Thursday, March 31, 2016

तलाश

जो लोग किसी प्रभाव के चलते रुके थे
उनके पास धैर्य नही कौतुहल था
जैसे ही कौतुहल घटा
वो उतर आए ऐसी हरकतों पर कि
उनकी उपस्थिति का संज्ञान लिया जाए
उसके दर पर टंगी थी हड़ताल की तख्ती
अस्वीकृत नोटिस चस्पा थे दीवार पर
जिन्हें पढ़ते पढ़ते दो लोगो के
कन्धे टकरा जाते आपस में
मगर कोई नही बोलता था सॉरी एकदूसरे को
ध्वनियों का, चित्रों का, शब्दों का
ऐसा विज्ञापन भरा शोर था कि
रोशनी भी हो जाती थी विभाजित
बिना किसी आकृति के
पंजे के बल खड़े होकर देखनी पड़ती थी
पहले आदमी की शक्ल
आखिरी आदमी की पीठ पर लिखी थी
कुछ शिकायतें जो झर रही थी
ब्लैक बोर्ड से चोक की तरह
कौतुहल और निजता के बाजार में
उसका उत्पाद सबसे अकेला था
सबके पास अपने दाम थे
और अपनी आवश्यकताएं
वो देख सकता था एक बड़ा चित्र
मगर नही बता सकता था
मानचित्र में खुद का बिंदू
जहां वो खड़ा था उस वक्त
वो बोल सकता था हंसकर मीठा
मगर नही बता सकता था रो कर भी समस्त दुःख
भीड़ के अस्त व्यस्त दस्तावेजों के बीच
वो भटक रहा था नितांत अकेला
हर चौराहे के बाद एक दोराहा था
इसलिए वो शिकार हो गया था दिशा भरम का
उसके जेब से मिली एक छोटी पर्ची
जिस पर लिखा था
बी हैप्पी विद लव
इन चार शब्दों के फेर में वो भटक गया था
इस ग्रह पर अपनी कक्षा से
किसने उसको ये मन्त्र दिया
मुझे उसकी तलाश थी
ताकि मनुष्यों में भेद करना सीख सकूँ
जोकि इस समय की सबसे बड़ी जरूरत है।

© डॉ.अजित


पुकार

उसे अपनी पुकार पर
इतना यकीन था कि
वो बुलाएगा तो
तमाम अरुचियों नाराज़गियों के बावजूद
वो चली आएगी
भले उसके चेहरे पर उतना उत्साह न दिखे
मगर उसकी बातें
ठीक दवा के माफिक काम करेंगी
दरअसल ये यकीन नही
एक अधिकार था
जो उसने ले लिया बिना पूछे ही
वैसी भी पूछी वो बातें जाती है
जो वक्त के साथ धुंधला जाती है खुद ब खुद
भले उसने अपनी
पुकार को आजमाया नही
मगर उसे अपनी छाती पर जमाया जरूर
एक पौधे की तरह
जब जब बर्बाद रिश्तों की धूप उसे जलाती
वो दुबक जाता अपने ही अंदर
उसके अंदर केवल पथरीली जमीन नही थी
बल्कि उस पौधे की शीतल छाया भी थी
जो जड़ की तरफ से हरा था।

©डॉ. अजित

Wednesday, March 30, 2016

वापसी

सबसे आसान था
यह कह कर जाना कि
आता हूँ
प्रतिक्षा का उदास गीत
जिसने गाया और सुना हो अकेला
उस पर मुग्ध कौन होता है भला
जाने के बाद आने का उपक्रम
होता है बड़ा मायावी
कोई जितना जाता है
ठीक लौट नही पाता उतना।

©डॉ.अजित

पता

सबसे मुश्किल था
तुम्हारे जीवन में असुविधा की तरह
टंगा होना
मगर
अपने पाँव का काँटा
कभी नही निकाल पाते खुद
इसलिए पीठ कर ली तुम्हारी तरफ
तुम्हें भूल गया ऐसा कोई दावा नही मेरा
तुमनें मुझे याद रखा इसका भी नही पता
पता है तो बस एक बात
दूरियां उतनी ठीक होती है कि
इनकी आदत न पड़े
अगर एक बार पड़ जाती है तो फिर
कभी नही मिल पाते
दो बिछड़े हुए लोग।

©डॉ.अजित

Monday, March 28, 2016

वजह

तुम्हारी निकटता घने दरख्त के जैसी थी
कड़ी धूप में दो पल सुस्ता सकता था जहां
तुम्हारा गुस्सा आवारा बादल की तरह था
जो बरस पड़ता था कहीं भी कभी भी अचानक
तुम्हारा प्यार कैसा था नही जान पाया आजतक
बस ऐसा अनुमान है
तुम्हारा प्यार इकहरा नही था
वो कुछ कुछ हिस्सों में बेहद घना था
कुछ कुछ हिस्सों में बेहद तरल
कुछ आदतें जान पाया बस तुम्हारी
जैसे बहुत बोलकर खामोश हो जाना
नजदीक होकर अजनबी बन जाना
इन्ही आदतों के भरोसें
लांघता रहा उदासी का पहाड़
पीता रहा पीला बसन्त
जीता रहा हरी भरी पतझड़
तुम्हारे साथ कुछ बांटना नही पड़ता था
एक अजीब सी उम्मीद थी तुम
पुकार और इंतजार के मध्य किसी झील के जैसी
उम्मीदें झूठी हो सकती है
मगर तुम एक बेहद जीवंत सच की तरह थी
जिसकी आँखों में आँखें डाल
मैं नही कर सकता था आत्महत्या
जीने की इससे बड़ी वजह
और क्या हो सकती है भला।

© डॉ. अजित

रास्तें

रास्तों के हिस्से में कुछ नही आया
वो महज़ दृष्टा थे
रास्तों का दुःख इसलिए भी भारी था
धरती और आसमान के बीच वो महीनता से फंसे थे
हवा कुछ किस्से जानती थी
जो रास्तों ने उसे बताए थे
जिन रास्तों पर चलकर दो लोग जुदा हुए
उन रास्तों की आँखें हमेशा के लिए खुली रह गई
मिट्टी उनकी नींद की दुआ करती तो
बारिश बरस पड़ती
रास्तों की आँख का पानी आसमान के यहां गिरवी था
बादल मौसम की अवांछित सन्ताने थी
जो बारिश के जरिए बहती थी रास्तों के कोने से
सब कुछ इतना जीवन्त था कि
किसी के षड्यंत्र की बू आती थी
जो रास्तें कहीं नही पहूँचे
वो अंत में जंगल बन गए
इसी जंगल में भटकर एकदिन
बन जाना था उसे किसी का रास्ता
वो रास्ता बाहर जाता कि अंदर
नही बता सकता कोई।

©डॉ.अजित

Thursday, March 17, 2016

प्रेम तंत्र

प्रेम कभी कभी लगता है
एक सात्विक किस्म का मजाक
जो थोड़ी खिलखिलाहट के बाद
छोड़ जाता है बहुत कुछ
सोचनें के लिए।
***
प्रेम करता हुआ मनुष्य
कुछ मामलों में नही होता है
बिलकुल निरापद
गलत अनुमानों का थोड़ा बहुत दोष
उसमें रहता है जरूर
बाद में कही जाती है जो भावुक मूर्खताएं
वास्तव में वही होती है
प्रेम की सबसे पवित्र चीज़।
***
जो प्रेम नही करतें
वो प्रेम को देखतें है
प्रेम न करना और प्रेम को देखना
ठीक वैसा है
जैसा बादल देख कहना
लगता है आज होगी बारिश।

©डॉ.अजित 

Tuesday, March 15, 2016

हत्या

जब तुम्हारा साथ नही होता
दिल जबरदस्ती बहाने तलाश लेता है
दुखी होने के
मानों मेरे और दुःखो में बीच में तुम खड़ी हुई हो
जैसे ही तुम चित्र से हटती हो
कुछ ऐसे दुःख टूट पड़ते है मुझपर
जिनका मैंने कभी कुछ नही बिगाड़ा
कल की ही बात है
जब तुमनें संकेतों के जरिए बताया कि
अब मैं तुम्हारे आसपास नही हूँ
ठीक उसी वक्त मेरी स्लीपर टूट गई
मैं आधे रास्ते से लंगड़ाते हुए लौटा घर
जब तुम्हें कहा मेरे बिना जीना आ गया तुम्हें
ठीक उसी वक्त मेरी पलक मुड़ गई
झूठ नही कहूँगा बड़े जोर से रोना आया
मगर पलक सीधा करनें के चक्कर में भूल गया रोना
बाद में हंसता रहा पागलों की तरह
तुम्हारी ध्वनियों से एक चित्र बनाता हूँ
जो बह जाता है समय के साथ
बेवक्त पर आए दुखों से चाय पूछता हूँ
वो मांगते है शराब
मैं उन्हें पानी पिलाकर करता हूँ विदा
क्योंकि उनके तरीके से तुम्हें भूला नही जा सकता
सुखों के कुछ खोटे सिक्के
यादों की गुल्लक से निकालता हूँ
किसी नाराज़ बच्चें की तरह
और खरीद लेता हूँ एकांत का अँधेरा
मुझे डर है तुम्हारे जाने की खबर से
दुःख वहां भी मुझे ढूंढ ही लेंगे एकदिन
और कायदे ढूंढ भी लेना चाहिए
और कर देनी चाहिए मेरी हत्या इरादतन।

©डॉ.अजित

Monday, March 14, 2016

मध्य प्रेम

कोई भौतिकी का नियम नही बता सकता
दो लोगो के मध्य प्रेम समाप्त होने के बाद की गति
समय रच देता है एक विचित्र किस्म का भरम
जो होता है वो दिखता नही है
जो दिखता है वो घटित हो रहा होता है
अलग अलग अंतरालों में
अलग अलग आवृत्ति के साथ
प्रेम का समाप्त होना कोई रसायनिक घटना नही
इसलिए नही बन सकी कोई ऐसी परखनली
जिसमे जरिए नापी जा सके प्रेम की तरलता
जब दो लोगो के मध्य प्रेम होता है समाप्त
धरती होती है उस वक्त सबसे निराश
आसमान देखता है होकर एकटुक निरुपाय
जब दो लोगो के मध्य प्रेम होता है समाप्त
ठीक उसी वक्त समाप्त हो जाती है
हवाओं से बातचीत
नदियों से दोस्ती
और बारिशों से रंजिश
हैरत की बात ये भी होती है
धीरे धीरे उनवान चढ़ा प्रेम
किस तरह से अचानक
एक दिन एक पल में हो जाता है समाप्त
दो लोगो के मध्य समाप्त हुए प्रेम का अयस्क
गाहें बगाहें चुभता है नींद और ख़्वाबों में
आंसूओं में शामिल होता है इसका स्वाद
दो लोगो के मध्य समाप्त हुए प्रेम से अधिक
लावारिस कुछ नही होता दुनिया में
जो कभी दोनों का रहा होता है
फिर वो नही बचता किसी के लिए भी।

©डॉ.अजित

Wednesday, March 9, 2016

आग्रह

मैं विरोधाभासों
असंगतताओं और अमूर्त ख्यालों को
आड़े तिरछे खड़ा कर
कविता की छाँव में
दुनिया से भागकर
खुद से उकताकर
प्राश्रय लेता हूँ
मेरी पीठ पर आपकी बात छपी है
तो पढ़ लीजिए
आपकी बात में भी किसी और की बात
जरूर आश्रय लिए होगी
सारा खेल इन बातों का ही है
जिनके अर्थ और सन्दर्भ भिन्न है
मगर जख़्म और पीड़ाएं लगभग समान है
जितना नजर आता हूँ मैं
कविता की ओट में
उतना ही नही हूँ मैं
इसलिए मेरी कोई बात अंतिम सच नही है
कल मेरे बदलनें पर आप ये मत कहना
कवि झूठा था
या कविताएं गल्प थी सब
कवि और कविता के बीच में खड़ा हुआ मनुष्य
किन किन शर्तों और बहाने से
खुद को खड़ा रखता है
नही बता सकता ये बात
वो किसी कविता के जरिए
इसलिए उस पर सन्देह करना तो प्रेम भी करना
दोनों एकसाथ करने का आग्रह
दुनिया में एकमात्र
कवि ही कर सकता है।

©डॉ.अजित

Thursday, March 3, 2016

अनुमति

नदी किनारें खड़े है कुछ बुद्ध
नदी से रास्ता मांगते है
नदी से बिना आज्ञा पार करने की
हिंसा से बचना चाहते है वो
करुणा से करते है निवदेन
नदी चाहती है
बुद्ध वही ठहर जाएं
इसलिए वो आगे बढ़ जाती है
बुद्ध अब किससे मांगे अनुमति
बहते जल से या ठहरे पल से।

Wednesday, March 2, 2016

सवाल

उनसे पूछिए मन की तैयारियां
जिन पर हमेशा
मुस्कुराने का होता है दबाव
वो एकांत में उदास होते हुए भी
देख रहे होते है आसपास
कोई है तो नही
उनसे पूछिए हंसी का बोझ
हंसते हंसते जिनकी आँखें हो जाती है नम
अपने मुताबिक दुनिया देखने की लालसा में
हम रोज़ हत्या करते है
मामूली अहसासों की
जिन पर दुनिया भर को
खुश रखने का दबाव और जिम्मेदारी है
उनकी उदासी कितनी बैचेन है
कभी पूछिए
ये बात आपको ही पूछनी होगी
क्योंकि
आपकी वजह से उन्होंने खुद से
मुलाकातें बंद कर दी है।

©डॉ.अजित

Tuesday, March 1, 2016

ज्ञात

मेरे कांधे बोझ में नही
प्रेम में थोड़े से झुक गए थे
उनका अधिकतम विस्तार इतना था कि
तुम ओट ले सुस्ता सको आराम से
थोड़ी छाया तुम्हारी उधेड़बुन के लिए
हमेशा रहती थी वहां
मेरी पीठ पर जो मानचित्र खिंचा था तुमनें
उसके सहारे कोई कहीं नही पहूंचता था
वो भटकाव का रास्ता था
ऐसा भी नही था
मेरे सामने और पीछे
दो अलग अलग दुनिया थी
दोनों की नागरिकता की शर्ते अलग थी
इसलिए
मैं एक जगह उपस्थित रहता
तो दूसरी जगह निर्वासित
मेरी छाया में केवल तुम्हारी धूप आ सकती थी
त्रिकोण की शक्ल में
तुम्हारी आँखों पर कुछ सवाल लिखे थे
जिनके जवाब
मुझे बिना पढ़े देने थे
मैं इसलिए चुप था
तमाम अस्वीकृतियों के मध्य एक बिंदू ऐसा था
जहां दोनों का अस्तित्व
एक साथ चलकर समाप्त होता था
उसी को समझनें के लिए
हम साथ थे
प्रेम की लौकिक चालाकियों के साथ
और प्रेम छिप गया था हमारी परछाई में
प्रेम ने अकेला इसलिए छोड़ा हमें
वहां एक भरोसा था
बिना डूबे पार उतर जाने का
भरोसे का एक संस्करण तुमनें चुना एक मैंने
इतनी सांझी चालाकी दोनों की थी
गलत नहीं था कुछ इसमें
सही क्या था
यह पता चलना अभी बाकी है।

©डॉ.अजित