Saturday, January 24, 2015

वो सात दिन

हफ्ता: सात दिन,सात युग
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इतवार
तुम्हारी यादों की
छुट्टी का नही
खुद को समेटने का दिन
हफ्ते भर
उघड़ता रहता हूँ
इस दिन इकट्ठा करता हूँ
खुद को
और बंद कर देता हूँ
अनुभव की किताब में
जिसे कभी नही पढ़ा जाता।
***
हफ्ते का पहला दिन
सोमवार
नही होता पहला मेरे लिए
इतवार के बोझ और
तुम्हारी बेरुखी से झुकी मेरी पीठ
आधी ही आँखें खोलने की इजाज़त देती है
धुंधलके में नही देख पाता तुम्हें ठीक से
इसलिए नही मानता
पहला दिन होता है
सोमवार।
***
मंगल जितना सात्विक ध्वनि देता है ना
उतना सात्विक कभी नही रहा मेरे लिए
समय के षडयन्त्रों
मेरी कमजोरियों और
तुम्हारी बुद्धिमत्ता के बीच
रेंगती है मेरी परछाई
शाम को याद में किसी संकटमोचक के
जाता हूँ मन्दिर
संकट और मै एक दिन पैदा हुए
जिसमें संकट मेरा बड़ा भाई है।
***
बुध के वार
प्राय: खाली ही जाते रहे मुझ पर
जब मेरी पीठ तुम्हारी उपेक्षा से होती घायल
मै बुध की तरफ अपना माथा कर देता
बुध तुम्हारा लिहाज़ करके
छोड़ देता मुझे
क्योंकि
वहां उसे दिख जाते
तुम्हारी अनामिका के निशान
रेखाओं की शक्ल में।
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गुरुवार
मुझे सिखाता
तुम्हारी चालाकियों से बचनें के रास्ते
तुम्हारे कथन और करन के अंतर
फिर दक्षिणा में मांग लेता
मेरा दिल
मना करने पर मिलता श्राप
दिल के हाथों ठगे जाने का।
***
शुक्रवार
हरारतों, शरारतों का दिन होता प्रायः
भूल जाता इस दिन
नैतिक प्रश्न
ढीली कर देता वर्जनाओं की लगाम
भौतिक कैवल्य बन जाता लक्ष्य
शाम होते ही डूब जाता
गहरे अवसाद में
अच्छाई के अपने बोझ होते है
जान पाता इसी दिन।
***
शनि की छाया
और तुम्हारे प्रेम की साढ़ेसाती
मुझ पर चल रही है
कई जन्मों से
इसका उपचार ज्योतिष में नही
तुम्हारे मन की किताब में है
जो न तुम खुद पढ़ती हो
न मुझे पढ़नें देती हो।
***
उफ़्फ़....! आज फिर इतवार है !

© डॉ. अजीत

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