Friday, October 1, 2010

आमद

शहर मे आना

आकर खो जाना

मर जाना सपनों का

किस्तों मे किस्से

खुदकुशी के

महफूज़ अहसास

खलिश का होना

और मिट जाना

किसी और के साथ

पीछे मुडकर देखना

आदत है मगर

दिखता नही वो सब

मंजर खौफनाक बनते गये

रिश्तें खोखले बांस

मजबूर होना किसी के

हिस्से का आधा गम है

लेकिन आधा-अधूरे

ख्वाबों की दस्तक

परछाई बन

डराती है आधी रात को

सुनसान शहर मे सहमे हुए लोग

और मेरा गली का कुत्ता

हांफता हुआ भौंकता है

खुद पर ही

शक कर के

लेकिन अभी उसने

नही सिखा दुम हिलाना

आवारा होने की बडी निशानी

गांव से कस्बे

कस्बे से शहर

और अब शहर से सपनो के महानगर

अपनी लाश ढोते हुए कन्धे

बेजान होकर

मायूस मुस्कान के साथ

दूर खडे लोगो को

हौसला बांट रहे थे ठीक

उस वक्त

जब उसका वक्त खत्म हुआ

आहिस्ता-आहिस्ता...।

डा.अजीत

3 comments:

Apanatva said...

bahut khoob,,,,,,,,,ek dard ka ahsaas liye hotee hai aapkee rachnae.....

संजय भास्‍कर said...

बहुत पसन्द आया
हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ.

दीपक बाबा said...

बहुत ही बढिया

और हाँ.....
ब्लॉग का नाम भी बढिया रखा है शेष फिर....
यानी कविताओ का सिलसिला चलता रहे.