Wednesday, July 28, 2010

सज़ा

तन्हाई का सबब खुद्दारी मे निकला

रहबर जिसे समझा

वो माहिर अय्यारी मे निकला

इम्तिहान इतने लिए ज़िन्दगी ने

हर लम्हा किसी गैर की तरफदारी मे निकला

फकीर जब उसके दर पर बेआबरु हुआ

किरदार तब उसका अदाकारी से निकला

खामोशी बेबसी की तहरीर थी

इल्जाम गवाह की ईमानदारी पे निकला

खुदा भी हैरान रहा इस बात पर

ताउम्र खुशियाँ बेचने वाले का

आखिरी वक्त बडी बेज़ारी मे निकला...।

डा.अजीत

Wednesday, July 7, 2010

सबक

हौसलों की बात करते रहे

बुझदिलो की महफिल मे सजते रहे

हम वो चराग है अपनी महफिल के

जो उजालो मे भी जलते रहे

बुझना तो चाहा कई बार

मगर कुछ मरासिम हसरतो मे पलते रहे

बुलन्दी का नशा होता तो कैसे होता

जिन्दगी किराये का घर था बदलते रहे

लबो पे हँसी आई तो टिक न सकी

आँसू पलको तले पलते रहे

अदब न समझ मे आया दूनिया का

तहजीब सीखाने वाले अब हद मे रहे

न अब दोस्ती किसी से न अदावत

न कोई शिकवा न शिकायत

सबक यही मिला हँसी से कही बेहतर है

याद बनकर किसी के चश्मेतर मे रहे...।

डा.अजीत

Saturday, July 3, 2010

विकल्प

कभी यह सोचकर

एक अजीब सी बैचेनी होती है

कि

विकल्प संकल्प की बाधा है

या एक ऐसी युक्ति

जिस पर गाल बजाई की जा सके

आदमी का अपनी सुविधा के लिए

गढा हुआ एक बहाना भी हो सकता है

जिसके होने और न होने से

कोई खास फर्क नही पडता

फिर यदि मित्र का विकल्प शब्दकोश

पत्नि का प्रेमिका

और दूसरे सम्बन्धो का कुछ और

बन सकता है

या बनाया जा सकता है

तो फिर कोई असुविधा ही नही रही

सम्बन्धो में

यह एक भटकन भी तो सकती है

अपने आपसे

अपने को भुलाने का एक उपचारिक

प्रयास

अलझाईमर की बीमारी अगर

जवानी मे हो जाए

कुछ दिन के लिए और फिर ठीक हो जाए

तो विकल्पों के रोजगार करने

की जरुरत ही न पडे शायद

यादें खट्ठी-मिट्ठी होती है

लेकिन खटास का मैल मन से धुलता क्यों नही

इसका धोने का कोई डिटरजेंट

नही बन पाया आजतक

समानांतर जिन्दगी के पडाव

पल भर सुस्ताने की मोहलत नही देते

और अगर फुर्सत मिल भी जाए

तो वो लोग नही मिलते

जिनकी जिद पर हमने रचा है

अपने वैकल्पिक सम्बन्धों

का पूरा हरा-भरा संसार

यह सोचकर एक ठंडी सांस भरी जा सकती है

या रोया जा सकता एकांत मे

शराब पीकर

लेकिन इन सब प्रपंचो से

किसी को कोई फर्क नही पडता
क्योंकि कोई हमारा विकल्प है
और हम किसी के विकल्प...।
डा.अजीत