में भूल सकतें हैं
सम्भालनें का कौशल
इसलिए मांगतें है अक्सर
थोड़ा...
हां बहुत थोड़ा
अब आपको
क्या कब किस मात्रा में
मिलता है
यह नितांत ही संयोग की बात है
इसका ठीकरा ऊपर वालें पर भी
फोडा जा सकता है
मिलना एक तयशुदा बात है
सम्भालना एक कौशल
और खो देना
एक शाश्वत सच
जो खोनें से बच जातें है
उन्हें अपवाद समझ
मनुष्य काटता है
अपनी हीनता की ग्रन्थि
ईश्वर को कोसना
खुद के सर्वाधिक सुपात्र होने की
एक उदघोषणा भर है
जो कहीं नही सुनी जाती ।

© डॉ. अजीत

असंगत

नदी अकेले गीत नही गाती
उसे किनारों तक आना होता है
अपनी चोट सुनाने के लिए
समन्दर की इच्छा
कोई नही पूछता
रोज एक इंच बढ़ जाता है उसका तल
वो सूरज से मांगता है मदद
ताकि रह सके सामान्य
झरनें के साथ
गिरता है उसका अकेलापन
दोनों तलों पर होती है
अलग अलग किस्म की चोट
ये केवल पानी की कहानी नही
ये तरल होने की पीड़ा है
जैसे आंसूओं की यात्रा
छोटी प्रतीत होती है
एक आँख का आंसू दूसरी आँख तक
नही जा पाता है
नाक की दीवार
आंसू की तरलता और वेग को
देखनें नही देती
हर संगत दिखनें वाली वस्तु में छिपी होती है
एक गहरी असंगतता
यदि यह छिपाव नही होता
मनुष्य को बर्दाश्त करना
सबसे मुश्किल काम था।

© डॉ.अजीत

Monday, April 6, 2015

आग्रह

प्रेम आग्रह की विषय वस्तु कब थी
दोस्ती भी नही
परिचय का आग्रह से वैसे भी कोई नाता नही
आग्रह रीढ़ के झुकने का प्रतीक जब से बना
आग्रह मर गया बेमौत
इससे पहले मैं
आग्रह कर पाता
उसनें खारिज की मेरी उपयोगिता
समझ लिया कमजोर
आग्रह इतनी मंद ध्वनि से उच्चारित हुआ कि
खुद मेरे कान भी न सुन पाए
इस दौर में
आग्रह का एक ही अर्थ था
कमजोर और कायर
और दुनिया क्या तो ताकत को पसन्द करती है
या फिर विजेता को
इसलिए
एक तरफ मैं और मेरा आग्रह था अकेला
और दूसरी तरफ थी सारी दुनिया
निस्तेज आग्रह का क्या करता मैं
मैंने उसको रूपांतरित कर दिया
शिकवे शिकायतों में
दुनिया मुझे समझ न पायी
इसी सांत्वना पर जिन्दा हूँ मैं
ये सांत्वना उसी उपेक्षित आग्रह की संतान है
जो रह गया था कभी अनकहा।

© डॉ.अजीत

Friday, April 3, 2015

बारिश और तुम

कुछ नोट्स बारिश के बारें में
-------
एक बूँद के पास
मेरे नाम की एक चिट्ठी थी
कुछ बूंदों ने
उसे पढ़ लिया
आधी हंसी
आधी रो पड़ी
और बारिश हो गई।
***
धरती नाराज है
बादल से
बादल नाराज़ है
हवा से
हवा नाराज़
पहाड़ो से
ये जो बारिश है
ये नाराजगी की पैदाइश है
इसलिए तुम भी
नाराज हो मुझसे
इतनें हसीन मौसम में।
***
बारिश की
एक अच्छी बात
यह भी है
बारिश बहा ले आती है
शिकायतों की गर्द को
तुम्हारे दर से
मेरे दर।
***
टिप टिप पड़ती बूंदे
जैसे तुम्हारी बालियों से होता हुआ
अंखड रुद्राभिषेक
बारिश की हर बूँद
तब लगती
आचमन के जल सी पवित्र।
***
धरती पर जब लिखे जाते है
शिकायत दुःख अवसाद
भिन्न भिन्न लिपियों में
बारिश के बूंदे
आती है उसे धोनें
ताकि दुःखों में
बची रही नवीनता।
***
बारिश में भींगना
नही होता हर बार सुखप्रद
खासकर तब तो
बिलकुल नही
जब आपको भींगकर
आएं छींक
और चाय पिलाने वाला
कोई ना हो।
***
पिछली बारिश के पास
तुम्हारा ऊलहाना था
इस बारिश के पास
तुम्हारी मजबूरी है
अगली बारिश में
मेरे पास केवल छाता होगा
कोई जवाब नही
ध्यान रखना।

© डॉ.अजीत 

Thursday, April 2, 2015

खफा

बात बेहद छोटी थी मगर बड़ी हो गई
जरा सी गलती से जिंदगी खफा हो गई

मिन्नतें बेअसर रही सारी कशिस खो गई
सफर तन्हा रहा मंजिल ओझल हो गई

आँखों में रहें किसी कच्चे ख़्वाब की तरह
नींद पकी भी न थी अचानक सुबह हो गई

गलतफ़हमियों के जब से सिलसिलें निकलें
फांसलो में तब से गजब की सुलह हो गई

मुन्तजिर थी आँखें धड़कनें थी बेआस
पलकों पर आंसूओं की दोपहर हो गई

© डॉ. अजीत 

ग़ुस्सा

'गुस्से के सात युग'
------------------

एक दिन
किसी बात से
आहत होकर
अचानक उसनें कहा
'फ्लाई अवे'
मेरे मन की उड़ान
दिशा भटक गई उसके बाद
उससे दूर उड़ना
पक्षी के लिए भी असम्भव था
मैं तो आखिर इंसान था।
***
एकदिन वो
मुझ पर इतनी उखड़ गई
कि मैसेज किया
यू आर नोट माय फ्रेंड
उस दिन मैं
खुद से अजनबी हो गया
जब उसका दोस्त नहीं हूँ मैं
तो फिर किसका क्या हूँ मैं।
***
ऐसा पहली बार हुआ
ना उसनें फोन उठाया
ना एसएमएस का जवाब दिया
ई मेल पढ़ी हो
इसका भी पता नही
उस दिन प्रार्थना पर आश्रित था मैं
जैसे कोई असाध्य रोगी
आश्रित हो
महामृत्युंजय मंत्र पर।
***
जानता था
उसका गुस्सा जल्दी शांत नही होता
वो तोड़ देती है
सम्बन्धों के सारे कोमल तंतु
बना लेती राय
फिर भी भरोसा था
मान जाएगी जरूर
और हंसेगी
मेरी मूर्खताओं पर
शायद अगले दिन।
***
उसकी अंतिम
सलाह यह थी
हो सके तो भविष्य में
अपनी कायरता कम करने का प्रयास करना
बतौर पुरुष मेरे अह्म को
इस सलाह पर बुरा नही लगा
क्योंकि अपनी अनुपस्थिति में भी
वो साहसी देखना चाहती थी मुझे।
***
जब वो कह देती कि
मुझे कुछ नही सुनना
फिर सच में कुछ नही सुनती थी
मेरी सफाई लौट आती
मुझ तक लाचार
तमाम शब्द सामर्थ्य के बावजूद मैं
पड़ जाता था नितांत अकेला
तब मैं इन्तजार करता
उसके कान ठंडे होने का
फूंक मारता रहता
दुआ पढ़ते मौलवी की तरह।
***
इस बार का गुस्सा
अनापेक्षित था
मगर था बेहद गहरा रोष
उसनें उतनी कड़वी बातें कहीं
जितनी कह सकती थी
और चली गई
मुड़कर भी नही देखा
सदियों से खड़ा हूँ वहीं
ताकि वो लौटें
तो माफी मांग सकूं
ये शिष्टाचार उसी से सीखा था
जो मुसीबत में
कभी काम नही आया मेरे।

© डॉ. अजीत





Wednesday, April 1, 2015

भरम

जनवरी इक्कीस थी शायद
जब तुम्हें देखा ही नही
महसूस किया था
अप्रैल एक है आज
जब दिमाग को बेवकूफ बनाना चाहा
तुम्हारे अपरिहार्य होने के भरम से
दिल फ़रवरी चौदह में ही अटका रहा
पिछले तीन महीनें
बीते हुए तीन युग थे
आज कलयुग का
पहला दिन है मेरा
शुभकामना नही दोगी !
***
अप्रैल
इस बार थोड़ा ठंडा है
मौसम भूल गया है अपना चरित्र
रिश्तों के वातानुकूलित कक्ष में
टंगी है एक खूबसूरत पेंटिंग
एकदम अकेली
मैं धूप में बादल खोजता हूँ
तुम छाँव में धूप।
***
साल दो हजार पन्द्रह
महीना फरवरी
शिलालेख की तरह दर्ज है
जेहन में
इतिहास बनने से पहले
मनोविज्ञान का हिस्सा होता है
हर किरदार
इतिहास बनना संभावनाओं का
मर जाना है शायद
इसलिए
रिश्तों का दस्तावेज़ीकरण
दुनिया का सबसे मुश्किल काम है।
***
तीन महीनें
या बारह हफ्ते
दौड़ता हूँ समय के विपरीत
और खुद के समानांतर
पहूंचता कहीं भी नही
यात्रा एक भरम है या फिर
मेरी गति अपेक्षित नही
चौथा महीना आते ही
हंसता है मेरी चाल पर
मेरे पैरों में
दो अलग नम्बर के जूते देखकर
जिनके फ़ीते बंद है।

© डॉ. अजीत



Wednesday, March 25, 2015

संयोग

मुमकिन है
किसी दिन लौटना न हो
या फिर रास्ता भूल जाऊं
मिलनें की इच्छाशक्ति
बदल जाए अजनबीपन में
इसलिए
इन्तजार मत करना
केवल इतना सोचना
दुनिया गोल है
पहला रास्ता मिल जाता है
आख़िरी रास्ते से
दुनिया के सभी रास्तें
मिलते है एक दुसरे से
इसलिए जो भी गुमशुदा है
वो आमनें सामनें जरूर पड़ेंगे
एकदिन
एक दुसरे को पहचान पायें या नही
यह वक्त और संयोग की बात है।

© डॉ.अजीत 

Tuesday, March 24, 2015

विकल्प



विकल्पों के
मध्यांतर पर
सबसे ज्यादा होतें है
शब्द खर्च
उलझ जातें हैं भाव
नजदीक और दूर के
चेहरों के बीच
विकल्प दरअसल
मनुष्य की ऊब है
एक बेहतर शक्ल में।
***
नदी शिकायत नही करती
धरती भी नही करती
सहती है पहाड़ का बोझ
हवा फैलाती है अफवाह
मौसम करता है षड्यंत्र
रेत उड़ता है बिखरने के लिए
मनुष्य जीता है मरने के लिए
विरोधाभास जरूरी है
प्रासंगिक बनें रहने के लिए।
***
बीज
दुनिया का सबसे अकेला जीव है
कोई नही पूछता
उसके एकांत के किस्से
जन्म देकर
सो जाता है वो
मिट्टी और नमी के बीच
जन्म देकर जैसे
सबसे अकेली हो जाती है स्त्री।
***
रास्ते
इन्तजार में बूढ़े हो जाते है
उनके संग्रहालय में
कदमों के असंख्य निशान सुरक्षित है
जब कोई रास्ता मरता है
बचें रास्तें गातें है शोकगीत
मिटाते उन कदमों के निशान
जो लौट कर कभी नही आतें।
***
कला के उपक्रम
देह की तलाशी लेतें है
सौंदर्य महज एक आकार नही
वो एक गुमशुदा पता है
जिसे खोजतें है हम
अनुभव की दराज़ में
जब नही मिलता तो
कह देते है बड़ी आसानी से
दरअसल
समझें नही तुम।
***
आसान चीजें
उतनी आसान भी नही होती
जितनी दिखती है
ठीक वैसे
जैसे मुश्किल चीजें
उतनी मुश्किल नही होती
जितनी नजर आती है
जीनें की वजह तलाशना
मौत की वजह तलाशनें से
अधिक मुश्किल काम है
साहसी व्यक्ति जी पातें हैं
दुस्साहसी कर पातें है आत्महत्या
और भगौड़े बांट पातें है
केवल ज्ञान।
***
झूठ बचाता है
उम्मीद
सच बचाता है
झूठ की सम्भावना
सच और झूठ
एक दुसरे के संस्करण है
इसलिए भरम में
मुश्किल हो जाता है
सच और झूठ का फैसला
मसलन आपका दिल बोले सच
और दिमाग उसी को कह दें झूठ।

© डॉ.अजीत

Friday, March 20, 2015

गुनाहों का देवता

प्रेम के स्वप्न आँखों में बो न सके
सुधा तुम, चन्दन हम हो न सके

एक दूरी ही रही हमेशा दरम्यां
नदी तुम,किनारे हम हो न सके

यादों के सिलसिले दूर तक गए
मंजिल तुम, सहारे हम हो न सके

अजब बेबसी थी उन दिनों भी
मीठी तुम,खारे हम हो न सके

वक्त बदलनें की उम्मीद ऐसी थी
मासूम तुम, बेचारे हम हो न सके

© डॉ. अजीत

(गुनाहों का देवता को याद करते हुए)

Thursday, March 19, 2015

मनोरंजन

कवि के पास होना चाहिए जितना आत्मविश्वास
उससे एक बटा दो कम है मेरे पास
लेखक के पास होनी चाहिए जितनी गहराई और रहस्यता
उससे एक तिहाई भी नही मेरे पास
समीक्षक के पास होनी चाहिए जितनी निर्ममता
उसका एक अंश भी नही मेरे पास
मंच पर पहूंचते ही लड़खड़ा जाती है मेरी ज़बान
विचार,शब्द,मीमांसा और सम्वेदना से हो जाता हूँ रिक्त
पत्रिकाओं के पतें तक नही रख पाता सम्भाल कर
सम्पादकों से नही मिल पाता राजकीय अतिथि गृहों में
नही पढ़ा किसी नामी विश्वविद्यालय में
ना ही मेरा कोई गुरु चोटी का साहित्यकार है
बुरे वक्त पर हर किस्म की मदद करने वाले
अच्छे दोस्तों को
मेरी वाणी में व्यंग्य होने की स्थाई शिकायत है
उन्हें लगता है
अपने मामूली जीवन में कुछ ख़ास न कर पाने की खीझ है मेरे अंदर
जब दुनिया से नही बनती तो
उखड़ कर सबकों गरियाने लगता हूँ एकतरफा
ना मैं खुद को बदल पाया ना अपने आसपास की दुनिया को
नितांत ही निजी समस्याओं और संघर्षों के पुराण बांच
मैं हासिल करता आया हूँ सहानुभूति
यह एक आम राय है मेरे बारें में
अपने दौर में खारिज होता हुआ
सरक आया हूँ मैं हाशिए तक
बावजूद इतनें नंगे सच के
दुस्साहस की सीमा तक
निर्बाध हो लिखता हूँ
कविता गद्य और समीक्षा
भले ही उनमें साहित्यिक गुणवत्ता का अभाव हो
छपना तो दूर वो विद्वानों के पढ़ने के स्तर की भी न हो
मगर फिर भी वो पढ़ी और सराही जाती है
पहूंच जाती है अपनी मंजिल तक
अपनी अधिकतम यात्रा तय करके
यह देख
मैं हंस पड़ता हूँ खुद के पागलपन पर
इस तरह से हंसना
मेरे जीवन का एकमात्र मनोरंजन है
जो थकनें नही देता मुझे।

© डॉ. अजीत







हवा

हवा मुझसे कहती है
तुम्हारे कान गर्म है
और माथा ठंडा
मैं हवा की तरफ
पीठ कर देता हूँ
हवा कुछ नही कहती
इसका मतलब यह निकलता हूँ मैं कि
पलायन का तापमान
हवा भी नही जानना चाहती
वो उड़ जाती है
किसी दुसरे माथे और कान का
हालचाल जानने के लिए
एक मौसम वैज्ञानिक ने बताया
जो कभी मन का भी वैज्ञानिक रहा था
मेरी पीठ दक्षिण का पठार है
जहां गलती से हवा आ भी जाए तो
लू में तब्दील हो जाती है।

© डॉ. अजीत

बोझ

धरती मेरे कान में कहती है
जाओ थोड़ी मिट्टी वो लेकर आओं
जहां तुम पहली दफा
अपने पैरों पर खड़े हुए थे
तुम्हारा बोझ
नापना है मुझे
मै घूमता हूँ सारे ब्रह्माण्ड में
नही मिलती उतनी मिट्टी
फिर खड़ा हो जाता हूँ निरुपाय
धरती फिर कहती है
अच्छा थोड़ी देर खड़े रहो
नंगे पैर
अब तुम्हारा द्रव्यमान ही नापा जा सकता है
उसी के सहारे अनुमान लगा लूंगी
तुम्हारे बोझ का
तुम्हारे संतुलन के लिए
मेरा यह जानना बेहद जरूरी है
तुम्हारे बोझ में
कितना बोझ तुम्हारा है।

© डॉ. अजीत


Wednesday, March 18, 2015

आरोप

उसका यह मुझ पर
नया आरोप है
हमेशा शहद में लिपटी बातें
सुनना है मुझे पसन्द
जरा सी तल्खी
नही होती बर्दाश्त
सफाई देकर उसके आरोप की
पुष्टि नही करना चाहता
मेरी पसन्द के मूल्यांकन का
यह सबसे अन्यथा और सतही संस्करण है
क्योंकि मेरी पसन्द में
लम्बे समय से वो अकेली शिखर पर है
अपनी नीम-शहद सी बातों के साथ
प्रेम विरोधाभास के बीच
जीना सिखाता है
इस जीने के बीच
पसन्द एक बेहद छोटी चीज़ है
इसलिए ऐसे आरोप पर
खीझ के पलों में भी
मुस्कुराया जा सकता है बस।

© डॉ. अजीत

खत

नींद एक बेपते की चिठ्ठी है
जो आती है कभी कभी
मेरे दर पर
नही पता कौन लिखता है
ऐसी लिखावट में खत कि
पता आते आते मिट जाता है
ख्वाब एक बूढ़ा डाकिया है
जिसे मनीआर्डर के साथ लिखे दो शब्द
पढ़ने की आदत है
कोरा लिफाफा देख
डाकिए पर मुझे सन्देह होता है
और डाकिया मुझे
सही इंसान समझने से इंकार करता है
थमा मेरे हाथ में लिफाफा
वो लौट जाता है अक्सर
यह बड़बड़ाता हुआ
'कम से कम पता तो
पूरा दिया करों
मिलनें-जुलनें वालों को'।

© डॉ. अजीत

सवाल

कविता पूछती है कवि से
क्यों लेते हो मेरा सहारा
टांक देते हो शब्दों को
आड़ा तिरछा
विरोधाभास के बीच
तुम्हारी बैचेनियों का दस्तावेज़ बन
बोझ से दब जाती हूँ मैं
तुम कवि नही
मतलबी इंसान हो
कवि की शक्ल में
और मैं भी कविता नही
कविता जैसी बची हूँ बस।

© डॉ.अजीत

Friday, March 13, 2015

मन की बातें

मन की बातें: सात के आसपास
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मेरा मन
तुम्हारे मन की गोद में
पलकें मूंदें सो रहा है
गुजारिश है
उठाना मत
पाप लगेगा।
***
एक ख्वाब
तुम्हारी पलकों
पर सूखाया है
आंसूओं की बारिश से
उसे गिला मत कर देना
पुण्य होगा।
***
तुम्हारी हथेली का भूगोल
रेखाओं ने अस्त व्यस्त कर दिया है
पढ़ नही पाता हूँ
तुम्हारे शहर का मानचित्र
अपने हाथ से मिलाता हूँ
स्पर्शों के अक्षांश
और भूल जाता हूँ
देशान्तर के भेद।
***
यथार्थ को जीते हुए
तुम्हारे नाखून
अपना कलात्मक मूल्य खो बैठें हैं
उन्हें तराशने की फुरसत नही तुम्हें
ख़ूबसूरती से इतर
ये तुम्हें लापरवाह दिखातें है
जबकि
तुम्हारी पीठ जिम्मेदारी से झुकी हुई है
ये बात मैं जानता हूँ ।
***
तुम्हारी चप्पल
एक तरफ से अधिक घिसी हुई है
संतुलन के चक्कर में
एक तरफ अधिक झुक जाती हो तुम
नही जानती कि
इससे फिसलनें का खतरा बढ़ जाता है
नही चाहता तुम कभी फिसलों
क्योंकि हर वक्त सम्भालनें के लिए
मैं उपलब्ध नही हूँ
तुम्हारे आसपास।
***
तुम्हारी परछाई में
ऊकडू बैठ
जमीन पर बनाता हूँ एक त्रिकोण
तुम्हारी यूं ओट लेना
पुरुषोचित भले ही न लगे तुम्हें
मगर
यह मेरा तरीका भर है
तुम्हारी छाया से बातचीत करने का।
***
तुम्हारी गर्दन पर
अस्वीकृति की टीकाएं थी
पाप पुण्य के भाष्य थे
बालों से बहते शंका के झरने थे
मगर मैंने पढ़ा प्रेम
जो लिखा था स्पर्श की लिपि में
संयोग से
जिसकी ध्वनि
आलिंगन से मिलती जुलती थी।

© डॉ. अजीत

Thursday, March 12, 2015

फेसबुकिया गज़ल

अच्छे स्टेट्स तो तन्हा ही रहें
पैराडॉक्स सभी हिट हो गए

दोस्ती के नाम इतने तकाजे थे
हम उनके फ्रेम में फिट हो गए

इनबॉक्स में कुछ, कमेंट में कुछ
सटायर उनके सारे विट हो गए

व्हाट्स एप्प पर होती थी बहस
रिश्तें भी अदालती रिट हो गए

पहले लाइक,कमेंट फिर ब्लॉक
तन्हाई में जीने की किट हो गए

© डॉ. अजीत