Monday, February 27, 2017

सपनें

इनदिनों मुझे उसकी कोई बात
अच्छी नही लगती
वो सलाह देती है तो
नसीहत जैसा महसूस होता है
वो उत्साह के साथ कुछ शेयर करती है तो
मैं अनमना होकर
चस्पा कर देता हूँ एक यांत्रिक स्माइल
फिल्मों,किताबों,यात्राओं को लेकर बोलता हूँ झूठ
बिलकुल निठल्ला हूँ
फिर भी अभिनय करता हूँ अति व्यस्त होने का

ये बात उसे भी ठीक ठीक पता है
अब पहले जैसा नही रहा हूँ मै
हैरत ये उसने ऐसा कभी कहा नही
वैसे जिस दिन वो कहेगी भी
उसका भी जवाब है मेरे पास

मैं दार्शनिक हो कहूँगा
आजकल खुद के साथ नही हूँ मैं
इस जवाब से उसे रत्ती भर फर्क न पड़ेगा
वो जानती है मेरी मासूमियत और चालाकी
वो जान लेगी मेरी तमाम अनिच्छाएं
उसका धैर्य किसी
विकल्पहीनता की उपज नही है
फिर भी वो कर सकती है मेरा
जन्म जन्मान्तर तक इंतजार

मैं उससे कह सकता हूँ
अपना सारा सच बे लाग लपेट के
वो इसे सुन सकती इसे एक घटना के तौर पर
वो मेरे बारे में कोई राय कायम नही करती
ये मेरे लिए अच्छी बात है

इनदिनों वो मुझे अनमना देख
गाहे बगाहे पूछ लेती है एक बात
सपनें आना अच्छी बात है या खराब
मैं कह देता हूँ
सपनें आना खराब है
और देखना अच्छी बात।

©डॉ. अजित

Saturday, February 18, 2017

आख़िरी कविता

मेरे शब्दकोश से क्षुब्ध होकर
अरुचि का शिकार हो जाएंगे
एकदिन लोग

पुनरुक्ति को देख वो समझ लेंगे
इसे मेरा स्थाई दोष
नही रहेगी मेरी बात में कोई नूतनता
हर दूसरे दिन खुद को खारिज़ करता जाऊँगा मैं

शब्दों से छनकर बह जाएगी सारी सम्वेदना
शिल्प के खण्डहर में अकेले होंगे अनुभव
तब कहने के लिए नही बचेगा
मेरे पास कुछ भी शेष
मौन रूपांतरित हो जाएगा निर्वात में

इतनी नीरवता में मेरा चेहरा देखकर
जिन्हें याद आएंगी कुछ मेरी पुरानी कविताएं
उनका प्रेम देख शायद रो पडूंगा मैं

कवि के तौर पर
यह मेरी आख़िरी अशाब्दिक कविता होगी।

©डॉ.अजित

Tuesday, February 14, 2017

संवाद

प्रेम में अपदस्थ प्रेमी
से जब पूछा मैंने
अपना अनुभव कहो
उसने कहा
मेरा कोई अनुभव अपना नही
प्रेम के बाद कुछ अपना बचता है भला?

मैं इस बात पर हंस पड़ा
उसने कहा तुम प्रेम के अध्येता हो
प्रेमी नही
मैंने कहा आपको कैसे पता
प्रेम में कोई दुसरे की बात पर हंसता है भला?

अब मै थोड़ा उदास हो चुप बैठ गया
अब तुम पात्रता अर्जित कर रहे हो
मुझे सुनने की
मगर मै जो कहूँगा वो मेरा होगा
यह संदिग्ध है
मेरे बारे में पूछना तो उससे पूछना
जिसे मै याद हूँ भूलकर भी

मैंने कहा आप क्या बता सकेंगे फिर?
मैं बता सकूंगा सिर्फ इतना
मैंने जीना चाहा तमाम अभाव और त्रासदी के बीच
मैंने पाना चाहा तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद
मैंने बाँट दिया खुद को कतरा कतरा
मैंने खो दिया उसको लम्हा लम्हा
इस बात पर मुझे पुख़्ता यकीं है
वो साथ है भी और है भी नही।

©डॉ.अजित

Friday, February 10, 2017

देव

हो सके तो सम्बोधनों के
षडयंत्रो से बचना
पति को देव कहने से बचना

देव आदर्श भरी कल्पना है
मिथको से घिरी एक अपवंचना है
मनुष्य जब देवता बताया जाता है
फिर वो कर देता है इनकार
मनुष्य को मनुष्य मानने से
समझने लगता है खुद को चमत्कारी

प्रेम की चासनी में लिपटे
बहुत से चमत्कार तुम समझ न पाओगी
आत्म गौरव को देवत्व के समक्ष बंधक पाओगी
साथी के तौर पर कोशिश करना
तुम्हारा साथी मनुष्य रहे
और तुम्हारा साथ उसे बनाए
और एक बेहतर मनुष्य

यदि तुमनें एक बार उसे बना दिया देव
फिर वो भूल जाएगा कमजोरियों पर माफी माँगना
सीख लेगा वो अधिपत्य घोषित करना
एकदिन तुम्हें बता देगा तुम्हारी ही नजरों में
सबसे निष्प्रयोज्य
घोषित कर देगा अपनी कृपा का घोषणापत्र

मत मानना पुराणों के शब्द विलास
गढ़ना अपने सह अस्तित्व का शब्दकोश
समझना और बरतना बराबरी के सुख दुःख
मत कर देना खुद को प्रस्तुत
देवता के स्वघोषित साम्राज्य में दास की तरह

प्रेम में एक बार देव कहोगी
दुःख में भूल जाओगी असल के देवता को भी
दरअसल
देवता कोई नही होता है
असल के देवताओं के भी अनन्त किस्से है छल के

पति को देव बनाना
उस छल को निमंत्रित करना है
जिसकी शिकायत किसी से नही कर सकोगी
और यदि करोगी भी
सारी सलाह और समायोजन तुम्हारे हिस्से आएगी
दब जाओगी जिसके बोझ तले असमय

पति का एक नाम है
उसी नाम से पुकारना
देव कहने से बैचेन होगा असल का पति
खुश होगा देव बनने को बैचेन पति

बस यह सूत्र रखना याद
और तय करना प्रिय पति का संबोधन
बतौर माँ यही
आख़िरी सलाह है मेरी।

© डॉ.अजित

Monday, February 6, 2017

कमजोरी

मैंने कहा मेरी अंग्रेजी कमजोर है
ये बात मैंने कमजोरी से ज्यादा
ताकत के तौर पर इस्तेमाल की अक्सर
अंग्रेजी पढ़ते वक्त हिंदी में सोचता
तो गड़बड़ा जाते सारे टेन्स
इज एम आर वाज़ वर लगते मुझे दोस्त
उनके साथ आई एन जी जोड़
छुड़ा लेता था अक्सर अपना पिंड
यह मेरी अधिकतम अनुवाद क्षमता थी

एक्टिव वॉयस और पेसिव वॉयस का भेद
मुझे आजतक नही समझ पाया
मै क्रिया कर्ता कर्म तीनों को समझता रहा
मुद्दत तक एक ही कुनबे का

भाषा को लेकर हमेशा रहे मेरे देहाती संकोच
मैंने साइन बोर्ड पढ़कर याद रखे रास्ते
इस लिहाज से अंग्रेजी काम आई मेरी
कुलीन जगह पर अंग्रेजी बोलने के दबाव के बावजूद
मैंने हिंदी को चुना
चुना क्या दरअसल मैंने चुप रहने का नाटक किया
क्या तो प्राइस टैग पलटता रहा
या मेन्यू देखता रहा बिना किसी रूचि के
ऐसे मौकों पर दोस्तों ने बचाई जान
उनके सहारे मेरा सीना तना रहा
ये अलग बात है कभी वेटर तो कभी सेल्स पर्सन
भांप गया ऑड और एवन में मुझे बड़ी आसानी से

ये बातें मैं अतीत का हिस्सा बताकर नही परोस सकता
ना ही अपने किसी जूनून का विज्ञापन कर सकता
मै जीता रहा भाषाई अपमान के मध्य
अपनी स्वघोषित अनिच्छा का एक बड़ा साम्राज्य
मैंने लूटे अक्सर भदेस होने के लुत्फ़

यहां जितनी बातें की उनकी ध्वनि ऐसी रखी
जानबूझकर कि लगे सीख गया हूँ
ठीक ठाक अंग्रेजी अब
मगर सच तो ये है
आज भी मुझसे कोई पूछे
जूतों के फीते की स्पेलिंग
मै टाल जाऊँगा उसकी बात हंसते हुए

कुछ और भले ही न सीखा हो मैंने
मगर मैंने सीख लिया है
अज्ञानता को अरुचि के तौर पर विज्ञापित करना
अंग्रेजी की तो छोड़िए
इस बात के लिए मुझे हिंदी ने
माफ़ नही किया आज तक

मेरी वर्तनी में तमाम अशुद्धियां
हिंदी की उसी नाराज़गी का प्रमाण है
जिनसे बचता हुआ आजकल
मैं खिसियाते हुए ढूंढ रहा हूँ
एक बढ़िया प्रूफ रीडर
जो कम से कम मेरा दोस्त न हो।

©डॉ.अजित

Sunday, February 5, 2017

रिहाई

जाओ !
एक नफ़ासत से जुदा हो जाओ
तल्खियों को यतीम कर दो
हो सके तो इस विदाई को हसीन कर दो

मैंने चुन लिए चंद मासूम लहजे
मैं बुन रही हूँ ख्यालों की रेशमी डोर
मै कात रही हूँ यादों के चरखे पर
अच्छी बातों का सूत
जिनके भरोसे पोंछा जा सकेगा
आषाढ़ की भरी उमस में पसीना

नही मुझे कोई शिकायत नही तुमसे
ये कोई बड़प्पन नही
ना ये दिखावे की ख़ुशी की कोई नुमाईश है
दरअसल जब जाना ही तय हुआ है
मैं चाहती हूँ तुम जाओ
सावन के बादल की तरह
जनवरी की धूप की तरह
इतवार की छुट्टी की तरह

आओ ! तुम्हारे माथे पर
एक शुष्क बोसा चस्पा कर दूं
तुम्हें इतने नजदीक देख
अब साँसे तरल न रह सकेंगी
दरअसल ये महज एक बोसा नही
ये दो अलग टापूओं का नक्शा है
रिहाई और विदाई यहीं भटका करेगी
आज के बाद

जाओं !
अब कोई पुकार नही शामिल
तुम्हें मुड़ते हुए देखना चाहती हूँ
उस मोड़ से
जहां चौराहे छोड़ देते है रास्तों का साथ
मुसाफिर जहां असमंजस के साथ
बदल लेता है रास्ता
इस उम्मीद पर
वो पहुंच जाएगा एकदिन कहीं न कहीं

यही मैं चाहती हूँ
तुम पहुँच जाओं कहीं न कहीं
बस अब यहां नही।

© डॉ.अजित