कविता
में दर्शन था
और
दर्शन में कविता
यह
बात मनोविज्ञान के जरिए पता चली
मगर
उस समय मन का भूगोल
राजनीतिक
विमर्शों में व्यस्त था
इसलिए
अंत में सम्बन्धो के गणित में
केवल
बचा औपचारिक शिष्टाचार का
नागरिक
शात्र.
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एक
गहरी बात में में दिमाग में अटक गई
एक
हलकी बात दिल में अटक गई
कविता
दोनों की तरफ हाथ बढ़ाती थी
और
मैं अंदर की तरफ धंसता जाता था
कविता
के सारे प्रयास हुए विफल
मुझे
बाहर निकालनें के
और
आखिरी तौर पर मुझे
रस
आने लगा था यात्राओं के किस्सों में.
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प्रेम
में गल्प न था
प्रेम
में कल्पना भी न थी
प्रेम
में जो यथार्थ था
वो
गल्प जैसा लगा
कल्पना
के सघनतम क्षणों में
इस
तरह कल्पना ने बताया मुझे
प्रेम
मुझमें नही था
मैं
प्रेम में था.
**
उसने
कहा
क्या
तुम अवांछित हो
जो
हमेशा पूछते हो दूसरों से
खुद
के बारें में राय
मैंने
कहा
नही,
मैं शायद उनके बारें में
खुद
की राय तलाशता हूँ
इस
बहाने
**
©
डॉ. अजित