"तुम कितनी
अकेली हो गयी हो
मेरे पलायन के बाद
अब नही दिखती
वह तुम्हारी उन्मुक्त मुस्कान
पलकें भी बोझिल सी
प्रतीत होती है
शायद
कई रातों से
सोयी नही हो तुम
जीवन की
असीमित अवधारणाओं मे
शायद
यह अब तक का
सबसे बड़ा दुखद
आश्चर्य है
कि
तुम्हारा स्नेह
अभी भी पूर्ववत
बना हुआ है मुझ पर
ऐसा नही है
कि
मेरा पलायन
तुम्हे अप्रिय न लगा हो
अथवा
तुमने पहले ही
ऐसी अपेक्षा का मानस बना
लिया हो
मेरा पलायन
अचानक नही हुआ
यह तो थी
एक प्रक्रिया
जिसने बदल दिया
सब कुछ
और बदल दी
ऐसे मान्यताएं भी
जो स्थिर प्यार
कि प्रतीक थी
मैं जा रहा हूँ ,
बहुत दूर
तुम्हरी सरल
स्नेहिल दुनिया से
इतनी दूर कि
शायद ही कभी
मिलना हो
और तुम सजल नेत्रों से
मेरी विदाई को
सहज बनाने का
प्रयत्न कर रही हो
बोझिल आँखे
कितना झूठ बोलती है
कभी- कभी
तुम मौलिक नही
अभी निर्मित हँसी
हंस रही हो
पीड़ा को धकेल दिया है
नेपथ्य मे
ऐसा तुम
इसलिए कर रही हो
कि
मेरी खुशी तुम्हे
अधिक प्रिय है
यह तुम सोच रही हो
कभी-कभी
कितना ग़लत सोच
लेते है हम
अनुभव और दर्द
के दर्शन के समक्ष
सारे प्रयास
अभिनय प्रतीत होते है
मेरा पलायन
तुम्हारे अधिकार का अपवंचन है
और मेरी स्थिति
पुरूष और पुरुषार्थ पर
एक प्रश्नचिन्ह
एक ऐसा प्रश्नचिन्ह
जिसको
शायद ही कभी
किसी तर्क के द्वारा
समाप्त किया जा सके ...."
डॉ.अजीत
3 comments:
अजीत जी आपकी रचना 'पलायन' पढ़ी बहुत सुन्दर है
प्रयास जारी रखियेगा.......
" very heart touching poetry,with soft words"
अजीत जी, आपकी कई रचनाएं पढ़ीं. कालजयी हैं.
मुकुंद
09914401230
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