Tuesday, January 22, 2008

प्रश्नचिन्ह

"सम्बन्ध होने का अर्थ
यदि भ्रम प्रतीत हो
तो
तब अपने आत्मीय भाव
प्रमाणित करना
असंभव सा प्रतीत होता है
क्योंकि
यह ठीक वैसी बात है
जैसे निर्वात मे ध्वनी प्रसार खोजना
निर्वात यद्यपि अमूर्त वस्तु है
और संबंधो का आधार भावनाएं
परन्तु
भावना यदि
वेदना की संवाहक बन कर
नए अर्थ तलाशे
तो
यह एक पक्षीय
न्याय का गणित प्रतीत होता है
जिसके
अपराधी एवं न्याय दंड निर्धारक
हम स्वयं होते हैं
मुझे ज्ञात है
कि
तुम्हे मेरी उपदेशात्मक शेली
बिल्कुल पसंद नही है
परन्तु
यथार्थ और
समय प्रयोग का समन्वय
किसी नए उपजते अर्थ
का आधार नही हो सकता
शायद यही
वह महीन अंतर है
जिससे मैं
तुम्हारे हृदय से दूर
और मस्तिष्क के करीब हूँ
और मेरा यह पागलपन
कि
ज्ञात होकर भी
मैं मौन पथ अनुचर
कि भूमिका मे हूँ
क्या तुम्हे कभी
कोई संवेदना नही
झकझोरती
मेरी भूमिका के सन्दर्भ मे ?
यह तुम्हारे मानस
और मेरी सहृदयता
दोनों पर
एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है..!"
डॉ.अजीत

Thursday, January 17, 2008

पलायन

"तुम कितनी
अकेली हो गयी हो
मेरे पलायन के बाद
अब नही दिखती
वह तुम्हारी उन्मुक्त मुस्कान
पलकें भी बोझिल सी
प्रतीत होती है
शायद
कई रातों से
सोयी नही हो तुम
जीवन की
असीमित अवधारणाओं मे
शायद
यह अब तक का
सबसे बड़ा दुखद
आश्चर्य है
कि
तुम्हारा स्नेह
अभी भी पूर्ववत
बना हुआ है मुझ पर
ऐसा नही है
कि
मेरा पलायन
तुम्हे अप्रिय न लगा हो
अथवा
तुमने पहले ही
ऐसी अपेक्षा का मानस बना
लिया हो
मेरा पलायन
अचानक नही हुआ
यह तो थी
एक प्रक्रिया
जिसने बदल दिया
सब कुछ
और बदल दी
ऐसे मान्यताएं भी
जो स्थिर प्यार
कि प्रतीक थी
मैं जा रहा हूँ ,
बहुत दूर
तुम्हरी सरल
स्नेहिल दुनिया से
इतनी दूर कि
शायद ही कभी
मिलना हो
और तुम सजल नेत्रों से
मेरी विदाई को
सहज बनाने का
प्रयत्न कर रही हो
बोझिल आँखे
कितना झूठ बोलती है
कभी- कभी
तुम मौलिक नही
अभी निर्मित हँसी
हंस रही हो
पीड़ा को धकेल दिया है
नेपथ्य मे
ऐसा तुम
इसलिए कर रही हो
कि
मेरी खुशी तुम्हे
अधिक प्रिय है
यह तुम सोच रही हो
कभी-कभी
कितना ग़लत सोच
लेते है हम
अनुभव और दर्द
के दर्शन के समक्ष
सारे प्रयास
अभिनय प्रतीत होते है
मेरा पलायन
तुम्हारे अधिकार का अपवंचन है
और मेरी स्थिति
पुरूष और पुरुषार्थ पर
एक प्रश्नचिन्ह
एक ऐसा प्रश्नचिन्ह
जिसको
शायद ही कभी
किसी तर्क के द्वारा
समाप्त किया जा सके ...."

डॉ.अजीत

Thursday, January 10, 2008

यथार्थ

"शायद
तुम्हे याद हो
आज भी वह रात
जब हम हाथो मे
लिए बैठे थे हाथ
कर रहे थे
एक दुसरे की भावनाओ को
आत्मसात
मिलकर यथार्थ पर
भावुकता का लेप
लगा रहे थे
अनायास ही सारे
स्वप्न पूर्ण होते
नज़र आ रहे थे
साथ ही अलग-अलग
किस्म की प्रेम की
परिभाषाऐ भी बना रहे थे
परन्तु
कभी-कभी
अकारण ही
यथार्थ की
एक हलकी सी चोट
सब कुछ तोड़ देती है
तब
प्रतीत होता है
कि
हम कितने कल्पनाजीवी है
लगती है सारी बातें
खोखली
एकदम बकवास
सजल नेत्रों मे
तैरते हुए स्वप्न
उत्पन्न करते है
एक विचित्र सा
प्रश्नबोधि अहसास
जो प्रश्न पूछते है
हमसे करते हुए
एक अपराधी सा व्यवहार
कि
किस अधिकार से
यथार्थ से छुपा कर नज़र
किसी को लेकर
निकल पड़े थे प्रेम डगर
जब इतनी क्षमता नही
कि
किसी को कर सको
सस्नेह अंगीकार
तब क्यों ?
अंतहीन वेदना बांटने का
करते हो व्यापार
तब हम
निरुत्तर सहमे से
खामोश खड़े रह जाते है
और
अंत मे
स्वयं को ही अपराधी पाते है
सही ही तो है
कि
जो छोड़ कर अपना
सब कुछ
हमारे साथ जीने -मरने की
खाती है कसमे
विवशत:
उन्हें
हम क्या दे पाते हैं
बस ....
भीगी पलके....."

डॉ.अजीत

शिल्प

"हम शिल्पी बन
तराशते रहे
एक दूसरे को
अपनी आवश्यकतानुसार
भूलकर यह
कि
बाह्य आवरण तो
परिवर्तित हो सकता है
अभ्यंतर नही
क्योंकि,
यह मौलिक होता है
हमारे प्रयास
उत्तरोतर बढ़ते रहे
अपने हिसाब से
एक-दुसरे को ढालते रहे
मूर्तिवत
मगर उस क्षति का
कभी आभास नही हुआ
जो असंख्य टुकडों में
टूटकर बिखरती रही
परस्पर जिंदगियां
इसका निर्धारण तो
संभवत
निर्णायक भी न कर पाए
कि
हमारी शिल्पधर्मिता ने
सर्जन किया
अथवा
विखंडन
एक बात जो
उभर कर सामने आई
वह थी
जिसे समझ कर
अपनी कला
हम प्रयास कर रहे थे
ढालने का एक दुसरे को
वह कला नही
एक विकार था
आवश्यकता नही
प्रयोग था
एक ऐसा प्रयोग
जिसके परिणाम
हमे आजीवन बुत बनकर
देखने पड़ेंगे
होकर
संवेदनशून्य
भावशून्य....."

डॉ.अजीत

Sunday, January 6, 2008

परिणाम

" तुमसे परिचय
कोई नियोजित
प्रयास का हिस्सा नही था
तुम्हारे स्वाभाविक प्रश्न,
नजरिया
एवं वैचारिक परिपक्वता
स्वत: ही हिस्सा थी
एक विशेषता थी....
अनुभव रोचक रहा
इस अल्पयात्रा का
परन्तु
तुम्हारी परिभाषा को
संबोधन में बांधना
मेरे शब्द सामर्थ्य
से परे की बात है
यह सत्य है
कि
शायद
प्रथम और अन्तिम बार
मैं प्रभावित रहा
तुमसे ही नही
तुम्हारे जीवन के प्रति
प्रत्येक दार्शनिक नज़रिये से
एक बात थी
जो तुम्हे भिन्न करती थी
मेरे अन्य निकटस्थ लोगो से
तुम्हारा अपेक्षाबोध
स्नेह्बोध की अपेक्षा
आंशिक था
समर्पण की पंक्ति की
तुम हमेशा अग्रिम प्रहरी रही
और पहली बार देखा
किसी को
दीर्घता से लघुता की
ओर बढ़ते हुए
तुम शून्य की तरफ बढ़ रही थी
वह भी बगैर
किसी जिजीविषा के साथ
कभी-कभी सोचता हूँ
कि
तुम्हारा विशेष व्यक्तित्व
अनुभव का सारांश है
और संवेदनशीलता
एक वरदान
भयातुर होता हूँ
जब तुम बातें
करती हो उलझी -उलझी सी ....
शायद
उनमे छिपा अर्थ
समझने का सामाजिक साहस
मुझमे नही
संबोधन में अपनत्व
संबंधो में सम्मान
और भविष्य में जो सम्भव न हो सके
उसके करीब से
बड़ी सफाई से कैसे
गुजरा जाता है
ये तीन बातें तुम से सीख पाया हूँ
मुझसे क्या सीखा है
तुमने
ये तो तुम ही बेहतर
बता सकती हो
हाँ !
कभी-कभी अकेले में
ख़ुद अपने आप से
बातें करते वक्त
अधीर होकर , सजल नेत्रों से
कुछ अजीब सा बडबडाना
संभवत मुझ से परिचय का परिणाम है ...."

डॉ. अजीत

Saturday, January 5, 2008

प्रतिबिम्ब

" तुम नेत्र सजल
करती रही
हर बार मेरी विदाई पर
मैं चाह कर भी
सुखा गीलापन ला न सका
अव्यक्त भाव कभी समझा
न सका
शायद
मैं तुमसा दृढ नही था
इसलिए
डर से अपनी पीड़ा
बतला न सका
मुझे भय था कंही
मेरी अंतर्व्यथा
तुम्हे अपराधबोध से
न भर दे
जो विश्वास
मुझे पर प्रकट किया था तुमने
उसमे शंका न खड़ी कर दे
इस तरह
मैं जीता रहा एक
द्वंदात्मक जीवन
और
तुम तो पीड़ा की
मनोविज्ञानी बन बिखेरती रही
उत्साह पल-प्रतिपल
और आज जब,
तुम विदा हो रही हो
मेरे विकल जीवन से
शायद हमेशा के लिए
मैं इतना भयभीत हूँ
कि
नेत्रों में गर्म पानी भर तो आया
परन्तु
साहस मुझसे दूर
जा खड़ा हुआ है
और
आज फ़िर पूर्व कि भांति
भाव अव्यक्त हो गए हैं
और साथ ही
तुम्हारी प्ररेणा अप्रासंगिक ...
एवं
मेरा जीवन
मुझे से इतना ही दूर ...
जितनी कि तुम मुझसे
दूर खड़ी हो...."

डॉ.अजीत

नियति

"नियति के
विरुद्ध चलना
साहस का विषय था
ठीक तुम्हारी
परिस्थतिजन्य समस्याओ
की तरह
मैंने चाहा
परन्तु
समय ने नही..
इसलिए
शायद आज समानान्तर
चलते हुए
हम दो नदी के किनारों
की तरह सागर के
मुहाने पर पहुँच गए है..
तुम
समाहित होना चाहती हो
और मैं
संबोधित
तुम्हारी पीड़ा के प्रहरी के
नाम से
जड़ता और गति में
विशेष अर्थगत
अंतर प्रतीत नही होता है
हमारी नियति देख कर..
तुम गतिशील आज भी
मैं जड़ता में गतिशीलता
तलाश रहा हूँ
भाव भी संक्रमित से हो गए है
शायद,
परिभाषा बनाते-बनाते
हम अपना
स्वयं का अर्थ खो चुके है ..
तुम्हारी आशा
प्रहसन का विषय है
और मेरी
जिद
शायद मानस की
अपरिपक्वता का...."

डॉ. अजीत

Thursday, January 3, 2008

अपराधबोध

"नेह से नीर
तक का सफर
रोचक मगर
व्यथित डगर
अपेक्षा स्नेह की
मौन भाषा प्रेम की
समझे थे एक साथ हम
मैं संकोच में रहा
और तुम भी
तलाशती रही
अपने मूकप्रश्न
वो भी मेरी मौन आकृति में
जड़ता और गति की समझ समाप्त हो गई
तब जब साथ चले
एक नियत
समय पर
गति भी थी नियत
परन्तु,
मंजिले एकदम भिन्न
आभास भी न हुआ
कि
पदचाप की आहट भी
समानान्तर होती जा रही थी
और आज जब हम मिले है
इस अनपेक्षित अवसर पर
अब मुझे आभास हुआ है
कि
नेह से नीर तक के सफर में
तुम एक
धरातल पर
खड़ी निहारती रही हो
अबोधता के साथ
और मैं...
मैं क्या कहूँ
मुझे तो अहसास ही नही है
कि
तुमको इतनी दूरी
पर कैसे देखा पा रहा हूँ
शायद
तुम्हारा अपेक्षाबोध ही
मेरा अपराधबोध हैं..."

डॉ.अजीत

परिपक्वता

"अनायास ,
तुमसे परिचय हुआ
परिचय से
सम्बन्ध का अहसास हुआ,
और यही अहसास,
आज मेरे विकल मन में ,
कई भाव लिए खड़ा है
बड़ी विचित्र मुद्रा में
तुम्हारी वैचारिक परिपक्वता
मेरे लिए एक उपलब्धि है
परन्तु,
मैं इतना परिपक्व नही हूँ
कि
मित्रता के धरातल पर
खड़ा रह सकूं ठीक
तुम्हारी तरह
तुमने मुझे दिया है
संबल
एक आधार
और अधिकार
जिसके बल पर
कभी-कभी
अकारण ही डाँटता हूँ तुम्हे
व्यंग कि भाषा में
बातें करता हूँ..
और तुम सखा भाव से
मौन मुझे स्वीकार करती हो
कभी प्रतिवाद नही करती
प्रदर्शित करती हो
जैसे मैं मर्मज्ञ हूँ
और तुम अल्पज्ञ,
तुम्हारा
यह व्यवहार
मेरी समझ से परे है
एक बात तो तय है
कि
तुम असाधारण हो
और में साधारण से भी परे मेरे
प्रति तुम्हारे ये भाव
मुझे निर्बल बनाते हैं कई बार
और विशेषकर तब
जब तुम मेरी गलतियों पर
उन्मुक्त होकर मुस्कुराती हो......"

डॉ.अजीत

Wednesday, January 2, 2008

उन्मुक्तता

" तुम और तुम्हारी
उन्मुक्त हँसी,
कई बार मुझे प्रिय-अप्रिय
लगती है
क्योंकि
कभी-कभी
महसूस होता है
तुम्हारी उन्मुक्तता
एक दिन तुम्हारे
सरल व्यक्तित्व का
एक दोष न बन जाए
उन्मुक्तता से तुम्हारा
पक्ष रखने का तरीका
मुझे वाकई पसंद है
लेकिन
जब तुम भूल कर
अपनी परिपक्वता
जिद करती हो
एक बच्चे की तरह
तब
मुझे क्षणिक आवेश भी
आता है
लेकिन मेरा यह आक्रोश
उस समय
व्यर्थ महसूस होता है
जब तुम ,
मेरी गलतियों पर
परदा डाल रही होती हो
तर्क नही कुतर्को के साथ
हाँ ! वो बात अलग है
उस समय
तुम्हारी उन्मुक्तता
आवरण ओढ़ लेती है
अपनत्व का..."

डॉ. अजीत

अनभिज्ञ....

"मैं तलाशता रहा
तुम्हारे शब्दकोष में
अपने दो शब्द और तुम
मुझे न जाने क्या-क्या
उपहार में देती रही
सिवाय पीड़ा के
ऐसा भी नही है कि
मैं बाँट देता तुम्हरी
अनकही पीड़ा
मैं तो स्वयं बटा हुआ था
अपनत्व की आदत
कभी-कभी
परेशान करती है मुझे
इसलिए
तुम पर बडबड़ाता हूँ
अकारण ही कई बार
एक तुम हो कि
हमेशा गंभीरता से
सुनती हो..
सुनाती कुछ भी नही
मैं तलाशता रहा हूँ
अपने वे शब्द
सुन नही सकता ..
लेकिन,
कई बार गीली पलकों के
पीछे से झांकता
एक सम्पूर्ण व्यथा का
संसार जरुर
मेरी विवशता
तुम्हारी परिपक्वता
और...हमारी नियति
का मूक वर्त्तचित्र बनाता है
जो शायद
हम तथाकथित
बुधिजिवियो की समझ से परे हैं...."

डॉ.अजीत