Saturday, January 10, 2015

प्रेम

दस बातें प्रेम की...
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प्रेम को
अस्पष्ट लिखनें का
प्रेम से मुक्त लोगो को
प्रेम की माया में खींचनें का
अभियोग लगा था उस पर
प्रेम की तमाम सजा उसके लिए
निर्धारित हुई
जिसे प्रेम कभी नसीब नही हुआ।
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प्रेम पर व्याख्या
शब्दों का अपव्यय था
अनुभूति मौन थी
उसके व्याख्यान
सम्वेदना से अधिक
बुद्धि के विमर्श थे
जिनकी दस्तक
दिल पर होती थी सीधे।
***
प्रेम जब
पवित्र अहसासों की गोद से उतर
उम्र के यहां मजदूरी करने लगा
तब उसके प्रेम को
वयस्क मानने से ऐतराज़ था
बाल श्रम सा अवैध
रहा उसका प्रेम
बिना किसी पुर्नवास के।
***
प्रेम की टीकाएं
इतनी व्यक्तिगत किस्म की थी कि
उनमें रूचि
भाषाई चमत्कार से आगे न बढ़ पाई
प्रेम का व्यक्तिगत होना
प्रेम का अकेला होना भी था।
***
प्रेम को देखने समझने का
सबका अपना चश्मा था
जहां प्रेम था
वहां नजर नही आता था
और जहां नही था
वहां अक्सर खोजकर बताया जाता था
प्रेम।
***
प्रेम में होने एक अर्थ
एकाधिकार और बन्धन से भी
जुड़ा था
इसलिए प्रेम अक्सर
ऊब की वजह भी बनता था
प्रेम का यह सबसे
मजबूत और कमजोर पक्ष था।
***
प्रेम में शायद का जुड़ना
एक ज्ञात भरम था
क्योंकि
क्या तो प्रेम होता है
या नही होता
शायद प्रेम का स्याद् था
जिसकी साधना कठिन थी
हमेशा।
***
प्रेम का पता तब चलता
जब ये संक्रमित कर चुका होता
दिल और दिमाग
आदि व्याधि था प्रेम
जिसका उपचार
विज्ञान की किसी विधा में
नही था उपलब्ध।
***
प्रेम बार बार हो सकता था
अंतिम प्रेम
पहले प्रेम से
मात्र इतना भिन्न था
वो देख सकता था
अपनी कमजोरियां।
***
प्रेम स्थिर होने पर
सड़ सकता था
गतिशील होने पर
सम्मान खो सकता था
यात्रा प्रेम की नियति थी
और अधूरापन
प्रेम का प्रारब्ध।
***
©डॉ. अजीत

3 comments:

मन said...

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मन said...
This comment has been removed by the author.
मन said...

बातें ... दस हो या पाच ... हर दफा कमाल :)