Sunday, November 22, 2015

खत

लिखता हूँ रोज़ चंद अफ़साने
हकीकत की शक्ल में

लड़ता हूँ रोज़ एक लड़ाई
जज्बात और अक्ल में

कुछ अहसासों को रखता हूँ गिरवी
उम्मीद को लेता हूँ उधार
बांट देता हूँ सपनों को पुरज़ा-पुरज़ा

आदतों में बस गई है एक नमी
तुम्हारे ख्याल की
कोई रोशनी नही पहुँचती वहां तक
फिर भी दिल के कुछ कोने रोशन है
तुम्हारी यादों से

सिमट गई है मेरी दुनिया
तुझ से तुझ तक
हैरतजदाँ हूँ थोड़ा और थोड़ा बेचैन भी

तुम हो भी
और हो भी नही।

© डॉ. अजित

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