Monday, April 6, 2015

आग्रह

प्रेम आग्रह की विषय वस्तु कब थी
दोस्ती भी नही
परिचय का आग्रह से वैसे भी कोई नाता नही
आग्रह रीढ़ के झुकने का प्रतीक जब से बना
आग्रह मर गया बेमौत
इससे पहले मैं
आग्रह कर पाता
उसनें खारिज की मेरी उपयोगिता
समझ लिया कमजोर
आग्रह इतनी मंद ध्वनि से उच्चारित हुआ कि
खुद मेरे कान भी न सुन पाए
इस दौर में
आग्रह का एक ही अर्थ था
कमजोर और कायर
और दुनिया क्या तो ताकत को पसन्द करती है
या फिर विजेता को
इसलिए
एक तरफ मैं और मेरा आग्रह था अकेला
और दूसरी तरफ थी सारी दुनिया
निस्तेज आग्रह का क्या करता मैं
मैंने उसको रूपांतरित कर दिया
शिकवे शिकायतों में
दुनिया मुझे समझ न पायी
इसी सांत्वना पर जिन्दा हूँ मैं
ये सांत्वना उसी उपेक्षित आग्रह की संतान है
जो रह गया था कभी अनकहा।

© डॉ.अजीत

1 comment:

Asha Joglekar said...

दोस्ती हो या प्यार बस हो जाता है । उसमें आग्रह की भूमिका कहां। वह तो बाद में आने की वस्तु है जब प्यार या दोस्ती हो जाये।।