Sunday, August 30, 2015

यार

इस कदर बीमार न थे हम
कभी यारों के यार थे हम

तंज लहजे में शामिल है अब
था इक वक्त गुलबहार थे हम

उसकी उदासी के लम्हों में
पतझड़ में भी बहार थे हम

सफर पर निकले जिस दिन
जल्दबाजी में तैयार थे हम

दुश्मन आज हुआ है जो
कल तक उसके यार थे हम

© डॉ. अजित



Tuesday, August 25, 2015

लोकप्रियता

फिर भी
जितनी लोकप्रियता होनी चाहिए थी
उतनी नही थी मेरे पास
यह मेरे जीवन का स्थाई खेद था

मेरे पास एक कच्चा शिल्प था
जो पढ़ने में आसान था
समझने में तो और भी आसान

मेरी बातें रोजमर्रा की बतकही थी
उनमें शास्त्रीयता का था नितांत ही अभाव
दर्शन की जटिलता नही थी उनमें
मन का बिखरा हुआ मनोविज्ञान कहता था मैं

अधूरापन स्थाई भाव था
जो आकर बैठ गया था
मेरी कलम की पीठ पर

कुछ दोस्तों का मत था
एक ख़ास जगह जाकर
थोड़ा अटक थोड़ा भटक गया हूँ मैं

पुनरावृत्ति की शिकार थी मेरी सम्वेदनाएं

मैं किस लिए कहां था
नही बता सकता था किसी साक्षात्कार में

अरुचि और एकालाप के मध्य खींच कर वृत्त
डमरू बजाता था मैं
मेरी कविता इतनी निजी किस्म की थी
कुछ ही लोग 'मैं' को तोड़ जी पाते थे उसका दशमांश

मैं लिख रहा था भूत
वर्तमान की शक्ल में
मैं जी रहा था भविष्य
अतीत की दहलीज़ में
मेरी कोशिसें थी बेहद अस्त व्यस्त और अनियोजित

शायद, तभी संदिग्ध थी मेरी लोकप्रियता।

© डॉ.अजित



Monday, August 24, 2015

मांग पत्र

हमनें बिछड़ते वक्त
कुछ भावुक वायदे किए थे

धुल गए वो धूप की बारिश में

अब वायदों के आकार बच गए है
जैसे चाय के कप की नीचे बच जाता है एक वृत्त
चाय के बाद जितना अप्रासंगिक हो चला है
अब बतकही से हरा भरा वक्त

हमनें बिछड़ते वक्त
कुछ स्पर्श दिए थे उधार

जिनके ब्याज़ से
आज तक चल रहा है
दाल रोटी नमक

मिलने बिछडनें के मांग पत्र
कोई मूल्य नही बचा है

पता नही है यह सम्बन्धों का
अर्थशास्त्र है या
मनोविज्ञान।

©डॉ.अजित 

Sunday, August 16, 2015

उसकी बातें

उसकी बातें: किसकी बातें
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उस पर सबसे ज्यादा
कोफ़्त मुझे तब होती
जब वो किसी शब्द/बात का अर्थ मुझसे पूछती
फिर गूगल भी जब उसी से मिलता जुलता जवाब देता
तो बड़े उत्साह से मुझे वो बात बताती
उसका शोध
जब अविश्वास की उपकल्पना से गुजरता
तब निसंदेह स्माईली के मेरे जवाब के बावजूद
बहुत खराब लगता था मुझे।
***
उस पर सबसे
ज्यादा प्यार मुझे तब घुमड़ता
जब वो मेरे खराब मूड की परवाह किए बिना
आदतन पूछती
आज क्या खाया है लंच में
ब्रेकफास्ट किया की नही।
***
उस पर सबसे ज्यादा गुस्सा
तब आता था
जब उसनें सीख ली समझदारी
और छिपाने लगे अपने दुःख।
***
उस पर सबसे ज्यादा
विश्वास इसलिए भी था
वो खुद से ज्यादा
दुसरे के ठगे जाने की करती थी परवाह
हर बार, हमेशा।
***
उस पर सबसे
कम बातें हुई
और वो सबसे ज्यादा बचती रही
मेरे अंदर।

© डॉ.अजित


Thursday, August 13, 2015

सरनेम

जब मैं कहता हूँ
मैं भी लिखता हूँ कविताएँ
एक दिलचस्प बातचीत में भी
ख्यात कवि की
अरुचि चरम् पर पहूंच जाती है
कवि चाहता है
एकालाप
कभी उसके
कभी उसकी कविता के बारें में
सवाल यह भी बड़ा है
कविता मेरी या उसकी
कैसे हो सकती है
कविता तो बस कविता है
हाँ कुछ कविता
नाम के सहारे तैर जाती है
लूट लेती है समीक्षकों का मत
कुछ कविताएँ
भोगती है अपने हिस्से का निर्वासन
कविता का वर्णवाद
कम खतरनाक चीज़ नही है
कविता में आरक्षण जैसी सुविधा भी नही
फिर भी हाशिए के लोगो की
कच्चें कवियों की
कविता जिन्दा है
ठीक ठाक पढ़ी भी जा रही है
इस बात पर
थोड़ा खुश जरूर हुआ जा सकता है
मगर थोड़ा ही
क्योंकि आज भी ख्यात कवि की
कविता से ज्यादा कवि के सरनेम में
दिलचस्पी है।

© डॉ. अजित

Monday, August 3, 2015

अबोला


जिन दिनों तुमसे
बातचीत बंद थी बेवजह
उन दिनों
आसमान का रंग हो गया था सफेद
धरती हो गई थी काली
हवा का वजन कुछ ग्राम बढ़ गया था
नदी समुन्द्र तल से नीचे बह रही थी
पहाड़ अनमना हो बैठ गया था ऊकडू
जंगल हो गए थे समझदार
खरपतवार बन गए थे सलाहकार
झरने बंट गए थे हिस्सों में
पत्थरों के पास थे नसीहत के राजपत्र
उनदिनों
बादल हो गए थे चुपचाप
बूंदे बढ़ा रही थी ताप
रास्तों ने मिलकर तय कर लिए थे भरम
जिन दिनों तुमसे बातचीत बंद थी
उन दिनों
सपनों की फ़िल्म एक्स रे की माफिक
चांदनी में देखता तो
चाँद में साफ़ नजर आता था
बाल भर अविश्वास का फ्रेक्चर
तारें देते थे सांत्वना वक्त बदलनें की
उन्ही दिनों मैंने जाना
बातचीत कितनी जरूरी चीज़ थी
मेरे जीवन की
इसी बातचीत के सहारे
मैं धकेल सकता था दुःख को सैकड़ो मील दूर
स्थगित कर सकता था अवसाद का अध्यादेश
लड़ सकता था खुद से एक बेहतर युद्ध
मुक्त हो सकता था हार और जीत से
बता सकता था खुद की कमजोरियों का द्रव्यमान
उम्मीद को पी सकता था ओक भर
ताकि बचा रहे एक बेहतर कल
दरअसल
बातचीत का बेवजह बंद हो जाना
उतना अप्रत्याशित नही था
जितना अप्रत्याशित था
इस बात का इतना लम्बा खींच जाना।

©डॉ.अजित

एक दिन

उस दिन मैने दुनिया के
सबसे बड़े सर्च इंजन को
सबसे नकारा घोषित कर दिया
जिस दिन वो तुम्हें खोजनें में असफल रहा
ठीक उसी दिन मैंने
मोबाइल नेटवर्क को भी अपने जीवन में
सबसे अनुपयोगी वस्तु पाया
जब मेरे फोन में तुम्हारी खनकती आवाज़ ने
आने से इनकार कर दिया
इसी दिन मैंने
खुद को याददाश्त को खारिज किया
क्योंकि वो तुम्हारी अच्छाई
याद नही दिला पा रही थी
महज एक दिन में
फोन इंटनेट और याददाश्त
मेरे जीवन की सबसे
निष्प्रयोज्य चीज़ बन गई
इनदिनों जब तुम नही हो
मैं सोचता हूँ उस दिन के बारें में
जिस दिन के बाद
तुम, तुम न रही
और मैं भी शायद मैं नही रहा हूँ।

© डॉ. अजित 

ज्ञात अज्ञात

सम्बंधो के पुनर्पाठ में
बच जाते है कुछ विकल्प
जिसके भरोसे रच लेते है
एकांत का संसार
छूटे हुए सिरों की परवाह भी
छूट जाती है धीरे धीरे
जैसे नदी भूल जाती है
ठोस बर्फ से तरल पानी बनना
सम्बन्धों में तृप्ति सबसे बड़ी असुविधा है
ज्ञात सबसे बड़ी बाधा
सतत् बचना जरूरी होता है
कुछ अज्ञात कुछ अनकहा
तभी बच पाता है
समबन्धों का भूगोल
विश्वास के झरनें सूख जाते है जब
तब न पत्थर में शिल्प दिखता है
न गहराई की लिपि समझ आती है
सम्बन्ध एक ख़ास किस्म की जटिलता बुनतें है
हम सरलता से समझना भी चाहें तो भी
नही जान पाते अपनी चाह का मनोविज्ञान
सब कुछ ठीक होना
हमेशा सब कुछ ठीक होना नही होता है
कभी कभी विश्वास शंका और मान्यताओं के जंगल में
निपट अकेले पड़ जाते है सम्बन्ध
मनुष्य की सीमा कर देती है
उसको सबसे अकेला
एक अच्छी खासी भीड़ के बीच।

© डॉ.अजित