Tuesday, January 29, 2019

यात्रा


कविता में दर्शन था
और दर्शन में कविता
यह बात मनोविज्ञान के जरिए पता चली
मगर उस समय मन का भूगोल
राजनीतिक विमर्शों में व्यस्त था
इसलिए अंत में सम्बन्धो के गणित में
केवल बचा औपचारिक शिष्टाचार का
नागरिक शात्र.  
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एक गहरी बात में में दिमाग में अटक गई
एक हलकी बात दिल में अटक गई
कविता दोनों की तरफ हाथ बढ़ाती थी
और मैं अंदर की तरफ धंसता जाता था
कविता के सारे प्रयास हुए विफल
मुझे बाहर निकालनें के
और आखिरी तौर पर मुझे
रस आने लगा था यात्राओं के किस्सों में.
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प्रेम में गल्प न था
प्रेम में कल्पना भी न  थी
प्रेम में जो यथार्थ था
वो गल्प जैसा लगा
कल्पना के सघनतम क्षणों में
इस तरह कल्पना ने बताया मुझे
प्रेम मुझमें नही था
मैं प्रेम में था.
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उसने कहा
क्या तुम अवांछित हो
जो हमेशा पूछते हो दूसरों से
खुद के बारें में राय
मैंने कहा
नही, मैं शायद उनके बारें में
खुद की राय तलाशता हूँ
इस बहाने
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© डॉ. अजित


Saturday, January 26, 2019

एकदिन सब ठीक हो जाएगा

वो दुनिया पर करती कोई तंज
मुझे खुद पर लगता था
वो करती किसी को खारिज़
बिखरने मेरा वजूद लगता था
उससे प्रशंसा की अपेक्षा से
लगभग मुक्त था मैं
मगर उसके कटाक्षों से
सतत भयातुर बना रहता था

अरसा बीत जाता था
उससे बतियाए हुए
मगर उसकी बातें हमेशा रहती थी
मेरे इर्द-गिर्द
इसलिए नही जानता मैं
क्या होता है अकेलापन

खुरदरे पहाड़ पर जमी हरी दूब
देख याद आता था उसका प्यार
अचानक से छाए बादल सा था
उसका गुस्सा
धूप को भागते देख
अक्सर घबरा जाता था मैं

उसकी नजरों में सदा अच्छा
बनें रहने की कोई इच्छा नही थी मेरी
मगर, सच्चा जरूर बना रहना चाहता था
दुनिया की रीत की तरह
एक दूसरे का दिल दुखाकर
अलग नही होना चाहता था मैं

और अलग होने में
दिल दुखाना अनिवार्य शर्त थी
उससे अलग होने की कल्पना की
कल्पना से भी बचता था मैं

ये बातें उसे नही थी मालूम
यह एक डरावनी बात जरूर थी

उससे रिश्ता अपवाद की शक्ल का था
इसलिए बचाता रहा उसे हमेशा किसी
वाद-विवाद से

उसका अन्न खाया था मैंने
उसके प्रेम को मीठे नही नमक के जरिए
जानता था मैं
इसलिए हमेशा चाहता था
उसकी शंकाओं के अनुमानों में
बना रहे दाल में नमक जैसा संतुलन

उसे खोने के हजार बहानो
और खोने की फिसलन को
बुद्धि से विलग रख हमेशा बचाता था
यह कालजयी संभावना
'एक दिन सब ठीक हो जाएगा'।

©डॉ. अजित

Tuesday, January 22, 2019

दुष्ट


एक दीगर बातचीत में
तुमनें मुझे
एक बार मेरे नाम से पुकारा
एक बार व्याकरण का सहारा लेकर
छुपा लिया मेरा नाम
और अंत में हँसते हुए कहा दुष्ट

मैं तुम्हारा नाम लेने की
मन ही मन भूमिका बनाता रह गया हर बार
अधूरे रहें मेरे सारे सम्बोधन

ऐसा नही कि तुम्हारे नाम पुकारनें का
आत्मविश्वास नही था मेरे पास
बस मैं पुकार नही पाया कभी
तुम्हें तुम्हारे नाम से

जब तुमने दुष्ट कहा मुझे
यकीन करना दोस्त !
ठीक उस वक्त मुझे हुआ यह अहसास
कि सच में कितना बड़ा हूँ मैं.

© डॉ. अजित

Friday, January 11, 2019

मोक्ष

एक छोटा सा जीवन मिला था
कितना कुछ करना था उसमें
एक पूरा जीवन तो चाहिए था
केवल प्रेम के लिए

प्रेम करने के जो संस्मरण थे
मेरे पास
वो दरअसल
प्रेम को जानने के दावें भर थे

प्रेम ठीक वहीं से होता था
आरम्भ
जहां से सारे दावें हो जाते थें
समाप्त

एक जन्म में मैं केवल
प्रेम करूँगा
फिर शायद बता सकूंगा
ईश्वर के बारें-बारें में
वो सब बातें
जो खुद ईश्वर भी नही जानता था
अपनें बारें में

मुझे भय है
कहीं इसी डर से ईश्वर
इसी जन्म में मुझे न दे दे
मोक्ष

© डॉ. अजित

Tuesday, January 8, 2019

भार

उसे सब कुछ अच्छा
अपने पास चाहिए था
सबसे अच्छे दोस्त
सबसे अच्छी किताबें
सबसे अच्छे फोटो
वो हर अच्छाई की तलाश में व्याकुल थी

उसके निजी संग्रहालय में
रौशनी की सख्त दरकार थी
जिसके लिए वो भरोसे थी
अच्छे दोस्तों के
अच्छी किताबों के
और अच्छी फोटो के

उसकी अधीरता देख
ईश्वर हंसता था अकेले में
और मनुष्य रोता था भीड़ में

वो मुद्दत से जोड़ रही थी
सब बढ़िया ही बढ़िया
इसलिए उसके पास नही बची थी
जगह किसी खराब चीज़ के लिए

खराब चीजें उसके पास से
हट गई थी स्वत:
अच्छाई के भार से
वो इस कदर दबी थी

उसे दिलाना पड़ता था याद
कोई खराब प्रसंग
ताकि जीवन में बचा रहे
अच्छे-खराब का संतुलन

जिसे वो समझती थी ईर्ष्या।

©डॉ. अजित

कविता में याद

जब-जब मेरे जीवन से
अनुपस्थित रही तुम
कविता ने निरस्त कर दिया
मेरा चुनाव

कविता का कौन सा
अनुबन्ध था तुम्हारे साथ
नही मुझे मालूम

मगर कुछ कविताओं के साथ
कसक के साथ याद आती रही तुम
और कुछ कविताओं ने की मेरी मदद
तुम्हें फिलहाल भूल जाने में

जब भी पढ़ता था
अपनी पुरानी कविताएं
याद आती थी हमेशा वो बातें
जो चूक गया था मैं कविता में कहने से

मगर नही बनती थी
उन बातों से कोई नई कविता
धीरे-धीरे शब्द उड़ जाते थे व्योम में
देकर मुझे सतही सांत्वना

तुम्हें याद करने के लिए
मुझे नही जरूरत थी
किसी बहाने की
मगर तुम याद आती रहती
गाहे-बगाहे किसी बहाने से

कल ही मैंने
तुम्हारा नाम पढ़ा किसी की कविता में
मुझे ठीक-ठीक प्रेमी जितनी ईर्ष्या हुई
जबकि तुम्हारा प्रेमी नही था मैं

बाद में वो कविता इतनी भायी मुझे
उसे लिखकर तकिए नीचे रख सो गया मैं
मुझे नही आया तुम्हारा कोई स्वप्न
यह सोचकर उदास नही हुआ मैं

कुछ कविताओं में जगह-जगह
आज भी तुम बैठी हो चुपचाप
एक गम्भीर श्रोता की शक्ल में
कुछ कविताओं में तुम नही हो
मैं दोनों किस्म की कविताएं
मिला देता हूँ आपस में

ऐसा करना यह भरोसा देता है मुझे
तुम कहीं हो तुम कहीं नही हो।

©डॉ. अजित

Saturday, January 5, 2019

इतवार

वैसे तो याद नही रही
कभी दिनों की मोहताज़
मगर इतवार के दिन
जो कसक के साथ आती है याद
उसकी आह बनी रहती है
हफ्ते भर

इतवार यादों को छांटने का दिन नही
इस दिन यादें खुद हो जाती है
अलग-थलग
फिर सबसे पहले जो आती है याद
बनी रहती है वो देर रात तक

वैसे तो यह दिन छुट्टी का है
मगर यादों के हिस्से नही होती
एक भी छुट्टी
जैसे ही भूलने को होते है किसी को
इतवार आ जाता है

फिर दिन भर
यादों के भरोसे
अच्छी बुरी बातों को सोचतें
किस्सों को मन की आंच पर सेंकते
बीत जाता है इतवार

रात को सोने से पहले
कहता है मन एक बार
यूं होता तो क्या होता
इसके बाद
सपनों की दुनिया से बैरंग
लौट जाती है इतवार की यादें

क्योंकि
सपनों में उन यादों का नही मिलता
कोई जिक्र
सपनों में आते है जो
वो सुबह होते-होते नही रहते याद

इसलिए
हमेशा बची रह जाती है
इतवार की यादें।

© डॉ. अजित