Thursday, February 25, 2010

एक साल पहले की बात

कल रात बिना पूर्व कार्यक्रम के अपने गांव मे गुजारी। अनुभव एकदम नया तो नही लेकिन सोचने पर रोचक लगने लगा जो शायद देहाती परिवेश के प्रति एक आन्तरिक लगाव की उपज हो सकता हैं।पहले शिक्षा और अब अर्थ पर केन्द्रित हमारी विवशताएं जो हमे शहर ले ही आई,सोचा नही था कि कुछ बडा या विशेष करना है लेकिन सपनों मे बसी रंगीनीयत और तथाकथित बौद्दिक परिवेश ने शहर मे समायोजन करने के लिए पर्याप्त सहयोग किया और गांव के चौडे आंगन से टू रुम फ्लैट मे स्थापित हो गये।
लेकिन एक बैचेनी हमेशा हमारे अंदर बनी ही रहती है भले ही ऊँची डिग्रीयां,रसूखदार लोगो मे उठ-बैठ और पर्याप्त सामाजिक स्वीकृति हो लेकिन अपने अन्दर के एक देहाती मन को जब भी अवसर मिलता है वो उडान भर कर गांव की गलियों,चौपालो पर भटकता ही रहता हैं।
लम्बी भूमिका लिखने की आवश्यकता नही है लेकिन कभी-कभी हम भी शहर के ‘शहरी’ होने के चक्कर में गांव और समस्या दोनो को एक ही मान बैठते है मसलन यार! गांव मे न बिजली होती है और न ही पानी(मिनरल),न ही अखबार आदि-आदि।
लेकिन हम यह कभी अनुभूति नही कर पातें कि गांव की मौलिकता उसकी खास जीवनशैली और वस्तुओं/साधनों पर निर्भरता न होने से हैं,वहां पर अभाव का भी एक अलग भाव है। एक सहजता का बोध है और सबसे बडी बात विशुद्द संवेदना है।
शहर मे थोडी देर के लिए बिजली गुल होते ही लगने लगता है कि जीवन कितना असहनीय है,पानी का टैंक तुरन्त खाली हो जाता है पीने के पानी की किल्लत अलग से और सबसे बडी बात समय काटने का वैद्यानिक यंत्र टी.वी.के न चलने पर श्रीमती की पीडा अपने आप मे अबुझ प्रतीत होती है।
मोबाइल डिसचार्ज़ होने लगता है ये स्थिति तो एक-दो घंटे के कट की है अगर ये समय सीमा बढी तो भइया फिर तो हम यंत्र की भांति वही रुक कर खडे हो जाते है,कितने यांत्रिक हो गये है हम!
अब गांव की बात खासकर यू.पी.के गांव वाले बन्धु इस सार्वभौमिक सत्य से तो अवगत ही होंगे कि हमारी शाम चिरकालिक रुप से डिब्बी/लैंप से ही रोशन रहती है अपने 28 वर्ष के अल्पजीवन मे शायद ही कभी शाम का भोजन बिजली के प्रकाश मे किया हो लेकिन इस बात का भी लिखित मलाल हमें नही होता है।
अथकथारम्भे:
जब मैन गांव पहुंचा रात्री के लगभग 8 बजे थे,गलियों मे घुप्प अंधेरा कही-कही किस घर मे डिब्बी(डीज़ल से जलने वाली) टिमटिमा रही थी, दूर से ही विरक्ति भाव के साथ हर अजनबी पर भौंक कर कुत्ते अपने सजग होने का परिचय दे रहे थे।एक ये शहरी कुत्ते भौंकते ज्यादा है और घर के अन्दर जाते ही क्या तो आप टूट पडेंगे या डराकर फिर पैर चाटना शुरु कर देंगे अपने बेवफा मालिक वो वफादारी का सबूत देते हुए।
घर पहूंचा तो चूल्हा उदास ही पडा मेरी प्रतिक्षा मे सुलग रहा था, नमस्कार/चरण-स्पृश आदि होने के बाद माताजी ने भोजन परोस दिया बस अपन का देहाती मन यंही से जाग उठा और तुलना एक तन्त्र स्वत: विकसित होता गया मन मे...।
खाने मे दाल-चावल और चटनी(सिल-बट्टे वाली) बनी थी ये तो माताजी से पता चल गया लेकिन उनके रंग-रुप,मात्रा के दर्शन मैने अनुभूति के माध्यम से ही किए। प्रकाश के नाम पर एक डिब्बी जल रही थी जो कभी भभक पडती तो कभी मंद पड जाती थी लैम्प भी अपनी ठीक से सफाई न होने की शिकायत करता हुआ एक चिडचिडा सा प्रकाश फैला रहा था लेकिन प्रोढो वाली सहजता के साथ।
शहर मे भिन्न तरकारियों,बून्दी रायता,दही,पनीर और सलाद के आकर्षक प्रस्तुतिकरण के बाद भी मैने वो स्वाद नही महसूस किया जो मैने घर के मंद प्रकाश के दाल-चावल चटनी का था,शहर मे उचित/अनुचित परम्पराओं के चलते रोमांटिकता के जबरन पैदा किए गये बोध के साथ अनुशासित वेटरो की उपस्थिति मे बडे रेस्त्राओं के तथाकथित कैंडल लाईट डिनर का स्वाद भी फीका ही लगा मुझे घर के उस आत्मीय भोजन के समक्ष।
अपने गांव की जीवनशैली का एक आत्मीय ठहराव मुझे सोचने पर विवश करने लगा कि संभवत: शहर की सी.एफ.एल. और हाई मास्ट लाईट से बचकर कुछ राहत मिलती है तो वो गांव के इस बेरौनक प्रकाश मे ही, यहां कुछ तय नही है एक सहजता है जो सुविधाओं पर निर्भर नही है।
भोजन के उपरांत ‘दूध’ जो गांव की एक स्थाई परम्परा है किस ‘टोन’ का होता है ये हमे भी पता नही,जहाँ शहर मे बच्चो को डायटिशियन की सलाह पर अलग और बीमारो के लिए अलग (तीसरी श्रेणी को दूध की जरुरत नही,क्योंकि वो दूध नही काफी पीते है,मुझे अब लगने लगा है कि चाय भी ओल्ड फैशन हो गयी है) दूध खरीदा जाता है और ऊपर से तूर्रा ये कि शक्कर(चीनी) नाम मात्र की होनी चाहिए एकदम लौ कैलोरी डाईट।
घर का दूध एकदम गाढा और बडा गिलास पीकर ऐसा लगा कि ये प्यास कब दफन हो गई मुझे खुद पता नही चला।
अब सोने की बारी है,गांव मे बिजली का कोई भरोसा नही है सो पंखे के नीचे बंद कमरो मे सोने की परम्परा नही है,बिजली का आना एक संयोग की विषय-वस्तु होती है। लोग बगड(घर का आंगन/चौक) मे लाईन से खाट(चारपाई) लगा कर सोते है और अपन सौभाग्य की एक झुठी आस पर प्रतिदिन एक बडा फर्राटा पंखा (तूफान फैन) लगा दिया जाता है जो गर्मियों मे कभी-कभी चलता है वो भी कुछ देर के लिए लेकिन लगता प्रतिदिन है।
पिताजी के आदेश पर मेरी चारपाई छत पर उनके साथ लगा दी गई और मै चारपाई मे पैक हो गया मच्छरदानी के साथ क्या बढिया विकल्प है गुड नाईट/आल आऊट का एकदम प्राकृतिक।ओस से बिस्तर पर एक ठंड का अहसास लेटते ही हुआ उपर आकाश तारो से भरा हुआ है एकदम शांत न कूलर/पंखे की आवाज न टी.वी.मोबाईल का शोर, कल्पना ऐसी ऊंची उडान भरती है कि एक बढिया कविता लिखी जा सकती है।
यह अहसास अभिव्यक्त नही किया जा सकता है जो मैने शहर के सुविधाभोगी मे कभी महसूस नही किया। मोबाईल नेटवर्क कभी साथ छोड देता है कभी आ जाता हैं,मन मे एक अजीब सी शांति है शहर मे नेटवर्क बिज़ी हो जाएं या चला जाए तो मन आशंका और दूविधा से भर उठता है लगता है कि सारी महत्वपूर्ण काल इसी समय आनी थी लेकिन यहां ऐसा बिल्कुल भी नही है अंत मे मैने फोन स्विच आफ किया और आकाश की कल्पनाओं के रथ पर सवार होकर अपलक निहारता कब नींद के आगोश मे चला गया पता ही नही चला....।

अभी बस इतना ही हो सकता इस बार होली गांव मे ही मनाई जाए...उसके बारे बाद मे लिखूंगा।

डा.अजीत

Tuesday, February 23, 2010

अलविदा

बहुत दिनो से मैंने
अपना फोन को स्विच आफ नही किया
इस डर से कंही उसी वक्त तुम मुझे फोन करके
यह बताना चाह रही हो कि
मै अब उतना ही आउटडेटड हूं
तुम्हारे जीवन मे
जितना कि
तुम्हारे कम्पयूटर का कभी न डिलीट होने वाला
एंटी वायरस
हर एसएमएस पर चौकना अभी तक जारी है
इस उम्मीद पे कि तुम मेरी घटिया शायरी और
फारवर्ड किए गये संदेशो पर आदतन
वाह-वाह के दो शब्द भेज रही होगी
दवा के माफिक
बहुत दिनो से मुझे एक आदत और
हो गयी है मै बिना बात ही लोगो से बातचीत मे
तुम्हारा जिक्र ले आता हूं
चाहे बात वफा की हो या बेवफाई की
सुनो ! मैने अभी-अभी सोचा है कि मैं
अपना सिम बदल लूं
ताकि जब कभी हम मिले तो
तुमसे औपचारिक रुप से
यह सुन सकूं कि
बिना बताए नम्बर क्यों बदल लिया
तुम्हे बिना बताए किए जाने वाले
कामों की एक लम्बी लिस्ट है
मेरे पास
और तुम्हारे पास इतना भी वक्त नही
कि मुझसे बोल के जा सको
अलविदा....

डॉ.अजीत

Sunday, February 7, 2010

आग्रह

अक्सर
तुमने कही गई बातों
को एक श्रृंखला के साथ याद रखा
जो अक्सर सन्दर्भ के साथ
तुम प्रस्तुत भी करती हो
लेकिन क्या कभी तुमने यह
नही जानना चाहा कि
इतने कहे गये के बीच
कुछ अनकहा भी हो सकता है
जिसके लिए उपयुक्त अवसर न मिला हो
ऐसा बहुत बार हुआ है कि
मैने जो सोचा वो कहा नही
और जो कहा वो सोच कर नही कहा
जिसे क्षणिक उत्तेजना मानकर
मैने छोड दिया था यू ही
आज मैने देखा उस हर बात एक अर्थ था
एक ऐसा अर्थ जो समर्थ न हो सका
ऐसी अनकही बातो पर मै एक लम्बा चौडा पत्र
लिख सकता हू
पत्र ही नही
और भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है
कविता,कहानी या गज़ल
ऐसी तमाम अनकही बातो पर
मै बेवक्त बात करना चाहता हू तुमसे
बिना तुम्हारे मूड की परवाह किए हुए
शायद तुम बहुत सी बातो पर चौंक जाओ
और कहो पहले क्यों नही बताया
हो सकता तुमको ये सब बोझिल लगे
एक चिड-चिडी शाम की तरह
या मै भी बेतुका लग सकता हूँ
मै कहूंगा और रस के साथ कहूंगा
वे सब अनकही बातें
जो मुझे कभी बैचेन करती है
कभी एक राहत भी देती है
और फिर मेरी सब से बडी
जिज्ञासा तो इन बातो के साथ
तुम्हारा मन टटोलने की है
चलो एक शाम अपनी अपनी
अनकही बातो से रोशन करके देखें
शायद फिर यह अधेंरा छट जाए
जिसमे हम
एक दूसरे को ठीक
से देख नही पा रहे हैं
इस बात पर विचार करना
आग्रह है मेरा...।
डॉ.अजीत

Saturday, February 6, 2010

एक बात


तुम्हारे साथ
मै अकेला नही होता
मेरा साथ होता
मेरा अकेलापन
जिसको बिसरा कर
तुम आग्रह पर आग्रह किए जाती हो
और मै सापेक्ष अभिनय
इस नाट्यशाला मे ऐसा नही
मुझे हमेशा द्वन्द होता हो
कभी कभी मै लुत्फ भी ले रहा होता हू
बिना तुम्हे बताए
तुम्हारी अपेक्षाओं के अनुसार मै हर
चीज उधार की ले आया हूं
ये जो हंसी है
यह भी किस्तो पर है
जिसकी
ईएमआई मुझे देनी पडेगी
अवसाद के आलाप के साथ
सच कहूँ तो
मुझे कभी कभी जलन भी होती है
तुमसे
जब तुम हंसती हो बिना वजह
मै कोई नीरस जीवन के एकाकीपन
को मिटाने वाला
साधन तो नही बन गया हू
तुम्हारे जीवन मे
ऐसा भी नही है
कि मेरा कोई विकल्प न हो तुम्हारे पास
फिर कोई अकारण बिना किसी राग के
कैसे साथ-साथ घंटो बिता सकते है
बौद्धिक चवर्णा करते हुए
जिसका कोई अर्थ भी नही है
मै कभी कभी सोचता हूँ
कंही ऐसा तो नही
कि
तुम्हारा अपने वर्ग से बहिष्कार किया गया हो
सपने बुनने वाली विलासित पीढी से
आउटडेटड होकर तुम दार्शनिक बन गई हो
कुछ भी हो
मैने एक बात का अनुभव किया है
नदी और स्त्री तट से विद्रोह करके
एक अंजानी प्यास मे आगे बढती जाती है
कही तुम विद्रोहणी तो नही
अन्यथा मत लेना
इस आभासी दूनिया की इस
आभासी यात्रा मे
न तो तुम मेरी सहयात्री हो
न ही सम्बन्धी
न मित्र
न परिचित
फिर ऐसा क्या है कि
अक्सर हम असहमत होते हुए भी
सहमत होते है
और सच कहूँ
तुम्हारे सत्संग से
मै तो
निरुद्देश्य जीवन जीने का अभ्यस्त सा हो गया हू
क्योंकि तुम्हारे पास
प्रेमी-प्रेमिका वाली लम्बी चौडी योजनाए नही है
न ही तुम्हारी दिलचस्पी
मेरी आर्थिक प्रगति मे है
तुमने आज तक नही पूछा कि
मुझे क्या बनना है
जीवन मे
इस तरह से तो तुम
इस निजता के ध्यान मे सहयोग ही कर रही हो
सच-सच बताना
क्या तुम सच मे जी सकती हो
बिना सम्बोधन के
बिना बंधन के
सोच समझ के जवाब देना
अभी कोई जल्दी नही है
वैसे मुझे पता है तुम्हारा जवाब
तुम जोर से हंसोगी
और कहोगी
तुम तो पागल हो
चलो कही कॉफी पीते है चल के
अब मै क्या कहूँ ...।
डॉ.अजीत

बेवजह...

ठहर के पानी मे देखा है गहराई को
भीड मे अक्सर महसूस किया है तन्हाई को
माजी के हाथ से लिखी थी तहरीर मेरी
दोष कैसे दूँ रोशनाई को
जो हमेशा फांसले पे खडे थे
वे ही सबसे करीब नजर आये बिनाई को
नसीहत, सफर, हादसा,हकीकत किस पर यकीन करुँ
वक्त के दायरे मे सिमटते रोक न सका खुदाई को
लबो पर खामोशी,बेसबब उदासी जिस्त पर पहरा वक्त का
जज्बात जब तक तक्सीम न हो हाकिम क्या गुनाह
मुकर्रर करेगा सुनवाई को...।
डॉ.अजीत