Wednesday, December 30, 2015

बात

एकदिन मैंने खुद के विकल्प के रूप में
सुझाए कुछ
कवि,लेखकों और बुद्धिजीवियों के नाम
बताई खुद की तमाम कमजोरियां
गिनाई उन नामों के साथ जुड़ी
साहित्यिक गुणवत्ताएं
और अभिमान के पल
स्वीकार किया खुद का उनसे प्रभावित होना
कहा उनका साथ तुम्हें और अधिक संवार सकता है
मेरे इर्द गिर्द है यथास्थिति का जंगल
अवसाद का पहाड़
और अनिच्छा की नदी
तुम्हारा उत्साह और धैर्य दे जाएगा जवाब
जब दस साल बाद भी यही बातें होंगी मेरी
खुद के ऐसे होने के कुछ गढ़े हुए औचित्य
भर देंगे तुम्हें अंदर की खीझ से
सम्भव है एकदिन तुम फट पड़ो
किसी ज्वालामुखी की तरह
इसलिए मुझसे बेहतर एक दुनिया
तुम्हारे इन्तजार में है
यह कहकर एक चाय की घूँट भरी मैंने
तुमनें ठीक उसी वक्त
अपना कप नीचे रखा और कहा
छोड़ना चाहते हो मुझे?
मैंने कहा वो बात नही है दरअसल
तुम समझ नही रही हो
कल्पना और यथार्थ का अंतर
मैं देख रहा हूँ भविष्य में
उसने तुरन्त चाय खत्म की
और निकल पड़ी
जाते हुए बस इतना कहा
ज्यादा बना मत करों
तुमसे मिलना मेरे लिए
नही है विकल्पों का रोजगार
ना ही है ये कोई सम्भावनाओं का षड्यंत्र
मेरे लिए क्या बेहतर है
ये मै बेहतर जानती हूँ
तुम अपनी सोचो
मित्र हो मित्र ही रहो
गाइड और फिलॉसफर मत बनों
उसके बाद
साथ चाय पीनी छूट गई
और सलाह देने की आदत भी।
© डॉ. अजित 

Monday, December 28, 2015

सफेद झूठ

लम्बे अरसे से
समन्वय और समझौते की धूरी पर
टँगा हुआ एक वृत्त था वो
जिसकी गति और नियति तय थी
उसकी चाल का आघूर्ण अज्ञात था
वो शापित था
अन्यथा लिए जाने के लिए
वो रोज़ चलता था
मगर पहूंचता कहीं नही था
उसके व्यास में एक लोच थी
इसलिए उसका ठीक ठीक मापन सम्भव नही था
उसके आंतरिक वलयों का एकांत
अप्रकाशित था
वो घूम रहा था
अपनी तयशुदा मौत के इंतजार में
उसका इंतज़ार अंतहीन था
उपेक्षा की हद तक वो खारिज़ था
वो यारों का यार था
हमेशा माफी मांगने को तत्पर
उसे यकीं नही था
खुद के सच होने का
वो झूठ था
सफेद झूठ
कुछ दाल में काला
या फिर आटे में नमक
यह तय करना मुश्किल था
उसके लिए
सबके लिए।

© डॉ. अजित 

एकदिन

एक दिन भूल जाऊँगा मैं
समस्त विद्याएं
नही भेद कर सकूंगा
विधाओं में
आदमी को परखना और समझना तो
खैर मुझे कभी नही आया
दुनिया की सबसे निष्प्रयोज्य वस्तु बन जाऊँगा एकदिन
आदमी से वस्तु बनना
कोई अच्छा या खराब अनुभव नही होगा
बस एक बेवजह का अनुभव जरूर होगा
तब मेरी बातों में न रस होगा और न व्यंग्य
अर्थ के दरवाजें कस लेंगे अपनी सांकल
अँधेरा सवार हो जाएगा रोशनी की पलकों पर
परिवेश मेरा आंकलन करेगा तब
कुछ किलो और ग्राम में
मेरा होगा एक निश्चित द्रव्यमान
मेरे शब्दों में नही बचेगी लेशमात्र भी गुणवत्ता
मेरे भाव हो जाएंगे बाँझ
मेरी आकृति हो जाएगी धूमिल
मेरा होना तब होगा
रूचि और कौतुहल से परे
मेरी स्मृतियां ऐन वक्त पर दे जाएगी धोखा
नही बता सकूंगा मैं सही दिन और साल
कहने के लिए मेरे पास नही बचेगा एक भी सम्बोधन
मेरी टिप्पणियों के अर्थ उड़ जाएंगे हवा में
धरती पहाड़ जंगल और नदी मान लेंगे
मेरा प्रवासी होना
नही सुनाएंगे मुझे वो कोई पीड़ा या गीत
अपनों और सपनों की भीड़ में
मैं भूल जाऊँगा खुद के स्पृश
देह और मन की उम्र पारे की तरह
लोक के तापमान से चढ़ती रहेगी ऊपर नीचे
ऐसे विकट समय में
क्या तुम कह सकोगी मुझे ठीक इतना ही अपना
जितना आज कहती हो
कभी खुलकर कभी छिपकर
ये कोई सवाल नही है तुमसे
ये एक जवाब है
जो हम दोनों जानते है मगर
ये दुनिया नही जानती
जो हंसती है
रोती है
कुढ़ती है
चिढ़ती है
हमें तुम्हें यूं साथ देखकर।

©डॉ.अजित 

Thursday, December 17, 2015

दो बात

पहाड़  से मिलनें के लिए
ग्लेशियर होना पड़ता है
तुम नदी थी
इसलिए समन्दर का पता पूछती रही।
***
धरती शिकायत करती
तो किससे करती
सब चाँद सूरज के गवाह थे
आसमान छुट्टी पर था
हवा ने अफवाह उड़ा दी
और यूं धरती हुई बेदखल।

© डॉ.अजित

Sunday, December 13, 2015

नोक झोंक

चंद नोक-झोंक
____________

मैंने कहा
साफ साफ कहा करो
क्या बात बुरी लगी है
दर्शन की भाषा मत बोला करो
साफ़ बोलने से मसले जल्दी हल होते है
उलझतें नही है
जवाब में भी एक शब्द नही बोली वो
मैंने कहा अब क्या हुआ
दर्शन की भाषा समझतें नही हो
मौन का अनुवाद भी भूल गए हो
तुम तो ऐसे न थे, अब क्या फायदा
अब मैं चुप था।
***
कुछ दिन बातचीत बंद के बाद
अचानक मैंने फोन किया
तुमनें रिसीव भी किया
मगर हमारी कोई बात नही हुई
हम दोनों बोलते जरूर रहे
अपने अपने फोन से
हमारी आवाजें रास्ता भटक कर
लौट आई हम तक
रिश्तों यह 'ईको'
जानलेवा था बेहद।
***
बाल ज्यादा छोटे क्यों करा लिए
वो वाली शर्ट क्यों नही पहनी
इतने चुप क्यों रहते हो
पेंट की जेब में हाथ डालकर मर चला करो
तुम्हारी ये कुछ छोटी छोटी शिकायतें थी
जिन्हें दूर न करने का खेद रहा है मुझे
मगर कहा कभी नही
अगर कभी कह देता तो
तुम छोड़ देती टोकना
जो कभी नही चाहता था मैं।
***
आख़िरी बार तुम इस बात पर
नाराज़ थी मुझसे
बेहद लापरवाह हूँ मैं
जीता हूँ केवल खुद के लिए
हो जाता हूँ कई बार बेहद कड़वा
मैंने तुम्हें मना नही पाया बावजूद इसके
लापरवाह नही असावधान था मैं
खुद के लिए नही तुम्हारे लिए जीता था मैं
कड़वा मेरा लहज़ा था दिल नही।

© डॉ. अजित 

Saturday, December 12, 2015

नामकरण

कुछ पेड़ इस बात पर मनुष्य से खफा है
मनुष्य ने खोज लिया है उनका वनस्पतिक नाम
विज्ञान की गोष्ठियों और शोध पत्रों में
इन्ही नाम से सम्बोधित करता है
वैज्ञानिक बना मनुष्य
पेड़ जब आपस में बातें करतें है
वो रुआंसे हो जाते है
अपने ये अजीब ओ गरीब नाम सुनकर
वो शिकायत करते है मनुष्य के बुद्धिमान होने की
जिस बात पर मनुष्य को सबसे ज्यादा गर्व है
पेड़ पौधों की दुनिया में उसका कोई मूल्य नही
वो चाहते है यदि पुकारना  जरूरी है तो
मनुष्य उन्हें पुकारे
उनके असली नाम से
जिसे जानता है बच्चा-बच्चा
वैज्ञानिक नामकरण से खफा पेड़ एकदिन
मनुष्य से बातचीत कर देगा बंद
वो दिन पृथ्वी का सबसे त्रासद दिन होगा।

© डॉ.अजित

Tuesday, December 8, 2015

स्त्री मन

एक स्त्री के मन को
जानने और समझनें के दावें
उतने ही खोखलें है
जितना जीवन वो जानने समझनें के है
स्त्री जीवन की तरह विश्लेषण की नही
जीने की विषय वस्तु है
वस्तु शब्द पर खुद मुझे ऐतराज़ है
मगर शब्दकोश भी बौना है
वो नही बता पाया
आज तक स्त्री की सम्पूर्णता पर एक
प्रमाणिक शब्द
अनुमानों और प्रतिमानों से
बचना चाहिए
जब बात एक स्त्री की हो
क्योंकि
स्त्री धारणाओं में नही जीती
समर्पण उसका स्थाई सुख भी है
और दुःख भी
स्त्री को समझना
दरअसल खुद को समझना है
अनुराग की देहरी पर बैठ
आलम्बन की चक्की पिसते हुए
उसके चेहरे पर जो थकान दिखती है
वो थकान नही है दरअसल
वो उसकी देह पर मन की छाया है
जिनका सौंदर्यबोध कमजोर है
वो नही देख पातें
ऐसी थकान की ख़ूबसूरती
स्त्री का मन
आलम्बन नही स्वतंत्रता चाहता है
न जाने किस उत्साह में जिसे
आश्रय की अभिलाषा समझ लिया जाता है
धरती की तरह
स्त्री जनना जानती है उम्मीदें
इसलिए उम्मीदों के लगातार टूटने पर भी
नही छोड़ती वो अपना एक धर्म
प्रासंगिकता की बहस में
वो निकल जाती है अकेली बहुत दूर
क्योंकि
जब तुम विश्लेषण में रहते हो व्यस्त
कर रहे होते हो अपेक्षाओं का आरोपण
तब एक स्त्री
बीन रही होती है अधूरी स्मृतियों की लकड़ियाँ
जला रही होती है खुद को
ताकि आंच ताप और रोशनी में
नजर आ सके सब कुछ साफ़ साफ़
स्त्री सम्भावना को मरने नही देती
एक यही बात
न उसे जीने देती और न मरने देती
जब कोई करता है स्त्री के अस्तित्व पर भाष्य
देता है मनमुताबिक़ सलाह
स्त्री हंस पड़ती है
उसे प्रशंसा समझ
मुग्ध होने की नही सोचने की जरूरत है
एक यही काम है
जो शायद कोई नही करता।
© डॉ. अजित

Monday, December 7, 2015

वक्त रहतें

यदि वक्त रहते
मांग ली जाती कुछ माफियां
तो थोड़ी बेहतर हो सकती थी
ये दुनिया
यदि वक्त रहते
कर दिया जाता इजहार तो
अपनेपन के वृत्त का होता एक सीमित विस्तार
यदि वक्त रहते
बता दी जाती अपनी सीमाएँ
तो इतनी नही होती शिकायतें
वक्त रहते बहुत कुछ
किया जा सकता था
जो नही किया गया
इसलिए अफ़सोस की बही पीठ पर लादें
घूम रहें है हम
दर ब दर।
© डॉ.अजित


सवाल

उस आदमी से पूछिए
खो जाने का अर्थ
जो भीड़ में नितांत अकेला हो
उसी से पूछा जा सकता है
एकांत शोर और कोलाहल का महीन अंतर
पूछने की और भी कई बातें है
मसलन
हर रास्ता एक  चौराहे पर आकर
क्यों हो जाता है भरम का शिकार
बढ़ता कदम क्या सच में आगे बढ़ता है
या दूसरा कदम पीछे खिंचता है बार बार
धरती अपना बोझ किसके यहां कराती है दर्ज
आसमान के झुकनें की अधिकतम सीमा क्या है
यदि वह देखें तुम्हारी तरफ तो
यह भी जरूर पूछना कि
कुछ बीज क्यों निकल जातें है बांझ
बारिश क्यों छोड़ जाती है
हर बार हिस्सों में नमी
हवा किसके कहने पर बदलती है रुख
इतने सवालों के बीच
वह तुम्हारे एक भी सवाल का जवाब देगा
इस पर मुझे सन्देह है
इसलिए नही पूछता मैं
कभी कोई सवाल
किसी से भी
मगर तुम जरूर पूछना
अपने पूरे आत्म विश्वास के साथ।

© डॉ.अजित

Sunday, December 6, 2015

चुप

उन दिनों जब बेवजह चुप थी तुम
मौन का भाष्य कर रहा था मैं
चुप की बोली का अनुवाद करने के लिए
बना रहा था एक स्वतन्त्र शब्दकोश
अनुमानों को परख रहा था
समय की प्रयोगशाला में
तुम्हें कहे शब्दों को कर रहा था संग्रहित
स्मृतियों के संग्रहालय में
मन से मन दूरी नापने के लिए
दिल की दहलीज़ और मन की मुंडेर पर
स्थापित की थी दो अलग अलग वेधशालाएं
तुम्हारी हंसी को सूखा रहा था पुराने चावल की तरह
ताकि उसकी खुशबू से महक सके मन का उदास कोना
तुम्हारी मुस्कान को नाप रहा था इंच और दशमलव में
ताकि वहां हिस्सों में खड़े अपने पागलपन को देख सकूं
अपने सायास अनायास अपराधों को कर रहा था सूचीबद्ध
ताकि खुद की सफाई में दे सकूं कुछ ठोस दलील
स्पर्शों की तह में देख रहा था अपनत्व की नमी
बचा रहा था उन्हें संदेह की सिलवट से
जिन दिनों तुम बेवजह चुप थी उनदिनों
ठहर गई थी दुनिया
बदल गए थे ग्रहों उपग्रहों के परिक्रमा के चक्र और पथ
सूरज की तरफ तुम्हारी पीठ थी
चाँद को हथेली ढ़क दिया था तुमने
तारें धरती पर लेट देख रहे थे तुम्हारा चेहरा
उनकी काना फूसी देख दुखी था आकाश
एक तुम्हारी चुप ने
नदियों के किनारे बदल दिए थे
पहाड़ कराह रहे थे सर्वाइकल के दर्द से
जंगल में लग गई थी निषेधाज्ञा
कोई पत्ता नही करता था अब उसकी चुगली
पेड़ झुक कर बैठ गए थे नमाज़ पढ़ने
तुम बेवजह चुप थी
और मैं वजह तलाश रहा था हर जगह
मेरी ये दशा देख हवा मुझसे कहती
चुप की वजह नही चुप तोड़ने की विधि तलाशों
ये चुप तुम पर ही नही
पूरी सृष्टि पर भारी है
हवा की सलाह पर थोड़ी देर के लिए
चुप हो जाता था मैं।

© डॉ. अजित

Thursday, December 3, 2015

बातचीत

'सवाल ओ' जवाब वाया बातचीत'
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एक दिन मैंने पूछा
तुम्हारे जीवन का सबसे बड़ा दुःख क्या है
उसने कहा ज्ञात या अज्ञात
मैंने कहा अज्ञात
तब थोड़ी अनमनी होकर उसने कहा
तुम्हें पाना क्यों नही चाहती मैं !
***
एकदिन मैंने पूछा
तुम्हारे जीवन का सबसे बड़ा सुख क्या है
उसने कहा प्रकट या अप्रकट
मैंने अप्रकट
तब मुस्कुराते हुए उसनें कहा
बिना ख़ास कोशिश के तुम अचानक मिल गए।
***
उसनें अचानक एकदिन पूछा
तुम जिंदगी से क्या चाहते हो
मैंने कहा कुछ ख़ास नही
ये अच्छी बात है क्योंकि
खुद को बेहद आम समझती हूँ मैं।
***
उसनें एकदिन कहा
अच्छा एक बात बताओं
मेरा तुम्हारे जीवन में विकल्प हूँ या संकल्प
मैंने कहा इस तरह सोचा नही कभी
इस पर खुश होते हुए उसनें कहा
सोचना भी मत कभी
दोनों इंसान को कमजोर करते है
तुम्हें कमजोर देखना
मैं कभी नही चाहती।

© डॉ.अजित