Wednesday, January 7, 2015

आदत

सबसे पहले कमेंट
गैरहाजिर हुए
फिर लाइक
शेयर के लायक
अवसर तो पहले से ही कम थे
टैग किया हो कभी
ऐसा ध्यान नही आता
फेसबुक के लाल ग्लोब से
इस तरह तुम्हारे खत गायब हुए
जैसे दूर समन्दर का कोई निर्जन टापू
डूब जाता है धीरे-धीरे
इनबॉक्स में तल्खियों के जंगल में
तलाशता हूँ
चंद नरम लहज़े
मरहम के माफ़िक
उनका लेप काम आता है
एकांत की टीस में
कुछ शिकायतों के हरे शैवाल
ठंडक देते है अपनेपन की
उन तस्वीरों नज़्मो और कविताओं
से तुम्हारी पहली लाइक रंग
धीरे धीरे उड़ रहा है
जो कभी बढ़िया होने का
दावा किया करती थी
कमेंट में स्माईली और शब्दों की दूरी
निरन्तर बढ़ती जाती है
उनको पढ़ने के लिए
लगाना पड़ता है चश्मा
कई दफा
तुम्हारे जुड़ने जुड़कर साथ चलने
और अब तटस्थ रहने की
इस त्रियामी यात्रा को
खुली आँख देख नही पाता हूँ
बंद आँखों से बुदबुदाता हूँ
फेस और बुक दोनों पर
तुम्हारा कोई जवाब लिखा नही मिलता
उदासी और खीझ के पलों में
सोचता हूँ अकाउंट डिएक्टिवेट करने के बारें में
तभी फेसबुक
दिखा देती है अपनी यांत्रिक चालाकी
मिस्स करने वालों में
तुम्हारा नाम सबसे पहले देखकर
मिलती है झूठी खुशी
और लौट आता हूँ
इस आभासी दुनिया के
सुलझे-उलझे यथार्थ में
जब दस्तक लॉग इन और लॉग आउट के
मध्य से खिसक कर
बैठ जाती है ऊकडू
दिल और दिमाग के बीच
तब लगता है
फेसबुक हो सकती है जानलेवा
किसी प्रेमिका की तरह
मगर मात्र लगने से
नही बदलती आदत
जो शायद तुम्हारी वजह से
अब लत के जैसी बनती जा रही है
धीरे-धीरे
तुम्हें खबर हो या ना हो।

©डॉ. अजीत



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