Sunday, November 29, 2015

सजा

अचानक से छूट गए हाथ
स्पर्शों को याद करते है मुद्दत तक
कोई वजह नही तलाश पातें
अपनत्व की नमी में आई कमी की
सम्बन्धों की जलवायु को दोष भी नही दे पातें
विदा से अलविदा की यात्रा को देखते हुए
वो शुष्क हो जाते है
उनकी गति का दोलन बदल जाता है
वो ओढ़ लेते है एक अजनबीपन
अनायास जब दिल पर रखें जातें है ऐसे हाथ
वो देते है हमारे खिलाफ गवाही
बतातें है हमारी एकतरफा ज्यादती
जिसकी बिनाह पर दिल सुनाता है सजा
यादों की उम्रकैद में
रहो ताउम्र आधे-अधूरे।

©डॉ. अजित

Monday, November 23, 2015

बगावत

कुछ अलहदा से ख़्वाब थे वो
रोशनी के छूटे हुए कतरों के चश्मदीद गवाह
उनके माथे स्याह ठंडे थे
उनके लबो पर आह की नम खुश्की थी
दरख्तों के साये में उन्हें पनाह नही मिली थी
वो धूप की गोद से जबरदस्ती उतार दिए गए थे
दरिया के पास उनकी शिकायतों के मुकदमें थे
मगर वो खामोश बह रहा था
बिना किसी सुनवाई के
कुछ परिंदे मुखबिर बन गए थे अचानक
सपनों की तलाशी ली जा रही थी
ख़्वाबों की सरहदों पर
लम्हों में पिरोयी धड़कने जब बगावत कर बैठी
तब पता चला ये सुबह से पहली रात है
जहां अंधेरा चरागों को सुस्ताने की
नसीहत देने आया है
दुआ में हाथ उठे मगर लब खामोश रहें
सिलसिलों ने करवट ली तो
तुम्हें बहुत दूर पाया
इतनी दूर जहां से
खुली आँख से तुम्हें देखा नही जा सकता था
आँख मूँद कर तुम्हें देखनें की कोशिश की तो
इन्हीं ख़्वाबों की भूलभुलैय्या में खो गया
तुम्हें देखनें का मिराज़
अब तक का सबसे हसीं सदमा था।

© डॉ. अजित

Sunday, November 22, 2015

खत

लिखता हूँ रोज़ चंद अफ़साने
हकीकत की शक्ल में

लड़ता हूँ रोज़ एक लड़ाई
जज्बात और अक्ल में

कुछ अहसासों को रखता हूँ गिरवी
उम्मीद को लेता हूँ उधार
बांट देता हूँ सपनों को पुरज़ा-पुरज़ा

आदतों में बस गई है एक नमी
तुम्हारे ख्याल की
कोई रोशनी नही पहुँचती वहां तक
फिर भी दिल के कुछ कोने रोशन है
तुम्हारी यादों से

सिमट गई है मेरी दुनिया
तुझ से तुझ तक
हैरतजदाँ हूँ थोड़ा और थोड़ा बेचैन भी

तुम हो भी
और हो भी नही।

© डॉ. अजित

Saturday, November 21, 2015

मजबूरी

ख्यालों से निकलना गैरजरूरी समझता है
इश्क सच्चा हो तो मजबूरी भी समझता है

तन्हाई में रोकर भी क्या हुआ तुम्हें हासिल
वो आज भी तुम्हें पत्थरदिल समझता है

दिलों में फ़कत कुछ लम्हों का फांसला था
कमबख्त वो इसे भी मेरी दूरी समझता है

चलों बिछड़ जाए उसी मोड़ से हम दोनों
रास्ता भी मुसाफिर की मजबूरी समझता है
©डॉ.अजित

Thursday, November 19, 2015

आलाप

चंद कहा-सुनी
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बेवजह एक दिन भड़कते हुए
उसनें कहा
तुम्हारे भाव बढ़ गए है आजकल
ठीक से जवाब भी नही देते
बात क्या है?
मैंने कहा
सच कह रही हो
आजकल इतने भाव बढ़ा रहा हूँ खुदके कि
तुम्हारे सिवाय कोई और खरीद न सके मुझे
फिर ठीक है,ये कहकर वो हंस पड़ी।
***
मैं उसदिन परेशान था किसी बात पर
और वो छेड़े जा रही थी मुझे
मेरी कथित प्रेमिकाओं के नाम पर
मैंने कहां हां ! मेरी कई प्रेमिकाएँ है
अब खुश हो
इस बात पर वो खुश नही थी पहली दफा
वो चाहती थी
मैं करूँ उसके सारे आरोप खारिज।
****
चाय पीते समय
मेरी गति अधिक थी
इस बात पर उसको रहता था
हमेशा ऐतराज़
झल्ला कर कहती वो
किस जल्दी में रहती हो
कौन सी ट्रेन छूट रही है तुम्हारी
मैं कहता चाय पीना और तुमसें बातें करना
एक साथ नही हो पाता मुझसे
वो हंस पड़ती और कहती
हो जाने दो फिर चाय ठंडी
कोई बात नही दूसरी मंगा लेंगे।
***
अचानक एकदिन
उसने बातचीत बन्द कर दी
मैंने वजह नही जाननी चाही
मुझे गैर जरूरी लगा ऐसा पूछना
उसका एसएमएस मिला एकदिन
इसलिए नही चाहती थी
किसी बुद्धिजीवी से प्रेम करना
मैं शर्मिंदा था
अपने कथित ज्ञान पर।

©डॉ.अजित




Wednesday, November 18, 2015

खेद

कंघी में उलझे पड़े थे कुछ बाल
एकदम से उपेक्षित
जिन्हें खींच कर फेंका जाना तय था
घर के सबसे छोटे दर्पण ने
छोड़ दी थी जगह
वो हिलता डुलता दिखाता था चेहरा
अलंकारिक श्रृंगार के सब साधन
अपने अंतिम पड़ाव पर थे
नही बची थी उनके रखरखाव की कोई
स्त्रियोंचित्त इच्छा
जीवन में कोई ज्ञात दुःख नही था उसके
मगर फिर भी वो
बेपरवाही से खर्च कर रही थी
अपनी एक-एक प्रिय चीज़
वो काजल से खिंचती थी कर्क रेख
ताकि भेद कर सके लोक और खुद के समय में
उसकी त्वचा के स्पर्श ऊब ढ़ो रहे थे
वो भूल जाती थी अक्सर
हेयर पिन, सुई धागा बटन और बिजली का बिल
उसकी हड़बड़ाहट साफ़ झलकती थी
बर्तन मांझते समय
उसके पास दूध के उबाल जैसा विस्मय था
और नमक के जैसा प्रेम
वो प्रार्थना के पलों में दिखती थी
सबसे निर्मल
मौन और चुप के मध्य उसने विकसित कर ली थी
अपनी एक विचित्र बोली
जिसका कोई शोर नही था
ना कोई उलाहना
वो थोड़ी व्यस्त थी
ज्यादा अस्त-व्यस्त
उसके समन्वय पर मुग्ध हुआ जा सकता था
जीवन के अमूर्त कौशल पर
वो बधाई की पात्र थी
उसकी मुस्कान में एक हलकी उदासी की दरार थी
जिसमें बहता था
समन्दर नदी की ओर
उसका हंसना
समय पर एक अहसान था
जिसके बोझ में वो घट रहा था रोज़ पल-पल
उसके पास न कोई सवाल था
न कोई जवाब
उसके पास कुछ अनुभव थे
जिनकी समीक्षा सम्भव न थी
उसे कहीं नही पहुंचना था
मगर वो रोज़ चल रही थी
एक नियत गति से
उसकी एकमात्र जवाबदेही खुद थी
इसलिए
उसकी वजह से कोई तकलीफ में नही था
वो खुद कहां थी
इसकी पड़ताल के लिए
अहम के गुरुत्वाकर्षण को तोड़
उपग्रह की भांति
पृथ्वी की कक्षा का
कम से कम एक चक्कर लगाना जरूरी था
वो अज्ञात थी
किसी मंत्र की तरह
वो ज्ञात थी किसी की शहर की तरह
ये सब बातें तब पता चली
जब वो उपस्थित थी
अपनी अनुपस्थिति के साथ
इस बात का किसी को खेद नही था
बस यह खेद की बात है।

©डॉ. अजित

Tuesday, November 17, 2015

प्रेम और दुःख

अज्ञेय कहते है दुःख व्यक्ति को मांझता है
केवल दुःख ही नही
प्रेम भी व्यक्ति को मांझता है
प्रेम करता हुआ व्यक्ति
देख सकता है चींटी के देह की पीड़ा
पहाड़ का बोझ
और तरल नदी का विवशता
प्रेम का दुःख
व्यक्ति को दोहरा मांझता है
वो देख सकता
अपने अंदर बैठी दो छाया एक साथ
प्रेम का सुख और प्रेम का दुःख
बाहर से भले ही अलग दिखे
अंदर से होते लगभग एक समान
दुःख की आंच में जब पिघल जाता है प्रेम
तब मन का एक हिस्सा जम जाता है
ग्लेशियर की तरह
शीत ताप के मध्य
स्मृतियों की जलवायु का सहारा ले
व्यक्ति तय करता है
अपने ग्रह पर अपनी स्थिति का ठीक ठीक आंकलन
किसी खगोलविज्ञानी की तरह
प्रेम में पड़ा व्यक्ति  एक साथ हो सकता है
विज्ञानवादी और भाग्यवादी
दुःख और सुख से इतर
प्रेम व्यक्ति का भर देता है आंतरिक निर्वात
बदल जाते है उसके गुरुत्वाकर्षण के केंद्र
प्रेम व्यक्ति को बदलता नही
बस रूपांतरित कर देता है जगह जगह से
इसलिए प्रेम का विस्मय हमेशा
व्यक्ति को बताता है
जीवन की अनिश्चिता के बारें में
दुःख की चमक भले ही स्थाई हो
मगर उस चमक को देखनें के लिए
प्रेम का दर्पण ही काम आता है
भले ही उस पर अवसाद की धूल चढ़ी हो
प्रेम किया हुआ व्यक्ति
हो पाता है एक सीमा तक ही क्रूर
खुद को समझनें और समझानें में
जितना मददगार प्रेम है
उतना कोई दूसरा मनोवैज्ञानिक परामर्शन
नही हो सकता है
प्रेम में जीता हुआ व्यक्ति हमेशा करता है
प्रेम में हारे हुए व्यक्ति का सम्मान
मनुष्य में बची रहे मनुष्यता
इसके लिए दुःख के अलावा
प्रेम एक अनिवार्य चीज है
जिसे जीना और बचाना दोनों जरूरी है।

© डॉ. अजित

प्रेम

अचानक उसनें कहा
प्रेम बड़ा है या जीवन ये बताओं
मैंने कहा
जीवन
इस पर नाराज़ हो वो बोली
फिर प्रेम क्या है तुम्हारे लिए
मैंने कहा जीवन
फिर बस वो मुस्कुरा कर रह गई।
***
चलतें चलतें उसने कहा एकदिन
तुम्हें सबसे प्यारा कौन है दुनिया में
मैंने कहा मैं खुद
बड़े आत्ममुग्ध हो
ये ठीक बात नही वो बोली
खुद से प्यार करना
तुम्हें प्यार करने की जरूरी योग्यता है
मैंने कहा
फिर वो हंस पड़ी बस
प्यार का ये सबसे संक्षिप्त व्याख्यान था
हमारे बीच।
***
फिर एक दिन उसनें
फोन पर पूछा
कहाँ रहते हो आजकल
कुछ खबर नही है
मैंने कहा इसी फोन की फोनबुक में
जिससे बात कर रही हो तुम
वो खिलखिलाकर हंस पड़ी इस बात पर
मिलतें भी रहा करो कभी कभी
क्योंकि
तुम्हारा नम्बर अक्सर
फोन से डिलीट करती रहती हूँ मैं।
***
मैंने कहा एकदिन
सवाल बहुत करती हो तुम
इतनी शंकाओं के मध्य
कितना बेचारा लगता है हमारा रिश्ता
उसनें कहा
समझा करो ये शंकाए नही है
बल्कि ये सब जवाब है
जो मुझे पता है
बस तुम्हारे मुंह से सुनना
अच्छा लगता है ये सब।

©डॉ.अजित

Friday, November 6, 2015

साधना

पराजित देवता के आशीर्वाद से
उसनें प्रेम किया
त्याज्य ऋषियों ने उसे दीक्षित किया
मंत्र को उसनें गीत की तरह पढ़ा
उसके यज्ञ की समिधा
जंगल की सबसे उपेक्षित वनस्पतियां थी
उसकी आहूतियां बिलकुल शास्त्रीय नही थी
उसके आह्वहान में थोड़ा रोष करुणा के साथ था
उसके विसर्जन के सूत्र अप्रकाशित थे
इतनी विषमताओं के बावजूद
वो आश्वस्त था
बहुत सी बातों को लेकर
यह बात अचरज भरी थी
उन लोगो के लिए
जो प्रेम और जीवन को
आदर्श स्थिति में जीने के आदी थे।

© डॉ.अजित


Thursday, November 5, 2015

निर्वात

शब्दों की आवृत्तियां
समय के सबसे छोटे हिस्से में
बदल रही थी
शब्दों को इतना
मजबूर कभी नही देखा था
इधर मैं कुछ कहता
उधर उसका अर्थ रूपांतरित हो जाता
तटस्थता का विस्मय
अर्थ का निर्वात नही भर पाता था
ध्वनियों में इतनी यात्राएं समानांतर जीवित थी कि
अक्सर
यह तय करना मुश्किल था
कौन किसके साथ था वहां।
© डॉ.अजित