Thursday, December 29, 2016

शुभकामना

मत भेजना नए साल पर कोई शुभकामना
जिस साल में तुम न हो
वो नया कैसा हुआ भला

भले नए साल कई महीने बीतने पर
कर देना अचानक से विश
जैसे आईस-पाईस में बोल दिया हो ‘धप्पा’

मत भेजना कोई धुंध में लिपटी शुभकामना
फॉरवर्ड किए संदेशो से उकताया हुआ मेरा मन
नही पढ़ सकेगा तुम्हारा कोई मैसेज

और पढ़कर भी क्या करना है
जब फिलहाल शुभकामना के बदले
शुभकामना नही मेरे पास

इनदिनों मैं प्रार्थनाओं में व्यस्त हूँ
ईश्वर से मांग रहा हूँ रोज़ माफियाँ
न किए गए गुनाहों की भी
मुझे माफ़ी मिले न मिले कोई बात नही
मुझे कोई अफ़सोस न होगा इस पर  

मगर
नए साल पर तुम्हें देखना चाहता हूँ
बेवजह खुश

जब जब तुम किसी कारण से खुश हुई हो
उस ख़ुशी ने ली है हमेशा एक बड़ी कीमत
नये साल पर मत भेजना मुझे कोई शुभकामना
यदि हो सको हो
हो लेना बस एक बार बिना वजह खुश

ईयर न्यू हैप्पी
तभी सीधा पढ़ सकूंगा मैं.


डॉ. अजित 

रास्ता भूल

मैं कही खो गई हूँ शायद
शायद इसलिए कहा
क्योंकि
अब मै पता नही पूछ रही हूँ
पता पूछने वाला
जरूर एकदिन कहीं पहुँच ही जाता है
मुझे जहां या कहां जाना था
ये मैं ठीक से शायद बता भी दूं
मगर क्यों जाना था
ये बता पाना मुश्किल होगा मेरे लिए

अनुमानों के जरिए एक चित्र बनाती हूँ मै
चित्र में शायद जोड़ रही हूँ क्योंकि
रास्ता भूलने के कारण
चित्र की ध्वनि लग सकती है
कुछ कुछ मानचित्र जैसी

उस चित्र में मैं हूँ तुम हो
मगर कोई दृश्य नही है
मसलन इस चित्र की कोई मनोदशा नही है
ये रास्ता भूले किसी दूसरे मुसाफिर से नही मिलवाता
यदि ऐसा करता तो शायद
मैं हंसते हंसते रो पड़ती
मैं नाचते हुए उदास न होती

मैं रास्ता भूल गई हूँ
मैं कहीं खो गई हूँ
ये फ़िलहाल मुकम्मल बयान है मेरे लिए
जिसकी पुष्टि के लिए
कविता की शक्ल में जगह जगह
'शायद' टांक दिए है
किसी पार्टी वियर फॉर्मल शर्ट के एक्स्ट्रा बटन की तरह

मैं रास्ता भूल गई हूँ
इसलिए औपचारिक होकर मिटा रही हूँ
अपना थोड़ा भय
थोड़ा अपराधबोध

बुरा मत मानना यदि मै पूछूं कई बार
कैसे हो !
वैसे भी
जो रास्ता भूल जाए
उसकी बात का क्या बुरा मानना भला।

©डॉ.अजित

Wednesday, December 28, 2016

झूठ

झूठ सिर्फ मैं प्रेम में बोलूंगी
इतना भर झूठ कि
तुमसे नफरत और प्रेम
एक साथ किया मैंने
रख दूंगी
छटांक भर मुस्कान
गुमशुदा चेहरे पर
ताकि मुझे खुश देख
तुम महसूस कर सको
आसपास बिखरी छोटी छोटी खुशियां
प्रेम में इतना झूठ जरूर बोलूंगी
तुम्हें कितनी दफा
भूलने के लिए संकल्प
मगर नही भूल पाई कभी
प्रेम में झूठ बोलना जरूरी है मेरा
क्योंकि
प्रेम में बोला गया सच
एकदिन शापित होता है
झूठ बन जाने के लिए।

© डॉ.अजित

Tuesday, December 20, 2016

उम्मीद

कविताएं
जो सुनानी थी
खत जो दिखाने थे
फोटो जो साथ क्लिक करने थे
छूटे हुए सपनें जो गिनाने थे

जिंदगी के ऐतबार पर
किस्सों को बुनना था
कुछ बिखरे हुए हिस्सों को
हंसते हुए रोज़ चुनना था

काम सब के सब अधूरे रहे
कहे अनकहे ख्याल सब लौट आए
मुझ तक देर सबेर

तुम्हारा पता सही था
खत भी खुले थे
डाकिया भी भरोसे का था

बस तुम अनुपस्थिति थी चित्र से
तुम्हारी अनुपस्थिति की तह बना रख ली है
एक धुंधली सम्भावना की शक्ल में

उम्मीद मनुष्य को बार बार निराश होने के लिए
प्रशिक्षित करती है
मैं उम्मीद की शक्ल में देखता हूँ तुम्हें

निराशा इसलिए सबसे अधिक प्रिय है मुझे।

©डॉ.अजित

Sunday, December 18, 2016

तुम बिन

तुम मेरे जीवन में
पूर्ण विराम थे
आधे अधूरे वाक्य
और प्रश्नचिन्ह के बाद
अनिवार्य थी तुम्हारी उपस्थिति
तुम्हारा बिना अर्थ छूटे सब अधूरे
बिगड़ा जीवन का व्याकरण
अब कोई यह तय नही कर पाता
मुझे पढ़ते हुए
उसे कहाँ रुकना है।
*****
तुम मेरे जीवन में
अवसाद की तरह व्याप्त थे
तुम्हारे बिना लगता था खालीपन
तुम रह सकते थे
सुख और दुःख में एक साथ
तुम्हारे बिना
सुख और दुःख में मध्य अटक गया मै
इसलिए
नजर आता हूँ
हंसता-रोता हुआ एक साथ।
***
दो दिन से मुझे बुखार है
माथे पर रखा हाथ याद आता है मुझे
ताप जांचता हूँ गालों को छूकर
आँखों बंद करता हूँ तो
नजर आती हो तुम नसीहतों के साथ
बीमार हूँ मगर खुश  हूँ
ये खुशी
तुम्हारी बात न मानने की है।
***
उन दिनों और इन दिनों में
ये एक बुनियादी फर्क है
अब बुरा लग जाता है
बेहद मामूली बातों का
तुम्हारे बिना खुद को बचाना पड़ता है
दुनिया और उसकी धारणाओं से
तुम्हारे साथ लड़ना अनावश्यक लगता था
उन दिनों अनायास लापरवाह था
इन दिनों सायास सावधान हूँ मैं।

© डॉ.अजित 

Saturday, December 10, 2016

सर्दी की बातें

बहुत दिन बाद उसने पूछा
कैसे हो?
मेरे पास इस सवाल का
एक अस्त व्यस्त जवाब था
इसलिए मैंने कहा
बिलकुल ठीक
उसके बाद
बहुत दिनों तक हालचाल नही पूछा उसने
सम्भवतः वो समझ गई थी
बिलकुल ठीक के बाद
मुद्दत लगती है सब कुछ ठीक होने में।

***
परसों उसका फोन आया
जब तक फोन जेब से निकाला
फोन कट गया
इसका एक अर्थ यह लगाया मैंने
वो उसी क्षण चाहती थी मेरी आवाज़ सुनना
लेशमात्र का विलम्ब शंका पैदा कर गया होगा
जैसे ही कॉल बेक के लिए फोन किया टच
दूसरा फोन आ गया अचानक से
इस तरह टल गया मेरा भी वो क्षण
जब कुछ कहना था मुझे
प्रेम में टलना एक बड़ी दुर्घटना थी
ये बात केवल जानता था हमारा फोन।
***
उस दिन मैंने मजाक में कहा
प्लास्टिक मनी नही मेरे पास
वरना कॉफी पिलाता तुम्हें
उसने हंसते हुए कहा
अच्छा है नही है तुम्हारे पास
वरना कॉफी नही
शराब पिलाने के लिए कहती तुमसे
मैंने कहा यूं तो कैशलैस एक अच्छा अवसर हुआ
उसने उदास होते जवाब दिया
जब तुम होपलैस हो
फिर कोई अवसर अच्छा कैसे हो सकता है?
***
लास्ट दिसम्बर की बात है
एक धुंध भरी सुबह
उसने कहा
मौसम को चिढ़ा सकते हो तुम
मैंने कहा वो कैसे?
उसके बाद उसने मुझे गले लगा लिया
और हंसने लगी
उस हंसी के बाद
दिसम्बर उड़ गया धूप बनकर
पहली बार हंसी के बदले
मुझे सूझ रहा था
केवल मुस्कुराना।

© डॉ.अजित

Friday, December 9, 2016

माया

कॉपी पेस्ट
वहां की उत्कृष्ट रचनात्मकता थी
और शेयर करना अधिकतम कृतज्ञता
ब्लॉक करना दण्ड का अधिकतम रूप था
फ्रेंड बनाकर अन्फ्रेंड करना
तकनीकी का मानवोचित प्रयोग
फेक प्रोफाइल अय्यारी का स्कूल था
जिसमे दीक्षित होते दोनों
ब्लॉक करने वाले भी
ब्लॉक होने वाले भी
चित्रों की निजता बचाए रखने के लिए
एक मात्र उपाय ओनली मी था
जिसे करने वाला खुद पर गुस्सा होता था पहले
वायरल वीडियो और वायरल पोस्ट
दोनों बीमारी नही थी मगर बीमारी से कम भी न थी
लाइक और दिल में महज इतना फर्क था
दोनों को उलटा समझ लिया जाता था कभी कभी
इनबॉक्स मंत्राणाओं यातनाओं और परनिंदा के शिविर थे
जहां घायल योद्धा अचेत बड़बड़ाते रहते थे
यह पहली ऐसी आरोग्यशाला थी
जहां बीमार करते थे बीमार का इलाज़
वो पश्चिम के एक युवा का अंतरजाल पर षड्यंत्र था
जिसमें बुरी तरह फंस गए थे पूरब के लोग
दक्खिन के लोग हसंते थे
उत्तर के लोग रोते है ये सब देखकर
वो फेसबुक थी जिसका उच्चारण स्त्रीलिंग था
मगर जिस पर पसरा था टनों पुल्लिंग का अहंकार
पुराणों और सत्यनारायण की कथाओं से ऊबी औरतें देख रही थी वहां औसत मनुष्य का दैवीय खेल
उनका हंसना रोना महज दर्शकीय प्रतिक्रिया न थी
मंच का नाम जरूर था
मगर खेल जाते थे वहां रोज नाटक नेपथ्य में
सबके पास थे अपने अपने सच के अलौकिक संस्करण
वो मायावी दुनिया कतई नही थी
वहां के लोग मगर मायावी थे
इतने मायावी कि
ये पहचाना मुश्किल था
कौन सी प्रोफ़ाइल एक्टिवेट होकर भी
डिएक्टिवेट थी
और कौन सी डिएक्टिवेट होकर भी
एक्टिवेट।

© डॉ.अजित

Thursday, December 8, 2016

निकलना

हंसी तुमने देखी है हमारी
मगर हम रो कर निकले है

जितना हासिल किया तुमने
उतना हम खो कर निकले है

धूप में भी छांव मिल जाएगी
बीज एक हम बो कर निकले है

पहुँच ही जाएंगे खत सब पते पर
ख्याल  दिल भिगो कर निकले है

कोई रहता था हमेशा वहां
जहां से हम हो के निकले है

©डॉ.अजित

Tuesday, December 6, 2016

गजल

पहले कह देता था
अब कहता नही हूँ

मान लो आदमी हूँ
कोई खुदा  नही हूँ

बेखबर हूँ थोड़ा सा
तुझसे जुदा नही हूँ

रो नही सकता अभी
खुद पे फ़िदा नही हूँ

बिछड़ नही सकता
तुमसे मिला नही हूँ

थोड़ी सी पीने दो
अभी खुला नही हूँ

© डॉ.अजित

Monday, December 5, 2016

ईश्वर

कुछ सवालों के जवाब
इसी जन्म में पूछे जाने चाहिए ईश्वर से
नही कर देना चाहिए उसे दोषमुक्त
प्रारब्ध के नाम पर

क्यों मर जाता है वो पिता
जिसकी जरूरत सबसे अधिक उसके बच्चों को है?
क्यों पराजित होता जाता है
एक सीधा सच्चा इंसान हमेशा

रोटी पर पहला हक क्यों नही उसका
जिसका सबसे ज्यादा पसीना शामिल है उसमें
क्यों कुछ लोग तय कर देते है
भीड़ का भविष्य बिना उनकी रायशुमारी के

दुःखो से ऐतराज़ नही
मगर क्यों मिलते है ऐसे अकथनीय दुःख
जिनका कोई उपचार नही

कब तक ईश्वरीय सत्ता के भरोसे
अपने प्रश्न टालता रहेगा
एक मजबूर हैरान परेशान मनुष्य
कब तक धर्म और आध्यात्म के नाम पर
गलत ठहरा दिया जाएगा
उसके बेहद बुनियादी और जरूरी सवालों को

कैसा लगता होगा उस दयालु ईश्वर को
जब मनुष्य को देखता होगा बेबस और मजबूर
यदि वो न्याय कर रहा पूर्वजन्मों के कर्मो से

तो
इस जन्म में मैं खारिज़ करता हूँ
ईश्वर का दयालु होना

ईश्वर दयालु नही बेहद चालाक है
वो हमेशा छोड़ना चाहता
उसको पूजने के कारण
भले ही इसके बदले
घुटकर मर जाए
एक सीधा सच्चा आदमी बेवजह

ईश्वर पर सवाल खड़े करने के लिए
भले दण्डित किया जाए मुझे
मगर बतौर इंसान मुझे ईश्वर का चरित्र लगता है
हमेशा संदिग्ध
उसका न्याय का दर्शन नही आता समझ
खोखली लगती है आस्था की तकरीरे
कई बार ईश्वर लगता है
मनुष्य से ज्यादा मजबूर और असुरक्षा से घिरा

मनुष्य के कष्ट
उसके शाश्वत बने रहने का
एक मात्र उपाय है।

© डॉ.अजित