Saturday, November 27, 2010

मंजर

रास्तों की शह पर मंजर बदल गये

मंजिल नज़र तब आई जब दिन ढल गये

शिकस्त मिलना मुकाम की तौहीन था

हसरत न बदली सपने बदल गये

वो समझ न पाया कभी मेरी खुद्दारी को

गलत ही समझा जब भी देर से घर गये

साजिश वजूद का हिस्सा बन गई इस कदर

उसे समझाने की कोशिस मे खुद उलझ गये

अदब का अन्दाज भी अजीब ही निकला

अल्फाज़ रंज़ के तवज्जों मे ढल गये

बर्बाद मेरे अक्स का हर कतरा-कतरा

शुक्र करो कुछ अजीज़ो के घर तो बच गये

सफर की तन्हाई पर कैसे जश्न मनाऊं

हमसफर मेरे मुझसे आगे निकल गये

हादसों की हकीकत पैमाने ही जाने

मयकदे मे आकर अक्सर लोग बिखर गये...।
डा.अजीत

Wednesday, November 24, 2010

शर्त

रास्ते आपस मे मिल गये होते

रहबर वादे से अपने न मुकर गये होते

लबो की तौहीन बनने से बेहतर था

किसी के चश्मेतर मे उतर गये होते

मंजिल बहुत करीब होती ख्वाबो की

मुसाफिर सफर मे बदल गये होते

शर्त बडी अजीब लगाई थी उसने

वरना खोने से पहले संवर गये होते

मिलना-बिछडना उसका दस्तुर था

हम किसके लिए ठहर गये होते

दायरे मे उडना गर सीख लेता

पर पंछी के कतर गये होते

मयकदे मे संभलना मुश्किल था

महफिल से अगर बच गये होते...।

डा.अजीत

Tuesday, November 23, 2010

अहसास

चलो !

एक शाम

उस अहसास से

रोशन करें

जिसके वादामाफ गवाह

हम दोनो बन

कर अपनी-अपनी

मंजिलो के लिए रवाना

हुए थे

एक दूसरे की मजबूरी

साथ लिए

वो तमाम सवालात

जिनके जवाब जेहन मे

अल्फाज़ के मौत मरते देखा है हमने

उनको फिर से

जिन्दा करें

एक तसदीक बाकी है

अपने वजूद की

जिस पर कोई

जिरह न हो

बस कुछ अधुरे ख्वाबों

को गिरवी रख कर

एक इंच मुस्कान के साथ

एक ऐसा मशविरा करें

जिससे मेरे हमराह

इन रास्तों की दुश्वारियां

कुछ कम हो जाए

ठीक हमारी तरह से

जैसे हमारा मिलना-जुलना

कभी कम हुआ था....।

डा.अजीत

Thursday, November 4, 2010

हकीकत

बात सोचने पर कडवी लगी

सुनकर जिसे खुश हुआ था

किस्सा हमारा था अपना

तमाशा दुनिया को लगा था

एक फूंक मे उड गया वजूद

लकीर का फकीर जो बना था

बेफिक्री उनकी काबिल-ए-तारीफ

फिक्रमंद तो महफिल की तौहीन हुआ था

अहसास ज़ज्बात के साथ दफन हुए

जख्म लेकिन अन्दर से हरा था

वो जब भी मिला बेबस ही मिला

ऐतबार तो इम्तिहान की हद था...।
डा.अजीत

Sunday, October 31, 2010

महफूज़

उसका वजूद किस्से कहानियों मे रह गया

दावा समन्दर का था पर दरिया मे बह गया

फिकरे चंद लोगो ने कसे थे उसकी मजबूरियों पर

मगर खफा हो कर वो सबको बेवफा कह गया

इतने करीब से उसको जानता हूं मै

वो अब नही आएगा भले ही आने को कह गया

इसे रात की बेबसी कहूं तो तोहमत लगेगी

चांद निकलते ही आधा रह गया

तवज्जो उसी को मिलती है इस दूनिया में

लबो पे मुस्कान सजाकर जो दिल के जख्मों को सह गया

दोस्त हौसला बांट न सके अपने किरदारो का

सबके हाथों मे बस दिखाने को आईना रह गया...।

डा.अजीत

Thursday, October 28, 2010

रात

रात इतनी बेबस पहले न थी

दिन इतने चिढे हुए

मैने नही देखे कभी

दुपहरी अवसाद बाट रही है

मौसम ने करवट बदली

और मन का तन से रिश्ता टूट गया

दिल दिमाग पर हावी हो गया

सर्दी आने वाली है

और मन पर जमी बर्फ पिघंलने लगी है

ज़ज्बात के अहसास से रिसता

अपनेपन का लहू

एक तहरीर लिख रहा है

जमाने की बेरुखी पर

और मै उसके लिए

गवाह तलाश रहा हूं

जिससे दावा किया

सके अपनी बर्बादी के

उन हिस्सो का जिसके लिए

मै रोज़ाना जीया

और रोज़ मरा हूं...।

डा.अजीत

Tuesday, October 5, 2010

दाखिल खारिज़

मुझे ठीक से याद

नही है वो वक्त

जब मै इतनी बुरी तरह

से खारिज़ नही था

अपनें-परायों के बीच

अच्छी यादें तो बनी

रहनी चाहिए थी

लेकिन बात,हर बात और बेबात

पर जिस तरह से

मेरे खारिज़ होने का दौर है

ऐसे मे अपना होना

भी याद करना पडता है

समर्थन तलाशते

शब्द अब खुद बखुद

तंज बन जाते हैं

जिस पर अक्सर सभी

को रंज़ होता है

मै हैरान हूं अपने

वजूद के एक जहीन

गाली बन जाने पर

अहसास के मर जाने पर

उम्मीदों को जिन्दा रखना

ख्वाबों की दस्तक

को लौटा देना

अपने बुरे वक्त की दुहाई देकर

इस उम्मीद के साथ

कि एक दिन वक्त बदलेगा

वक्त का बदलना

दरअसल एक सदमा है

जिसके अक्स मे

मेरा वजूद अपने खारिज़ होने

ही वजह तलाशता है

रोज़ाना

ठीक वैसे

जैसे बैनामे के बाद

दाखिलखारिज़ का होना

जरुरी होता है

किसी भी

खरीददार के लिए....।

डा.अजीत

Monday, October 4, 2010

आशा

मिलते रहेंगे

यह कह कर बिछडना

थोडा मुश्किल

होता है

उम्मीद को बांधना

उस बेरंग डोर से

जिसका एक-एक धागा

मिलकर जुदा रहता है

न फिर कोई मिलता है

और न मिलने का

मलाल करता है

औपचारिक शब्दों

को शब्दकोश मे

जगह देने वाले को

जी भर कर कोसा जा

सकता है

फोन पर अक्सर

काम आतें है

ऐसे बौनें शब्द

जिसमें भावुक वादों

की कडवी गंध

आती रहती है और

मन बावरा फिर से

आस मे धुनी रमा

लेता है मिलनें की...

पुरानी गली के मुहाने

पर ऐसे फक्कडो

का मेला लगता है साल में

एक बार जब

याद आतें है

पुराने लोग

पुरानी शराब

और पुराने पत्र

दूनिया मशगूल है

अब मिलने-मिलाने

की फिक्र करने वाले को

निठल्ला समझा जा सकता है

या फिर ऐसे लोगो को

समझने वाले

ही कम बचें हैं

उम्मीद करो

और खो जाओं दूनिया के मेले मे

यही सबसे बडा सबक

है परिपक्व होने का

हो सके तो याद कर

लेना...।

डा.अजीत

Friday, October 1, 2010

तलाश

ऐसे लोगो की तलाश

के लिए मुझे

संविदा पर रखा गया है

जो असफल हो...

जीवन मे कुछ बडा करना चाहते

पर न कर पाए हो

वाचाल तो नही

वाकपटू भी हो तो ताकि

अपनी असफलताओं को

वक्त आने पर जस्टीफाई

कर सके और सीना तना रहे

स्वाभिमान से

दूनियादारी से कुछ

अलग होने के भाव के साथ

ऐसे लोग

जो विशेषण और उपमाओं

के अभिलाषी न हो

मतलब इन सब से उपर उठ चूकें हो

वादाखिलाफी को

मजबूरी मे बदलने मे माहिर

ऐसी कला का होना बेहद जरुरी है

और वक्त आने पर

अपने आप को साफ बचाते हुए

बिना महान बने

नो मेंस लैड के नागरिक

बनते हुए आपके चुनाव को

चुनौति दे सकें

जमानत जब्त होने की सीमा तक

फिर भी कोई मलाल न हो

और यह कहे फख्र के साथ

दरअसल तुम समझते नही हो

बात ऐसी नही है

इसका प्रयोग आना बेहद

जरुरी है

ऐसे लोगो को तलाशता

हुआ मै आ पहूंचा हूं

अपने घर से बहुत दूर

इतना दूर कि अब शायद ही

किसी पारिवारिक उत्सव मे शामिल हो सकूं

मेरी भटकन प्रतीक है

उन असफल लोगो की

खोज की जिन्होने

अपने आप को बर्बाद किया

ऐसा दूनिया कहती है

वो कमबख्त तो कुछ कहते ही नही

बस मेरे सवालों पर

मेरे असामान्य होने का चस्पा लगा कर

अपने धुन मे बिछड जाते है

मेरी संविदा भी

अधूरी रहेगी शायद

मेरी तरह...फिर भी

तलाश जारी है...

आपको कोई मिले तो

मेरा पता देना जरुर...।

डा.अजीत

आमद

शहर मे आना

आकर खो जाना

मर जाना सपनों का

किस्तों मे किस्से

खुदकुशी के

महफूज़ अहसास

खलिश का होना

और मिट जाना

किसी और के साथ

पीछे मुडकर देखना

आदत है मगर

दिखता नही वो सब

मंजर खौफनाक बनते गये

रिश्तें खोखले बांस

मजबूर होना किसी के

हिस्से का आधा गम है

लेकिन आधा-अधूरे

ख्वाबों की दस्तक

परछाई बन

डराती है आधी रात को

सुनसान शहर मे सहमे हुए लोग

और मेरा गली का कुत्ता

हांफता हुआ भौंकता है

खुद पर ही

शक कर के

लेकिन अभी उसने

नही सिखा दुम हिलाना

आवारा होने की बडी निशानी

गांव से कस्बे

कस्बे से शहर

और अब शहर से सपनो के महानगर

अपनी लाश ढोते हुए कन्धे

बेजान होकर

मायूस मुस्कान के साथ

दूर खडे लोगो को

हौसला बांट रहे थे ठीक

उस वक्त

जब उसका वक्त खत्म हुआ

आहिस्ता-आहिस्ता...।

डा.अजीत

Thursday, September 30, 2010

एक नज़्म: अपने बारे में

अक्सर

पुराने

लम्हों को

सोच कर

शाम को

उदास हो जाता हूं

नया आदमी बनने

की जिद मे

एक जिरह रोज

खुद से होती है

पुराना होना

किसी गुनाह से

कम नही

अब वो वक्त नही

जिसमे किस्से

जरुरी थे मुकाम के

अब किसी का

होना सिद्द करना

पडता है

अपने होने की तरह

शाम,उदासी और

लौटते पंछी

रोज जोड देते

कुछ हरफ

मेरे वजूद मे

जिसकी किस्सागोई

मेरे बाद होगी

शायद तब वो

यकीन पैदा हो

जिसका शगल मेरे

साथ चला जाएगा

और दूनिया को

अफवाह की तरह

यकीन आयेगा

मेरा ऐसा होने का...।

डा.अजीत

खामोशी

उसने चुनी खुद अपने लिए तन्हाई

कतरा कहे समन्दर से है प्रीत पराई

बात यही देर से समझ मे आई

रोशनी का फर्क नही कमजोर पड गई बिनाई

वो दूर रह कर जितना करीब था

नजदीकियां उतना फाँसला ले आई

वो ही मंसब का पता पूछता फिरा

जिसने थी कभी राह दिखाई

हौसलों का सफर उस दिन खत्म हुआ

नज़र से जब उसने नजर चुराई

अक्ल हुनर पे भारी पड गई

ऐब ने अक्सर जान बचाई

महफिल का अदब उससे पूछो

जिसने गैरो के यहाँ एक शाम बिताई...।
डा.अजीत

Tuesday, September 28, 2010

असर

सपनों का मर जाना

उम्मीदों को उधार दे देना

और अपने आप से यह

पूछना ऐसा क्यों हुआ

ठीक वैसी बात है

जैसे त्योहारों की रौनक मे

उदासी का दबे पांव

दिल मे आ जाना

रात का बडा हो जाना और

दिन की दोपहरी मे

सो कर उठना

मन को खुशी चाहिए

या अपनापन

या फिर दोनो

ये तय करना था उसे

उस दिन जब

सब उल्लास मे डूबें हुए

अपने होने का जश्न मना रहें थे

मौसम बदल रहा है

मन का भी और शायद तन का भी

अब ऐसे मे

एक इंच मुस्कान के लिए

उसे तोडना होगा

खुद को

जोडना होगा अपने को

उस अपनेपन के ढोंग से

जो कभी भी कह देता है

मुझे माफ करो दोस्त..

अब मुझ से ये सब नही होता

अपने-पराये का नाटक

उसे चाहिए अब एक पूर्ण विराम

बिना सम्बोधन के...।

डा.अजीत

Saturday, September 25, 2010

श्राद्द

वैसे तो हम अच्छे मित्र

रहें है बरसो

लेकिन आजकल

बिना सम्बोधन के

सम्बन्ध मे जी रहें है

इसे अजनबीपन और परिचित

के बीच का कुछ समझा जा सकता है

इसके लिए कोई शब्द

अभी शब्दकोश मे नही बना

बरसो-महीनों बातें न करना मोबाइल पर

आजकल सम्बन्धों की

परिपक्वता की पहचान है

लेकिन मिलने पर

गुजर जाना पास से

या देख कर एक दूसरे को ठिठक जाना

एक अजीब भाव के साथ

न खुशी न दुखी

फिर मिलेंगे के सन्देश के साथ

भीड का हिस्सा बन जाना

वाकई बडी बात है

और बडी कलाकारी भी कही जा सकती है

लेकिन दूनियादारी के रंगमंच के

मंझे हुए मेरे कलाकार दोस्त

अक्सर यह भूल जातें है

कि मिलना-बिछडना तो

चलता रहता है

जिन्दगी भर

उम्मीद और सपनों का मर जाना

और इनका श्राद्द इस

अजनबीपन के साथ करना

आसान नही

कुशा हाथ मे लिए

आचमन करते हुए ऐसा लगता है

अभी भी भटक रही है

वो वजह जिसके कारण

हम मित्र बने थें

कभी यूं ही...।

डा.अजीत

Friday, September 24, 2010

धूप

ऐसा क्या कह दिया मैने

कि तुमने कुछ नही कहा

सिवाय उपेक्षाभाव के

बात हमारे बीच की थी

लेकिन तुमने तटस्थता का

अभिनय आखिर क्यों किया?

मेरा एकालाप कितना

अजीब था उस भीड मे

जिसमे तुम्हारा साथ

मेरे होने की पुख्ता वजह थी

अन्यथा मत लेना

लेकिन ऐसे मौको पर

जहाँ पर मै तुम्हारे समर्थन

का मोहताज़ रहा हूं

तुम्हारी अचरज़ भरी चुप्पी

मुझे कतई अच्छी नही लगती

तब हम और हमारे सम्बन्ध

एक कूटनीति की किताब

के बरखे बन बिखरने लगते है

यह अलग बात है कि

मैने कभी पूछा नही

लेकिन कभी-कभी मेरी

साधारण सी बात पर भी

तुम ऐसा दार्शनिक मौन

धारण कर लेती हो कि

मुझे डर लगने लगता है

समर्थन तलाशती मेरी हर बात

कितनी अकेली हो जाती है

तुम्हारे साथ होने पर भी

यह अलग बात है कि

मै छलबल से निकल आता

हूं उस संवाद से

लेकिन नही निकल पाता

तुम्हारे मौन के आतंक से

महीनो तक

अब तो एक अरसा बीत गया

अपनी बात पर तुम्हारी हामी सुनें

तुम तटस्थ जी सकती हो

ये अच्छी बात है

तटस्थ कैसे जीया जाता है

कैसे सीखा तुमने

मुझे बताना कभी फुर्सत में

आजकल तो तुम्हे फुर्सत है नही

देख रहा हूं

तुम्हे उलझते-सुलझते हुए

जैसे कोई स्वेटर बुन रहा हो

बिना नाप का

जाडे की धूप में...।

डा.अजीत