कंघी में उलझे पड़े थे कुछ बाल
एकदम से उपेक्षित
जिन्हें खींच कर फेंका जाना तय था
घर के सबसे छोटे दर्पण ने
छोड़ दी थी जगह
वो हिलता डुलता दिखाता था चेहरा
अलंकारिक श्रृंगार के सब साधन
अपने अंतिम पड़ाव पर थे
नही बची थी उनके रखरखाव की कोई
स्त्रियोंचित्त इच्छा
जीवन में कोई ज्ञात दुःख नही था उसके
मगर फिर भी वो
बेपरवाही से खर्च कर रही थी
अपनी एक-एक प्रिय चीज़
वो काजल से खिंचती थी कर्क रेख
ताकि भेद कर सके लोक और खुद के समय में
उसकी त्वचा के स्पर्श ऊब ढ़ो रहे थे
वो भूल जाती थी अक्सर
हेयर पिन, सुई धागा बटन और बिजली का बिल
उसकी हड़बड़ाहट साफ़ झलकती थी
बर्तन मांझते समय
उसके पास दूध के उबाल जैसा विस्मय था
और नमक के जैसा प्रेम
वो प्रार्थना के पलों में दिखती थी
सबसे निर्मल
मौन और चुप के मध्य उसने विकसित कर ली थी
अपनी एक विचित्र बोली
जिसका कोई शोर नही था
ना कोई उलाहना
वो थोड़ी व्यस्त थी
ज्यादा अस्त-व्यस्त
उसके समन्वय पर मुग्ध हुआ जा सकता था
जीवन के अमूर्त कौशल पर
वो बधाई की पात्र थी
उसकी मुस्कान में एक हलकी उदासी की दरार थी
जिसमें बहता था
समन्दर नदी की ओर
उसका हंसना
समय पर एक अहसान था
जिसके बोझ में वो घट रहा था रोज़ पल-पल
उसके पास न कोई सवाल था
न कोई जवाब
उसके पास कुछ अनुभव थे
जिनकी समीक्षा सम्भव न थी
उसे कहीं नही पहुंचना था
मगर वो रोज़ चल रही थी
एक नियत गति से
उसकी एकमात्र जवाबदेही खुद थी
इसलिए
उसकी वजह से कोई तकलीफ में नही था
वो खुद कहां थी
इसकी पड़ताल के लिए
अहम के गुरुत्वाकर्षण को तोड़
उपग्रह की भांति
पृथ्वी की कक्षा का
कम से कम एक चक्कर लगाना जरूरी था
वो अज्ञात थी
किसी मंत्र की तरह
वो ज्ञात थी किसी की शहर की तरह
ये सब बातें तब पता चली
जब वो उपस्थित थी
अपनी अनुपस्थिति के साथ
इस बात का किसी को खेद नही था
बस यह खेद की बात है।
©डॉ. अजित
एकदम से उपेक्षित
जिन्हें खींच कर फेंका जाना तय था
घर के सबसे छोटे दर्पण ने
छोड़ दी थी जगह
वो हिलता डुलता दिखाता था चेहरा
अलंकारिक श्रृंगार के सब साधन
अपने अंतिम पड़ाव पर थे
नही बची थी उनके रखरखाव की कोई
स्त्रियोंचित्त इच्छा
जीवन में कोई ज्ञात दुःख नही था उसके
मगर फिर भी वो
बेपरवाही से खर्च कर रही थी
अपनी एक-एक प्रिय चीज़
वो काजल से खिंचती थी कर्क रेख
ताकि भेद कर सके लोक और खुद के समय में
उसकी त्वचा के स्पर्श ऊब ढ़ो रहे थे
वो भूल जाती थी अक्सर
हेयर पिन, सुई धागा बटन और बिजली का बिल
उसकी हड़बड़ाहट साफ़ झलकती थी
बर्तन मांझते समय
उसके पास दूध के उबाल जैसा विस्मय था
और नमक के जैसा प्रेम
वो प्रार्थना के पलों में दिखती थी
सबसे निर्मल
मौन और चुप के मध्य उसने विकसित कर ली थी
अपनी एक विचित्र बोली
जिसका कोई शोर नही था
ना कोई उलाहना
वो थोड़ी व्यस्त थी
ज्यादा अस्त-व्यस्त
उसके समन्वय पर मुग्ध हुआ जा सकता था
जीवन के अमूर्त कौशल पर
वो बधाई की पात्र थी
उसकी मुस्कान में एक हलकी उदासी की दरार थी
जिसमें बहता था
समन्दर नदी की ओर
उसका हंसना
समय पर एक अहसान था
जिसके बोझ में वो घट रहा था रोज़ पल-पल
उसके पास न कोई सवाल था
न कोई जवाब
उसके पास कुछ अनुभव थे
जिनकी समीक्षा सम्भव न थी
उसे कहीं नही पहुंचना था
मगर वो रोज़ चल रही थी
एक नियत गति से
उसकी एकमात्र जवाबदेही खुद थी
इसलिए
उसकी वजह से कोई तकलीफ में नही था
वो खुद कहां थी
इसकी पड़ताल के लिए
अहम के गुरुत्वाकर्षण को तोड़
उपग्रह की भांति
पृथ्वी की कक्षा का
कम से कम एक चक्कर लगाना जरूरी था
वो अज्ञात थी
किसी मंत्र की तरह
वो ज्ञात थी किसी की शहर की तरह
ये सब बातें तब पता चली
जब वो उपस्थित थी
अपनी अनुपस्थिति के साथ
इस बात का किसी को खेद नही था
बस यह खेद की बात है।
©डॉ. अजित
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