Saturday, November 17, 2012

गज़ल


करीब आकर भी दूर चले जाते है
कुछ लोग नजरों से उतर जाते है

हर साल कैलेंडर की तरह
दोस्त क्यूँ बदल जाते है

वो बुत बना देखता है तमाशा
फिर क्यों उसके दर पे जाते है

कुछ पैमाने हमसे इसलिए खफा है
छोटे जाम हम अक्सर छोड जाते है

मगरुर होती है जब भी शख्सियत
फकीर अपनी फूंक से तोड जाते है
डॉ.अजीत 

Tuesday, October 30, 2012

किताब..



तुमसे मिलना
कविता की तरफ लौटना है
तुमसे बिछ्डने का डर
कोई उदास गजल कहने जैसा है
कभी तुम कठिन गद्य की भांति नीरस हो जाती हो
कभी शेर की तरह तीक्ष्ण  
तो कभी तुम्हारी बातों में दोहों,मुहावरों,उक्तियों की खुशबू  आती है
तुम्हारे व्याकरण को समझने के लिए
मै दिन मे कई बार संधि विच्छेद होता हूँ
अंत में
तुम्हारी लिपि को समझने का अभ्यास करते करते
सो जाता हूँ
उठते ही जी उदास हो जाता है
तुमको भूलने ही वाला होता हूँ कि
तुम्हारे निर्वचन याद आ जाते है
जिन्दगी की मुश्किल किताब सा हो गया है
तुम्हे बांचना...
प्रेम के शब्दकोश भी असमर्थ है
तुम्हारी व्याख्या करने में
मेरे जीवन की मुश्किल किताब
तुम्हे खत्म करके मै ज्ञान नही बांटना चाहता
बल्कि मुडे पन्नों
और शब्दों के चक्रव्यूह में फंसकर
दम तोड देना चाहता हूँ
क्योंकि गर्भ ज्ञान के लिहाज़ से
मै तो अभिमन्यू से भी बडा अज्ञानी हूँ।

डॉ.अजीत 

Sunday, October 14, 2012

रात,चांदनी और तारा...



रात के सन्नाटें में
अंधकार के विराट छायाचित्रों
के बीच चांदनी को निमंत्रण देना
अपने पास बैठाने का
और चांदनी का मुस्करा कर रह जाना
एक सपना हो सकता है
मगर छत पर पसरी हुई चांदनी को
देखने और महसूस करने के लिए
मन को शांत करने की
अजीब सी कोशिस करता हूँ
ठहरता हूँ उस पल में
बुदबुदाता हूँ खुद ही खुद पर
खुद को छू कर देखता हूँ
कि ये मै ही हूँ
या मेरे देह से बाहर निकल आया है
कोई आदि पुरुष
जो दिन भर के झंझावतों में फंसा
दिन ब दिन खुद से दूर
होता जा रहा है
चांद से बतियाते हुए
एक धन्यवाद भेजने का मन होता है
चांदनी को उसने अपने प्रणय पाश
छोड कर
अंधकार के आतंक के बीच
मुझ तक भेजा
भले ही चांदनी का  मन नही था
मेरे एकांत का हिस्सा बनने का
दूर एक मद्धम टिमटिमाते तारें की
शिकायत मुझे नजर आती है
जो बेवजह जल-बुझ रहा है
ठीक मेरी तरह
मै उसको देखता हूँ
वो मुझे
और देखते देखते
सारी रात बीत जाती है
चांद और चांदनी के रिश्ते की तरह
बहुत से किरदार खुद के अन्दर
रोज जीते है और रोज दम तोड देते है
मद्धम तारें की तरह
न मै उनकी सुनता हूँ
और वें मेरी
हाँ, मेरी उलझन से चांदनी अक्सर
खुश नजर आती है...।
डॉ.अजीत

Saturday, October 13, 2012

मुकाम


आधी रात का मुकाम अभी बाकी है
दोस्तों से दुश्मनी निभानी अभी बाकी है

वो मेरा था नही ये बात जानते है सब  
लेकिन क्यों ये कहानी अभी बाकी है

नाकामियों की मुनादी कर दी हमने खुद
किसका था हाथ ये बताना अभी बाकी है

न साथ ही चले तुम न रास्ता ही दिया
फिर भी चेहरे पर थकान अभी बाकी है

करीब आकर दूर गये यूँ ही चलतें-चलतें
मिलनें पर मगर मुस्कान अभी बाकी है

डॉ.अजीत 

Friday, September 28, 2012

विदा



विदा पर
सभी कहते है
फिर मिलेंगे
इस औपचारिक झूठ
के सहारे लोग जिन्दगी काट देते है
कुछ दोस्त बिना कुछ कहे
अचानक नेपथ्य
मे चले जाते है
कुछ साथ रहकर भी
बोझिल बने रहते थे
ये विदा के समय के
सम्बोधन किसने बनाएं और क्यों
यह सोचकर दिल उदास हो जाता है
बेहतर होता
मिलने और बिछडने के क्रम में
न कुछ कहा जाता
न कुछ सुना जाता
बस जीया जाता वो लम्हा
जिस की वजह से कोई मिलता है
तो कोई यूँ की खो जाता है..।
डॉ.अजीत

Monday, September 24, 2012

तरकीब



विश्वास नही होता
तुम्हारे बदल जाने का
खुद के मुकर जाने
वक्त के दोहराने का

हैरान हूँ
तेरी जिद पर
खुद की बेबसी पर
दूनिया की हंसी पर

इंतजार है
वक्त के बदलनें का
तेरे सम्भलनें का
खुद के सिमटने का 

देखतें है
कब तक ये खेल चलेगा
वक्त कब तक छलेगा

उम्मीद है
कोई रास्ता जरुर निकलेगा

तब तक
दुआ करें
यकीन करें
और जुदा हो जाएं...

बेवफाई से ये तरकीब अच्छी है।

डॉ.अजीत

Saturday, August 4, 2012

खबर



खुद बेखबर हूँ मगर लोग खबर रखते है
मेरे करीबी लोग शीशे की नजर रखते है

उदासी देखकर उदास होने वाले दोस्त
न जाने क्यों बस उपरी नजर रखते है

कहाँ मै जाता हूँ कहाँ नही जाता और क्यों
महफिल के दरबान भी इसकी खबर रखते है

किसी को अपनाकर छोडना है मुश्किल
हम तो अपनी दीवार मे शज़र रखते है

मुमकिन है अब बीमार होकर मर जाना
चारागर अब दवा की शीशी मे जहर रखते है

तन्हाई मे सलूक निभाना है जरा मुश्किल
इस दौर के लोग कम ही सबर रखते है

डॉ.अजीत  

Thursday, May 10, 2012

जंगल


तुमने कहा
चलो चलते है
मै चला
फिर कहा ऐसे नही चलते
मै रुक गया
फिर हम चले
और चलते गये
निसंवाद
आज भी उन्ही कदमों
का पीछा करते चल रहा हूँ
तुम कभी बोझिल हो जाते हो
कभी जीवंत
ऐसे हमसफर के साथ
चल कर मंजिल को देखना
अब बस एक शगल है मेरा
न तुम्हे कहीं पहूंचना है
और न मुझे ही
फिर लोग क्यों अपेक्षाओं के
शुष्क जंगल में
हमारा पीछा कर रहे है
डरो नही!
हमारी परछाई हम से बडी
नज़र आ रही है
इसलिए खतरे की बात नही
बस चलो...
इससे पहले कि सांझ हो जाएं...।
डॉ.अजीत

Sunday, April 29, 2012

सफीना

लम्हों में खुद को कैद कर नही सकता
महफिल उनकी है हद से गुजर नही सकता 


तकसीम जब दिल के अफसाने हो जाए
जख्म हल्का भी हो तो भर नही सकता


खुद की जुस्तजु में सफर पर निकला हूँ
एक तेरे लिए ये सफीना डूबो नही सकता 


शिकवे शिकायत छोड यूँ भी मिलना कभी
हमारा अहसास इतनी जल्दी खो नही सकता


बारहा कभी यूँ ही तन्हाई में रो लेंगे हम भी
आपकी तरह सबके सामने मै रो नही सकता


डॉ.अजीत

Monday, March 26, 2012

मुताबिक

तेरे मुताबिक नजर आना जरुरी तो नही

अपनापन मेरा सलीका है मजबूरी तो नही


तुझे खुद अपनी अना का अहसास नही

इंसान है दोस्त तू मृग कस्तूरी तो नही


यूँ हर बात पर तेरी हाँ मे हाँ कहना

रवायत हो सकती है मगर जरुरी तो नही


दम कब के निकल जाते तेरे दम से

किसी के पास खुदा की मंजूरी तो नही


रबहर-ए-मंजिल के और भी है तलबगार

ऐसा भी अकेला तू हीरा कोहिनूरी तो नही


डॉ.अजीत

Monday, January 23, 2012

आईना..

मुश्किल वक्त

कितना मुश्किल लगने

लगता है जब

दोस्ती की बीच में

समझदारी उग आयें

रात के अक्सर नींद न आयें

पत्नि बिना वजह समझाए

दुश्मनों से सलाह लेनी पड जाए

मर्ज़ की दवा कम पड जाए

ऐसे बुरे वक्त से गुजरता

अक्सर यह सोचता हूँ

रात के बाद सवेरा है

ये सब कहते-सुनते आयें है

लेकिन रात कितनी बडी हो जाती है

इसके लिए अपने से सूरज़ की

दूरी मापनी होगी

जिसे मापते हुए

मै पसीना-पसीना हो रहा हूँ

इस सर्द रात में...

नया साल भी

कितना जालिम निकला...!

डॉ.अजीत