Thursday, September 30, 2010

एक नज़्म: अपने बारे में

अक्सर

पुराने

लम्हों को

सोच कर

शाम को

उदास हो जाता हूं

नया आदमी बनने

की जिद मे

एक जिरह रोज

खुद से होती है

पुराना होना

किसी गुनाह से

कम नही

अब वो वक्त नही

जिसमे किस्से

जरुरी थे मुकाम के

अब किसी का

होना सिद्द करना

पडता है

अपने होने की तरह

शाम,उदासी और

लौटते पंछी

रोज जोड देते

कुछ हरफ

मेरे वजूद मे

जिसकी किस्सागोई

मेरे बाद होगी

शायद तब वो

यकीन पैदा हो

जिसका शगल मेरे

साथ चला जाएगा

और दूनिया को

अफवाह की तरह

यकीन आयेगा

मेरा ऐसा होने का...।

डा.अजीत

4 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

दूनिया को
अफवाह की तरह
यकीन आयेगा
मेरा ऐसा होने का...।

अपने वजूद को तलाशती ...अच्छी रचना

ZEAL said...

.

अजीत जी,

बहुत सुन्दर नज़्म लिखी है आपने , लेकिन जाने क्यूँ एक उदासी सी झलक रही है इन पंक्तियों में...आखिर क्यूँ ?

.

Apanatva said...

ise udaasee se peecha chudaaeeye mere bandhooo......

संजय भास्‍कर said...

आज तो आपकी पोस्ट की पहली लाईन ने ही आईना दिखा दिया जी, हमें बाहर का दिख जाता है और अपने अंदर का नहीं दिखता।

बहुत सुन्दर नज़्म लिखी है आपने