Tuesday, March 1, 2016

ज्ञात

मेरे कांधे बोझ में नही
प्रेम में थोड़े से झुक गए थे
उनका अधिकतम विस्तार इतना था कि
तुम ओट ले सुस्ता सको आराम से
थोड़ी छाया तुम्हारी उधेड़बुन के लिए
हमेशा रहती थी वहां
मेरी पीठ पर जो मानचित्र खिंचा था तुमनें
उसके सहारे कोई कहीं नही पहूंचता था
वो भटकाव का रास्ता था
ऐसा भी नही था
मेरे सामने और पीछे
दो अलग अलग दुनिया थी
दोनों की नागरिकता की शर्ते अलग थी
इसलिए
मैं एक जगह उपस्थित रहता
तो दूसरी जगह निर्वासित
मेरी छाया में केवल तुम्हारी धूप आ सकती थी
त्रिकोण की शक्ल में
तुम्हारी आँखों पर कुछ सवाल लिखे थे
जिनके जवाब
मुझे बिना पढ़े देने थे
मैं इसलिए चुप था
तमाम अस्वीकृतियों के मध्य एक बिंदू ऐसा था
जहां दोनों का अस्तित्व
एक साथ चलकर समाप्त होता था
उसी को समझनें के लिए
हम साथ थे
प्रेम की लौकिक चालाकियों के साथ
और प्रेम छिप गया था हमारी परछाई में
प्रेम ने अकेला इसलिए छोड़ा हमें
वहां एक भरोसा था
बिना डूबे पार उतर जाने का
भरोसे का एक संस्करण तुमनें चुना एक मैंने
इतनी सांझी चालाकी दोनों की थी
गलत नहीं था कुछ इसमें
सही क्या था
यह पता चलना अभी बाकी है।

©डॉ.अजित


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