Friday, January 30, 2015

अनुमान

सात कोरे अनुमान ...
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मुझे जब मिली तुम
अपने हिस्से का प्रेम कर चुकी थी
मेरे हिस्से आई
प्रेम की गुठली
जिसे बो दिया मैंने
खुद के अंदर
अब वो वटवृक्ष है
कभी थक जाओं तो
सुस्ताने आ जाना
निसंकोच
उसी के नीचे मिलूँगा
समाधिस्थ
तुम्हारी प्रतिक्षा में।
***
प्रेम कब देखता है
उम्र,कद,पद और हद
ये होता है बेहद और बेतरतीब
प्रेम का होना एक घटना है
और प्रेम में होना एक उपलब्धि
जिसका पता चलता है
प्रेम को खोकर।
***
तुम्हारे अंदर
एक सूखती झील थी
अनुपयोगी समझ
जिसके किनारे टूट रहे थे
खुद ब खुद
मैंने देखा उसके तल में
बैठा प्रेम
उसका जलस्तर बढ़ाने के लिए
उधार मांग लिए आंसू
प्रेम बेहद तरल था
समझा जाता था जिसे गरल।
***
समानांतर जीवन जीने के
जोखिम बड़े थे
छाया धूप पर आश्रित थी
मेरे हिस्से की धूप
निगल गई थी
तुम्हारे हिस्से का सुख
यह अपराधबोध
प्रेम को चाट रहा था
घुन की तरह।
***
नदी की तरह
तुम्हारे तट
अस्त व्यस्त थे
सागर की तरह मेरी परिधि
अज्ञात थी
ज्वार भाटों की मदद से
देखता था तुम्हारा आना
तुम सूख गई
चार कोस पहले
इसलिए आजतक खारा हूँ मैं।
***
प्रेम रचता है
अधूरेपन के षडयंत्र
ईश्वर की मदद लेकर
दो अधूरी समीकरणों को
सिद्ध करने के लिए
मनुष्य बनाता है प्रमेय
सही उत्तर भी
किसी भी हद तक
हो सकता है गलत प्रेम में
विज्ञान गल्प है प्रेम के समक्ष।
***
खो देगी सम्वेदना
जब त्वचा
स्पर्श हो जाएंगे
जब अनाथ
मेरी पलकों पर
सुरक्षित रहेंगे
तुम्हारी पलकों के निशान
पवित्र आलिंगन की शक्ल में
सम्बन्धों के महाप्रलय के बाद
इतना बचाने में
सफल रहूंगा मैं
एक पराजित योद्धा का यह अंतिम
घोषणा पत्र है।

© डॉ. अजीत 

Thursday, January 29, 2015

वनवास

सात वनवास...
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कॉफी का एक मग
चाय की एक कुल्हड़
बीयर की एक कैन
शराब का एक पैग
आंसूओं की जगह पीने के
कितने विकल्प थे
इसलिए नही देख पाई तुम कभी
मेरे आंसू
इसका अर्थ यह नही था कि
बहुत खुश था मैं।
***
दुःखो के चयन में
सुख एक शाश्वस्त छल था
जो बचाये रखता था
दुःख के बीच
अपनी प्रासंगिकता
अपनी अकाल मृत्यु के साथ।
***
हाथों की सरंचना में
अनुपस्थित थी
पुरुषोचित्त कठोरता
इसलिए स्पर्श सुखद थे
परन्तु आश्वस्तिविहीन
तुम्हारा हाथ छूटने की
बड़ी वजह एक यह भी थी।
***
आत्मीयता और आसक्ति के बोझ
जब एकतरफा हुए
बोध रोया दहाड़ मारकर
जानते हुए सब
खुद को ठगना
दिल के साथ
सबसे बड़ी ज्ञात ज्यादती थी।
***
जूतों पर धूल
आँखों में सपनें
जेब में महामृत्युंजय मन्त्र
ये तीन जीवित दस्तावेज़ मिले
उसकी मृत्यु पर
वो इस तरह
जीना चाहता था
उसकी स्मृतियों में।
***
उसे विजेता साहसी योद्धा
पसन्द थे
पलायन बर्दाश्त नही कर सकती थी वो
उसकी हार पर
वो समझ नही पायी
वो सही थी कि गलत
उसकी हार को
जीत से अलग कर पाना मुश्किल था
उसके लिए।
***
यात्री की धुरी
दलदली जमीन का हिस्सा थी
वहां से निकलना
फंसने की अनिवार्यता लिए था
इसलिए वो लौट आता
खुद से खुद तक
यात्रा पूर्ण होती
अपने अधूरेपन के साथ।

© डॉ. अजीत 

Saturday, January 24, 2015

वो सात दिन

हफ्ता: सात दिन,सात युग
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इतवार
तुम्हारी यादों की
छुट्टी का नही
खुद को समेटने का दिन
हफ्ते भर
उघड़ता रहता हूँ
इस दिन इकट्ठा करता हूँ
खुद को
और बंद कर देता हूँ
अनुभव की किताब में
जिसे कभी नही पढ़ा जाता।
***
हफ्ते का पहला दिन
सोमवार
नही होता पहला मेरे लिए
इतवार के बोझ और
तुम्हारी बेरुखी से झुकी मेरी पीठ
आधी ही आँखें खोलने की इजाज़त देती है
धुंधलके में नही देख पाता तुम्हें ठीक से
इसलिए नही मानता
पहला दिन होता है
सोमवार।
***
मंगल जितना सात्विक ध्वनि देता है ना
उतना सात्विक कभी नही रहा मेरे लिए
समय के षडयन्त्रों
मेरी कमजोरियों और
तुम्हारी बुद्धिमत्ता के बीच
रेंगती है मेरी परछाई
शाम को याद में किसी संकटमोचक के
जाता हूँ मन्दिर
संकट और मै एक दिन पैदा हुए
जिसमें संकट मेरा बड़ा भाई है।
***
बुध के वार
प्राय: खाली ही जाते रहे मुझ पर
जब मेरी पीठ तुम्हारी उपेक्षा से होती घायल
मै बुध की तरफ अपना माथा कर देता
बुध तुम्हारा लिहाज़ करके
छोड़ देता मुझे
क्योंकि
वहां उसे दिख जाते
तुम्हारी अनामिका के निशान
रेखाओं की शक्ल में।
***
गुरुवार
मुझे सिखाता
तुम्हारी चालाकियों से बचनें के रास्ते
तुम्हारे कथन और करन के अंतर
फिर दक्षिणा में मांग लेता
मेरा दिल
मना करने पर मिलता श्राप
दिल के हाथों ठगे जाने का।
***
शुक्रवार
हरारतों, शरारतों का दिन होता प्रायः
भूल जाता इस दिन
नैतिक प्रश्न
ढीली कर देता वर्जनाओं की लगाम
भौतिक कैवल्य बन जाता लक्ष्य
शाम होते ही डूब जाता
गहरे अवसाद में
अच्छाई के अपने बोझ होते है
जान पाता इसी दिन।
***
शनि की छाया
और तुम्हारे प्रेम की साढ़ेसाती
मुझ पर चल रही है
कई जन्मों से
इसका उपचार ज्योतिष में नही
तुम्हारे मन की किताब में है
जो न तुम खुद पढ़ती हो
न मुझे पढ़नें देती हो।
***
उफ़्फ़....! आज फिर इतवार है !

© डॉ. अजीत

Friday, January 23, 2015

उम्मीद

उम्मीद
तुम्हें मेरे अंदर
जिन्दा रखती है
स्वप्न की शक्ल में
एक ऐसा स्वप्न
जिसे देखता रहता हूँ
खुली आंख भी
उम्मीद का झूठ
बंद आँख का स्वप्न है।
***
तुम्हारे जीवन में
जीरो वॉट के बल्ब जैसा था
मेरा होना
उपयोगी की हद तक
अनुपयोगी।
***
तुम जीवन में
पर्यायवाची की तरह मिलें
मेरी संज्ञाए
विशेषण न पा सकी
शायद
समय के व्याकरण में
कोई मानक त्रुटि थी।
***
तुम्हारे सत्संग में
जान पाया
जीवन का शाश्वस्त सच
हर अस्थाई और खोने वाली चीज़
सबसे प्रिय होती है
जैसे तुम्हारा प्रेम।
***
तुम्हारे लिए प्रेम का विस्तार
एक अनुभव था
मेरे लिए जीवन
दो समानांतर यात्राएं
समाप्त होनी थी
एकांत के टापू पर।
***
तुम्हारी आँखों में
पढ़ लिया था मैंने
समय का कौतुहल
तुम्हारा सिमटना
उसी का षडयन्त्र था
थोड़ा ज्ञात थोड़ा अज्ञात।
***
जीवन की अन्य
प्राथमिकताओं के समक्ष
सबसे छोटा था प्रेम
इसलिए तुम्हें
नजर तब आया
जब उपलब्धि के शिखर पर
नितांत अकेली थी तुम।
***
तलाशता हूँ तुम्हें
अधूरे शब्दों में
छोटी छोटी शिकायतों में
तुम्हारा पता नही मिलता
मिलता है
कतरों में अपनें हिस्से का सच
तुम्हारा सच लापता है
और मेरा झूठ गुमशुदा।
***
© डॉ. अजीत

Thursday, January 22, 2015

नाराज़गी

तुम्हारा नाराज़ होना: जैसे वक्त का खुदा होना
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मुझ पर नाराज़ होने का
हक सिर्फ तुम्हारा था
गुस्से में तुम ऐसे बरसती
जैसे सावन में बदरी
भीग जाता था
गहरे अपनेपन से
तुम्हारी आखिरी
प्यार भरी बात भले याद न हो
तुम्हारा गुस्सा
रहता है हमेशा याद।
***
लम्बे अरसे से
तुम नाराज़ नही हुई मुझ पर
सन्देह होने लगा है
खुद की समझदारी पर।
***
पहली बार जब तुम
नाराज़ हुई
मुझे बुरा लगा
और जब आख़िरी बार नाराज़ हुई
तब अच्छा लगा
एक यात्रा की पूर्णता थी
तुम्हारी नाराज़गी
प्रायः प्यार से बढ़कर।
***
कभी कभी तुम इतनी
तल्ख हो जाती थी
बातचीत में कि
सन्देह होने लगता था
तुम्हारे स्त्री मन पर
दरअसल तुम्हारी वो तल्खी
मुझे भीड़ में खोने से बचाने की थी
यह समझ पाया तुम्हें खोकर।
***
नाराज़गी में कर देती तुम
बातचीत बंद
नही उठाती फोन
नही देती जवाब किसी एसएमएस का
फिर भी हो जाती थी
हमारी बातें आपस में
नाराज़गी में
मेरे सबसे करीब रहती थी तुम
ख्याल रखना किसे कहते है
समझ पाया
तुम्हारी नाराज़गी में।
***
तुम्हारी नाराज़गी ने
कभी इतना नही डराया कि
तुमसे प्रेम करने में असुविधा हो
तुम्हारी नाराज़गी
मनुहार नही
थोड़ा समय चाहती थी बस
संयोग से जो भरपूर था
मेरे पास।
***
जब भी तुमसे
नाराज़ होने की सोचता
तुम खुद नाराज़ हो जाती
मन को पढ़ना जानती थी तुम
इसलिए बचा ली
मेरी नाराज़गी
और खर्च कर दी अपनी नाराज़गी।
***
अक्सर तुम्हारी नाराज़गी
इस बात पर होती कि
केवल खुद के लिए जीता हूँ मैं
और
जब तुम्हारे लिए जीना चाहा
तुम नाराज़ हो गई इस पर भी
जीना मेरे जीवन का
सबसे बड़ा अभिशाप था।
***
तुम्हारी नाराज़गी
हमारे अलग होने का
पूर्वाभ्यास थी
यह बात दिमाग समझता था
मगर नाराज़गी
दिल के हिस्से आई
दिमाग हंसता रहा बस।
***
कितनी लम्बी हो गई
इस बार तुम्हारी नाराज़गी
खत्म होनें का नाम नही लेती
मान जाना
कम से कम उससे पहले कि
मै खुद से नाराज़ हो जाऊं
जो तुम कभी नही चाहती।

© डॉ. अजीत

हासिल

इक वक्त बहुत मुश्किल था मैं
फिर भी तुझको हासिल था मैं

रफ्ता रफ्ता बदतमीज़ हुआ हूँ
कभी अदब का कामिल था मैं

तुम मिलें भी उस नाजुक वक्त
जब घटता हुआ हासिल था मैं

खो दिया तुम्हें अक्सर पाकर भी
थोड़ा बेबस थोड़ा गाफिल था मैं

झील सी खूबसूरत नाजुक तुम
सूखते तालाब का साहिल था मैं

© डॉ. अजीत

Wednesday, January 21, 2015

ख़्वाब

पा कर खोना है
यही एक रोना है

दिमाग के भीतर
दिल का कोना है

कल कुछ नही है
आज सब होना है

ख्वाब दिखा नही
वही बस सलोना है

जाग लो कितना
एकदिन सोना है

©डॉ. अजीत

Tuesday, January 20, 2015

मिलना

जब दिल में है सच्चाई
क्यों हम हिजाबों में मिलें

न जाने कौन सी जंग थी
दोस्त भी नकाबों में मिलें

कुछ सवाल ऐसे भी थे
जवाब न किताबों में मिलें

सफर पर बदन रहता है
तुम अक्सर ख़्वाबों में मिलें

सवाल पूछकर शर्मिंदा हूँ
लहज़े ऐसे जवाबों में मिलें

थक गया जब तलाश कर
पते पुरानी शराबों में मिलें

© डॉ. अजीत

Friday, January 16, 2015

कतरन

टेली ऑपरेटर की तरह
उस दिन तुमने कहा
आपका दिन शुभ हो
इस तरह से
शुभ होना
पहली बार लगा
बेहद अशुभ।
***
उन दिनों तुम
कहावतों में बातें करती थी
एकदिन तुमने कहा
जब जागो तभी सवेरा
तुम्हारी याद में रात भर जाग कर भी
सवेरा नही होता
सिर्फ दिन निकलता है
कितना झूठ बोलती थी तुम।
***
चाहे कुछ भी भूल जाओं
नही भूलती थी कहना
टेक केयर
तुम्हारी अनुपस्थिति में
इन दो निसक्त शब्दों ने
कोई मदद नही की मेरी
जान लो तुम।
***
तमाम शब्द सामर्थ्य के बावजूद
आज भी नही जानता
तुम्हारे एक सवाल का
सही जवाब
जो अक्सर पूछती हो तुम
कैसे हो तुम...!
***
तुम्हें भरोसा था
वक्त हर जख्म भर देगा
वक्त के बढ़ने के साथ
जख्म होते गए और गहरे
जख्मों से ज्यादा
तुम्हारा भरोसा टूटने का दुःख है।

© डॉ. अजीत

Wednesday, January 14, 2015

काम

काम कितना भी जरूरी हो भले न बिना मेरे होता हो
फोन उठा ही नही सकता जब बच्चा गोद में सोता हो

एक दिन बेवजह हंसने का मतलब समझ जाओगे
चुप करा देना किसी रोते हुए को न जो चुप होता हो

ये बाजार के कायदे तरक्क़ी के हुनर क्या बताओगे
रोज सब कुछ पाकर भी जो सबकुछ यूं ही खोता हो

महलों की रौनक क्या रोक पाएगी देहाती परिन्दें को
थकान के बिस्तर पर ख़्वाबों को बिछाकर जो सोता हो

लबों पर मुस्कान दिल पर छाले मिलेंगे उसके देखना
खुलकर जो हंसता हो अक्सर मगर तन्हाई में रोता हो

© डॉ. अजीत

Tuesday, January 13, 2015

निस्तेज

थके कदमों से
लौट आता हूँ
उस बिस्तर की ओर
जो रोज़ सुबह
गर्द के रूप में
झाड़ देता है
संचित पुरुषार्थ
निस्तेज होने से पूर्व की करवट
निराशा को ओढ़ने से
करती है इनकार
एकमात्र इसी कारण से
बिस्तर सहता है
अपवाद का बोझ।

© डॉ.अजीत 

Monday, January 12, 2015

मतिभ्रम

जब खुद की लिखी बातों से
चरम असंतुष्ट होता हूँ
उन्हें खारिज़ कर रहा होता हूँ
वहीं बातें
लोकप्रियता के शिखर पर चढ़ती जाती है
मेरे पास एक कोरा विस्मय होता है
उस समय
इसके ठीक उलट
खुद के लिखे जिन शब्दों पर
खुद ही होता है रश्क
आत्ममुग्धता में
थपथपाना चाहता हूँ खुद की पीठ
वो शापित हो जाती है
उपेक्षा का निर्वासन झेलने के लिए
तमाम बुद्धजनों की साध संगत के बावजूद
नही सीख पाया
लोक की लोकप्रिय और खुद की प्रिय
रचनाओं के मध्य संतुलन साधना
शायद
मै समय से थोड़ा आगे-पीछे चल रहा हूँ
मतिभ्रम का शिकार भी हो सकता हूँ
इसलिए अपने दोस्तों पाठकों
की आँखों में आँखें डालकर
पूरे आत्मविश्वास से कहता हूँ
मेरा एक लोकप्रिय कवि/लेखक बनना
सदैव संदिग्ध है
ऐसा कहना आपके
प्रेम और अपनत्व का अपमान नही
बस खुद की सीमा की
एक ईमानदारी
आत्मस्वीकारोक्ति भर है
जो देर सबेर सबको
समझ आनी ही है।

© डॉ. अजीत

मन के विज्ञापन

कुछ मन के विज्ञापन...
-----

तुम्हारा साथ
अब जीवन बीमा की तरह चाहिए था
जिंदगी के साथ भी
और जिंदगी के बाद भी।
***
चाहता हूँ
हमारे भविष्य को लेकर
थोड़ा बहुत डरती रहो तुम
क्योंकि
डर के आगे जीत है।
***
तुम्हारा अचानक आना
उदासी के पलों में भी
मुस्कुराना
बच्चों की तरह समझाना
खुशियों की होम डिलीवरी
इसी को कहते है शायद।
***
तमाम नाराज़गियों
गुस्ताखियों और
बिछड़ने के सच के बावजूद
गार्नियर की तरह
नही भूलती कहना
ख्याल रखना अपना।
***
हद दर्जे की
सांसारिक व्यस्तताओं के बीच
न जाने कब
समझ पाओगी
दिल के नेटवर्क की ये बात
दूरियों का मतलब फांसलें नही।
***
© डॉ. अजीत

Sunday, January 11, 2015

याद

एक मफलर
तुम्हारी याद का
गले से लिपटा पड़ा है
इस सर्दी में जब कान
होते जाते है लाल
उसी की मद्धम आंच से
बचाता हूँ खुद को
कुछ बैरंग खत मेरी जेब में है
डाकिए ने लाल कलम से
लिखा है उन पर
'लेने से इनकार किया'
इसी इनकार में
तलाशता हूँ
अपनी गुस्ताखियों की वाजिब वजहें
घटती बढ़ती धड़कनों पर
लगा देता हूँ कान
ताकि सुन सकूं
तुम्हारे नाम का संधि विच्छेद
तुम्हारे नाम पर कुछ
जबरदस्ती की दिलासाएं है
मेरे पास
इस भरी सर्दी में
जलाकर उनका अलाव
सेंकता हूँ खुद का वजूद
अब जब तुम
कहीं भी नही हो
तुम्हें बांधें रखता हूँ
मन की गिरह से
रिसते हुए तुम खत्म हुई
और पता भी नही चला
अगर पता चल भी जाता
तब भी कहां रोक पाता तुम्हें
रोकने के जिस अधिकार की जरूरत थी
वो बेरोजगारी में भी न कमा पाया
फिलहाल तो
तुम्हारी यादों की पक्की
नौकरी पर हूँ मै
लापरवाही दबें पांव आती है
और ले जाती है
सबसे कीमती समान
बिना बताए
ये पहली और आख़िरी बात
होश में समझ पाया।
© डॉ. अजीत

Saturday, January 10, 2015

पांच बातें

कहनी है पांच बातें...
-----
बचना था उसके अंदर
आधा अधूरा
इसलिए
बो दिए कुछ ख़्वाब
उसके सिरहाने
भोर के।
***
कहना था पूर्ण विराम
अंत से पहले
इसलिए
बदल दिया
सम्बन्धों का व्याकरण
आरम्भ से पहले।
***
बहना था नदी की तरह
चुपचाप
इसलिए छोड़ दिए
किनारें
मात्र एक आलिंगन के बाद।
***
रहना था कुकरमुत्ते सा
अज्ञात
इसलिए
चुन ली निष्प्रयोज्य जमीन
और अरुचि की नमी
सफेद जंगल
उतना नैसर्गिक नही था
जितना दिखता था।
***
सहना था
एकपक्षीय रिश्तों का भार
इसलिए
झुका दिए
अह्म के कंधे
चेतना की पीठ
उसकी शर्तों पर।
***
© डॉ. अजीत

प्रेम

दस बातें प्रेम की...
----

प्रेम को
अस्पष्ट लिखनें का
प्रेम से मुक्त लोगो को
प्रेम की माया में खींचनें का
अभियोग लगा था उस पर
प्रेम की तमाम सजा उसके लिए
निर्धारित हुई
जिसे प्रेम कभी नसीब नही हुआ।
****
प्रेम पर व्याख्या
शब्दों का अपव्यय था
अनुभूति मौन थी
उसके व्याख्यान
सम्वेदना से अधिक
बुद्धि के विमर्श थे
जिनकी दस्तक
दिल पर होती थी सीधे।
***
प्रेम जब
पवित्र अहसासों की गोद से उतर
उम्र के यहां मजदूरी करने लगा
तब उसके प्रेम को
वयस्क मानने से ऐतराज़ था
बाल श्रम सा अवैध
रहा उसका प्रेम
बिना किसी पुर्नवास के।
***
प्रेम की टीकाएं
इतनी व्यक्तिगत किस्म की थी कि
उनमें रूचि
भाषाई चमत्कार से आगे न बढ़ पाई
प्रेम का व्यक्तिगत होना
प्रेम का अकेला होना भी था।
***
प्रेम को देखने समझने का
सबका अपना चश्मा था
जहां प्रेम था
वहां नजर नही आता था
और जहां नही था
वहां अक्सर खोजकर बताया जाता था
प्रेम।
***
प्रेम में होने एक अर्थ
एकाधिकार और बन्धन से भी
जुड़ा था
इसलिए प्रेम अक्सर
ऊब की वजह भी बनता था
प्रेम का यह सबसे
मजबूत और कमजोर पक्ष था।
***
प्रेम में शायद का जुड़ना
एक ज्ञात भरम था
क्योंकि
क्या तो प्रेम होता है
या नही होता
शायद प्रेम का स्याद् था
जिसकी साधना कठिन थी
हमेशा।
***
प्रेम का पता तब चलता
जब ये संक्रमित कर चुका होता
दिल और दिमाग
आदि व्याधि था प्रेम
जिसका उपचार
विज्ञान की किसी विधा में
नही था उपलब्ध।
***
प्रेम बार बार हो सकता था
अंतिम प्रेम
पहले प्रेम से
मात्र इतना भिन्न था
वो देख सकता था
अपनी कमजोरियां।
***
प्रेम स्थिर होने पर
सड़ सकता था
गतिशील होने पर
सम्मान खो सकता था
यात्रा प्रेम की नियति थी
और अधूरापन
प्रेम का प्रारब्ध।
***
©डॉ. अजीत

सपनें

सपनें कम से कम 
मनोरंजन की श्रेणी में 
नही रखे जा सकते 
मनोविज्ञान भले ही 
उन्हें कहे 
अतृप्त कामना
या वर्जनाओं के आकर्षण की
अभियक्ति 
सपनें दिखाते है 
डर असुरक्षा और इनके इर्द गिर्द लिपटी
महत्वकांक्षा 
मगर सारे सपनें केवल 
इन्ही के नही होते 
कुछ सपनें आतें है बेवजह 
अमूर्त और शायद ज्यादा गहरे 
स्मृति तक नही सम्भाल पाती 
उनके छायाचित्र 
इन सपनों को नही आता
दिन और रात में भेद करना
उम्र की कोई रियायत 
उनके पास नही होती 
वो दिखा सकते 
कुछ भी 
अप्रत्याशित 
शायद वो बताना चाहते है 
सपनें सावधानी से देखों 
बंद आँख का सपना 
भले ही गल्प निकल जाए 
खुली आँख का सपना
हो जाता है सच एकदिन 
बिना हमें बताए 
सपनों का सच सपनें बताते है 
इसलिए 
न यकीन बचता है 
न स्मृति 
शेष बचता है अफ़सोस 
और सपनें न सम्भाल पाने का कौशल
वो भी किसी 
अधूरे सपनें की शक्ल में।
© डॉ. अजीत 






Wednesday, January 7, 2015

नजरअंदाज़

जीवन के अमूर्त
स्थापत्य में छूट जाती है
अनायास ही
बेहद मामूली चीज़े
जैसे सुंदरतम रचना में छूट जाता है
एक छोटा सा भाव
नजरअंदाज़ करने की कला
बन सकती है जीवन का बड़ा सूत्र
बशर्ते
छूटी हुई चीज़ो के प्रति
समानुभूति हो
यात्रा के अनावरण में
छिपी होती है तैयारी
आकर्षण अज्ञात से बड़ा
ज्ञात का हो सकता है
देखते हुए मन का एकांत
निर्वात को सूंघ लेना
बड़ी बात हो सकती है मगर
उतनी भी बड़ी नही कि
खुद को सिद्ध मान लिया जाए
त्रुटि का होना एक संकेत है
या फिर अस्तित्व का अह्म पर वार
जिसे देखने के लिए
लौटना पड़ता है
आरम्भिक बिंदू पर
एक छोटी सी तैयारी के साथ
दरअसल
छूटना या छोड़ देना
दो अलग चीजे है
जिनका भेद तब समझ आता है
जब इनका हिस्सा बनते है हम
विभाजित होनें का दुःख
अकेला होने से छोटा होता है
तभी
भीड़ का एकांत
मन के निर्वात को धकेल देता है
गलतियों के जंगल में
वहां से बेहताशा दौड़ते हुए
खुद तक लौटते है हम
थकावट ऐसी छोटी मोटी गलतियों को
नजरअदाज़ कर भी दें
हम नही कर पाते
खुद को नजरअंदाज़ कभी।

© डॉ. अजीत 

आदत

सबसे पहले कमेंट
गैरहाजिर हुए
फिर लाइक
शेयर के लायक
अवसर तो पहले से ही कम थे
टैग किया हो कभी
ऐसा ध्यान नही आता
फेसबुक के लाल ग्लोब से
इस तरह तुम्हारे खत गायब हुए
जैसे दूर समन्दर का कोई निर्जन टापू
डूब जाता है धीरे-धीरे
इनबॉक्स में तल्खियों के जंगल में
तलाशता हूँ
चंद नरम लहज़े
मरहम के माफ़िक
उनका लेप काम आता है
एकांत की टीस में
कुछ शिकायतों के हरे शैवाल
ठंडक देते है अपनेपन की
उन तस्वीरों नज़्मो और कविताओं
से तुम्हारी पहली लाइक रंग
धीरे धीरे उड़ रहा है
जो कभी बढ़िया होने का
दावा किया करती थी
कमेंट में स्माईली और शब्दों की दूरी
निरन्तर बढ़ती जाती है
उनको पढ़ने के लिए
लगाना पड़ता है चश्मा
कई दफा
तुम्हारे जुड़ने जुड़कर साथ चलने
और अब तटस्थ रहने की
इस त्रियामी यात्रा को
खुली आँख देख नही पाता हूँ
बंद आँखों से बुदबुदाता हूँ
फेस और बुक दोनों पर
तुम्हारा कोई जवाब लिखा नही मिलता
उदासी और खीझ के पलों में
सोचता हूँ अकाउंट डिएक्टिवेट करने के बारें में
तभी फेसबुक
दिखा देती है अपनी यांत्रिक चालाकी
मिस्स करने वालों में
तुम्हारा नाम सबसे पहले देखकर
मिलती है झूठी खुशी
और लौट आता हूँ
इस आभासी दुनिया के
सुलझे-उलझे यथार्थ में
जब दस्तक लॉग इन और लॉग आउट के
मध्य से खिसक कर
बैठ जाती है ऊकडू
दिल और दिमाग के बीच
तब लगता है
फेसबुक हो सकती है जानलेवा
किसी प्रेमिका की तरह
मगर मात्र लगने से
नही बदलती आदत
जो शायद तुम्हारी वजह से
अब लत के जैसी बनती जा रही है
धीरे-धीरे
तुम्हें खबर हो या ना हो।

©डॉ. अजीत



Tuesday, January 6, 2015

विदा

अब जब सबकुछ
समाप्त होने को था
हमारे मध्य
एक अपेक्षाओं का टापू
ऐसा भी था
जिसकी बंजर धरती पर
कुछ बीज बिखरे पड़े थे
उम्मीद के
शायद कभी किसी
बेमौसमी बारिश में
कुछ आवारा ख्यालों के खाद से
उनमें अंकुरण हो भी सकता था
संभावना एक छल भी था
और बल भी
हम दोनों की अरुचि के
अवैध पुत्र थे ये बीज
परन्तु उनकी
गुणवत्ता विदा से ज्यादा
खूबसूरत थी
विदा अलविदा न बनें
यह सोचकर
एक मुट्ठी बीज हमनें
अपनी जेब में रख लिए
बिना एक दूसरे को बताए
एक दूसरे की शक्ल न देखनें के
पर्याप्त कारणों के बीच
एकमात्र यही कारण
शेष बचा था
जिसे सम्बन्ध की
अधिकतम उपलब्धि समझ
विदा की शाम पर
मुस्कुराया जा सकता था
कुछ मुस्कानों का सच
बेहद जटिल होता है
विदा और अलविदा के
बीच पसरी मुस्कान
रहस्यमयी नही
उदास होती है
एक दुसरे की आँखों में
यही पढ़ पाएं हम
अंतिम बार।

© डॉ. अजीत



Sunday, January 4, 2015

घटना बढ़ना

ऐतराज़ बढ़ने लगे है
खुदी से लड़ने लगे है

डरो मत गुफ्तगु से
हम सिमटने लगे है

दोस्तों के बीच हमारे
इश्तेहार बंटने लगे है

बदल गए तेवर तेरे
हम अब घटने लगे है

सफाई तौहीन है अब
यकीं में मरने लगे है
© डॉ. अजीत

Saturday, January 3, 2015

सच

विस्तार और सिमटने के
मुहाने पर हुई मुलाक़ात
असमंजस के विज्ञापन
प्रकाशित कर
भरम का व्यापार करती है
बढ़ते कदमों की परछाईयां
निशान नही छोड़ती
विस्तार अभिलाषा का दास है
सिमटना कमजोरी का प्रतीक
जीवन की गति
भरम के सहारे बढ़ सकती है
परन्तु टिकती यथार्थ के बल पर है
देह और चेतना के जुड़ाव
सम्वेदना का सहारा लेते है
और सम्वेदना एक अज्ञात प्यास से
जो तृप्ति से बढ़ती जाती है
तमाम ज्ञात प्रश्नों के उत्तर
उस अज्ञात से मिलते है
जिसे अनुभव कहा जाता है
संदिग्ध जीवन के सूत्र सिखाते है
भेद-विभेद
ऐसी मुलाकातों की स्मृतियां
उम्र में बड़ी मगर शक्ल में छोटी
नजर आती है
खुद का सच
जीवन के सच से
हमेशा बड़ा होता है।

© डॉ. अजीत

Friday, January 2, 2015

बदलाव

'तुम्हारे साथ-तुम्हारे बिना'
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तुम्हारे साथ
सीख पाया
खुद का
बेहतर अनुवाद।
***
तुम्हारे साथ
विदा कर पाया
मन की असुरक्षाएं
अतृप्त कामनाएं
और अधूरे स्वप्न।
***
तुम्हारे साथ
जी पाया
लम्हा-लम्हा
जिंदगी
उम्र छोटी शक्ल बड़ी
होती रही अनुमानों में।

***
तुम्हारे साथ
कह पाया
मन की बात
बिना परवाह किए
सीख पाया फर्क करना
बेपरवाही और लापरवाही में।
***
तुम्हारे साथ
बह पाया
नदी की तरह
छोड़ समन्दर होने का
अभिमान।
***
तुम्हारे बिना
खो दिया
अनुमान
वक्त के बदलनें का।
***
तुम्हारे बिना
पा लिया
शब्दों के ब्रह्म को
बिना किसी वरदान के।
***
तुम्हारे बिना
महसूस किया
धड़कनों में बंटवारा
आती-जाती रही वो
बिना बोलचाल के।
***
तुम्हारे बिना
देख लिया
यातनाओं का समर
अपनत्व के भेद से
मिली सशर्त मुक्ति।
***
तुम्हारे बिना
भूल गया
समय का बोध
पीठ पर बांधी
ब्रह्मांड की घड़ी
कलाई पर वक्त की हथकड़ी।

© डॉ. अजीत

Thursday, January 1, 2015

सात मील

सात मील जिंदगी...
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भूख का रिश्ता
जिस्म या रूह से ज्यादा
जरूरत से जुड़ा था
जब से जरूरत रूपांतरित हुई
भूख समाप्त हो गई
इसका एक मतलब
यह भी निकाला जा सकता है
बीमार या भरा हुआ नही था
भूख के लिए समय नही था उसके पास।
***
स्पर्शों में
नयापन बचा रहे
इसके लिए जरूरी थी
एक दूरी
त्वचा की स्मृति धोने को
आचमन का जल पर्याप्त था
उसके लिए।
***
देह के भूगोल ने
दिए कुछ रिक्त स्थान
मन के आवेगों ने
विकल्प
दर्शन की चैतन्यता ने दी दृष्टि
मन के मनोविज्ञान ने दिए जवाब
कुछ उत्तर संदिग्ध कुछ स्पष्ट थे
प्रायः कृपांक से उत्तीर्ण हुआ
उसका अस्तित्व।
***
कुछ प्रश्नों के जवाब नही थे
कुछ के उत्तर अधूरे थे
और कुछ प्रश्न ही गलत थे
ऐसी परीक्षा में हुआ
उसका मूल्यांकन
एक कदम आगे बढ़ने की कीमत
खुद को गलत उसको सही
साबित करके चुकानी थी उसे।
***
शब्द एक मीमांसा है
शब्द एक विलास नही
शब्द जब खेलते है हमसे
सुलझा देते है मन के भरम
जब हम खेलते है शब्दों से
उलझा देते है मन व्यकारण
दीक्षांत पर
यही मिला था उसे गुरुमंत्र।
***
प्रेम प्रतिक्रिया की उपज नही थी
प्रेम आंतरिक निर्वात का दस्तावेज़ भी नही था
प्रेम स्व निर्वासन पर आश्रय निवेदन भी नही था
प्रेम आग्रह अपेक्षा से भी मुक्त था
इतने नकार के बीच
उसनें बचाए रखी
प्रेम की लौकिकता और पवित्रता
अलौकिक प्रेम काल्पनिक सच है
ये बात ठीक से पता थी उसे।
***
परिभाषाएं असंगत थी
अवधारणाएं महीन
सम्बन्धों का समाजशास्त्र आता था
मन की देहरी पर व्याख्यान देने
अपनेपन को समझते हुए
रिश्तों का आकार नापता था दिमाग
आँखें दिल के साथ थी
और दिल था छल में निष्णात
सब कुछ इतना ही अमूर्त था
उन दोनों के बीच।

© डॉ. अजीत