Friday, April 24, 2015

गंभीर

अचानक हो जाना
किसी का गंभीर
जीवन से
खो जाना कौतुहल का
परिपक्वता की निशानी
नही होता है हर बार
सम्भव है खो गई हो उसकी
दराज़ की चाबी
घिसी हुई चप्पल
या कोई पुरानी शर्ट
गम्भीरता डराती भी है कई बार
जैसे इसका सहारा लेकर
कोई करेगा अपनी अंतिम घोषणा
और बदल लेगा मार्ग
हर बार गंभीर होने का अर्थ
समझदार होना नही होता है
गंभीरता में आदमी भूल सकता है
बढ़े हुए बाल नाखून और दाढ़ी
भूल सकता है
प्रेम और प्रेम के वादें
बड़ी सहजता के साथ
कभी कभी हंसते हंसते अचानक से
बिना निमंत्रण के आई गम्भीरता
बताती है कोई चीज जरूर है
जिसे लगातार आपत्ति होती है
हमारी उन्मुक्त हंसी पर
इसलिए गम्भीरता लगनें लगती है
आपत्ति से मिलती जुलती कोई चीज़
ये खुद से आपत्ति है या दूसरे से
इसका अंदाज़ा
गम्भीरता से लगाया जा सकता तो
कुछ लोग
पहले से अधिक या कम
गम्भीर होते आज।

© डॉ. अजीत

Thursday, April 23, 2015

स्वप्न

स्वप्न में भूल जाता हूँ
कवि होना
मनुष्य होना
भाई बेटा पति पिता होना
स्वप्न में भूल जाता हूँ
अक्षर ज्ञान
लिपि भाषा और बोली
स्वप्न में भूल जाता हूँ
धरती का भूगोल
गुरुत्वाकर्षण का केंद्र
मौसम दिन और रात
यहां तक स्वप्न में भूल जाता हूँ खुद की
आयु लिंग धर्म और जाति
स्वप्न में भूल जाता हूँ
दोस्तों के नाम और चेहरें
स्वप्न में भूल जाता हूँ
नदियों के उदगम् स्थल
झरनों की ऊंचाई
झील का आकार
और समन्दर की गहराई
बमुश्किल पांच दस मिनट के स्वप्न में
भूल जाता हूँ सारी स्मृतियां
बस एक बात
आज तक नही भूला
स्वप्न में भी
तुमसे पहला और अंतिम
प्रेम किया है मैनें
ये बात होश और स्वप्न में
रहती है याद
एकदम बराबर
ये अलग बात कि
चेतना के मुहानें पर
आइस पाइस खेलती हुई
बदलती रहती हो
तुम अपना घर।

©डॉ. अजीत

Wednesday, April 22, 2015

दूरी

जिन दिनों तुमसे दूर था मैं
चाँद को बुला लेता था
अपनें सिरहानें
दिखाता था उसे उपग्रह से प्राप्त चित्र
बादलों के छलावे देख
खुलकर हंसता था चांद
उन दिनों
बरसात से मांगता था
थोड़ी सी चटनी उधार
ताकि जीने लायक खा सकूँ रोटी
जिन दिनों तुमसे दूर था
धरती पर पंजो के बल खड़े होकर
देखता था तुम्हारा आना
और धरती अपनी जीभ से
तलवें पर ऐसी गुदगुदी करती
उदासी में भी हंसते हुए
नाचने लगता था मैं
उन दिनों
आवारा खरपतवारों से थी दोस्ती
उनसे सीखता था बेरुखी में जीने की आदत
थोड़ी सी जिद थोड़ा सा जुनून
कल्पना के दीपक पर
निकालता था उम्मीद की स्याही
ताकि आंसूओं के बीच सलामत रहे रोशनी
उन दिनों
तालाब से मांगता था थोड़ा धीरज उधार
नदी में पैर से बनाता था
तुम्हारे घर का मानचित्र
ताकि बहती रहें तुमसें
मिलनें की संभावना
समन्दर की तरफ पीठ करके
फूंकता था सम्मोहन के सिद्ध मंत्र
ताकि वक्त भले ही लगे मगर
नदी की तरह एकदिन
तुम मिलनें आओं जरूर
जिन दिनों तुमसें दूर था मैं
उन दिनों
खुद के इतना नजदीक था कि
तुम्हें एक साथ करते हुए
देख सकता था
मुझसे नफरत और प्यार।


© डॉ.अजीत




Monday, April 20, 2015

जरूरतें

बेहद मामूली थी मेरी जरूरतें
एक अदद मुस्कान से
धुल जाते थे सारे रंज
जब तुम खुद को
करेक्ट करने की मुद्रा में पूछती
डबल एक्स एल नम्बर ही ना शर्ट का
लगता मेरे सुख दुःख का नम्बर
रख रही हो पर्स में
कभी तो ऐसा भी हुआ
तुमसे गलती से कॉल हो गई
और मिस्स कॉल से मुझे लगा
याद किया है तुमनें
तुम्हारे रहतें जरूरतें बेहद सिमट जाती थी
मैं खुश हो सकता था
जूतों में जूराब देखकर
या फिर बाथरूम में नया साबुन देखकर
तुम उस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत थी
इसलिए दुसरी जरूरतें लगभग समाप्त हो गई थी
बेख्याली का ऐसा दौर था
भूल जाता था बाइक में चाबी
जेब में कलम
दराज़ में बटुआ
जैसे तुम्हारी बातें करता हुआ
अभी अभी भूल गया हूँ
तुम अब नहीं हो
अब जरूरतें तंग करती है
खासकर तुम्हारी आदत
क्योंकि
आदतें वैसे भी
यूं ही नही जाती।
© डॉ. अजीत


Sunday, April 19, 2015

उनदिनों

जिन दिनों तुम्हारे प्रेम में था मैं
धरती का व्यास याद था मुंहज़ुबानी
बता सकता था पेड़ की पत्तों की संख्या
खींच सकता था
धरती सूरज चाँद के मध्य सीधी रेखा
ग्रह नक्षत्रों को कर सकता था स्तम्भित
नदी को भर सकता था ओक में
झरनें को उछाल सकता कुछ प्रकाश वर्ष ऊपर
समन्दर के तल पर रख सकता था कुछ बोरी सीमेंट
परवा हवा को खींच फूंक से बना सकता था पछुवा
जिन दिनों तुम्हारे प्रेम में था मै
उनदिनों,
तीन सौ पैसठ दशमलव दो चार दिन का था साल
साढ़े बाईस घंटे के होते थे दिन रात
इतवार आ जाता पौन घंटे पहले
शनिवार जाता था सवा घंटे विलम्ब से
ये जो समय आगे पीछे चल रहा था
इसकी एक वजह यह भी थी
अपनी घड़ी मिला ली थी मैंने
तुम्हारी मुस्कान से
जिन दिनों तुम्हारे प्रेम में था मैं
देख लेता था वाक्यों के मध्य फंसे अपनत्व को
जोड़ लेता शिकायतों की संधि
भेद कर पाता था संज्ञा और सर्वनाम में
लगा सकता था शंका पर पूर्णविराम
मिटा सकता था थूक से प्रश्नचिन्ह
कर सकता था तुम्हारी हंसी का अनुवाद
मध्यम नही उत्तम पुरुष था मैं
काल के हिसाब से
जिन दिनों तुम्हारे प्रेम में था मैं
उन दिनों मैं बस मैं नही था
कुछ और था
क्या था
ये तुमसें बेहतर कौन बता सकता है।

© डॉ. अजीत 

गजल

चेहरें पर आपको जो रौनक नजर आई है
थोड़ी नजरबंदी है थोड़ी हाथ की सफाई है

तन्हा इतना हूँ इस जिंदगी के सफर में
खुद को ही खुद की कहानी सुनाई है

कुछ अदीब इस बात पर मुझसे खफा है
बिना उस्ताद के मैंने कैसे गज़ल बनाई है

मिलते ही पूछते हो अपने मतलब की बात
दोस्त ये बता तालीम किस मदरसे से पाई है

ना काफ़िया ना रदीफ़ ना ख्याल का शऊर है
गजल कहता हूँ शेर मेरे सब के सब हरजाई है

© डॉ. अजीत 

Thursday, April 16, 2015

दुःख

दुःख का आयतन
मांपने के लिए
सुख का वर्गमूल निकालना पड़ता है
फिर जो बचता है शेष
उसे हम नियति कह सकते है
कहनें को तो
सुख को दुःख और
दुःख को सुख भी कहतें है लोग।
***
दुःख और सुख
एक साथ उच्चारित करनें से
कुछ दशमलव कम हो जाता है दुःख
ये गणित का नही
जीवन और उम्मीद का सूत्र है।
***
दो तिहाई दुःख में
एक तिहाई सुख जोड़ो
जिंदगी ने एक सवाल दिया
हल करनें के लिए
आज तक
मेरी स्लेट कोरी है।
***
दुःख का गणित
सुख के मनोविज्ञान को नही समझता
दुःख दरअसल एक दर्शन है
और सुख एक विषय
दुःख और सुख
साथ-साथ नही
आगे पीछे पढ़ाते है अपना पाठ।
***
दुःख विषम होता है
और सुख सम
दोनों के भिन्न आपसे में
नही जोड़े जा सकते
किसी भी समीकरण में
दुःख इसलिए भी होता है
सुख से अधिक जटिल।
***
दुःख की प्रमेय
सिद्ध करनें के लिए
सुख के सूत्र काम नही आते
दुःख हर बार गढ़ता है
नई प्रमेय
नए सूत्र
इसलिए भी दुःख का गणित
नही हो पाता कभी प्रकाशित।
***
दुःख का भूगोल
और सुख का अर्थशास्त्र
यह देखनें में मदद करता है
मनुष्य किस अक्षांश पर स्थित है
और उसकी सकल खुशी दर क्या है
इन्हीं के सहारे ईश्वर
हंस सकता है
यदा-कदा।

© डॉ. अजीत

नदी

नदी
कहती है पहाड़ से
कभी मिलनें आओं
और पहाड़ रो पड़ता है
नदी समझती है बोझ का दर्द
इसलिए फिर नही कहती कुछ
केवल समन्दर जानता है
नदी के आंसूओं का खारापन
क्योंकि
उसके लिए वो बदनाम है
नदी कृतज्ञ है
अंतिम आश्रय के लिए
पहाड़ शर्मिंदा है
प्रथम उच्चाटन के लिए
समन्दर शापित है
चुप रहनें के लिए
नदी पहाड़ समन्दर
एक दुसरे की कभी शिकायत नही करतें
बस देखतें हैं चुपचाप
मजबूरियों का पहाड़ होना
आंसूओं का नदी होना
धैर्य का समन्दर होना।

© डॉ.अजीत

फोन

फोन (मोबाइल)

---
जागता है चौबीसों घंटे
रखता है हिसाब
तारीफ, बुराई
और हिचकियों का।
***
मेरे जाने के बाद
मेरा सच जानने वाला
एकमात्र गवाह
यही बचेगा
जिसकी गवाही कोई नही लेगा।
***
पहचानता है
मेरी स्पर्शों को
पुरानी प्रेमिका की तरह
आंख का पानी
जब लगता है ऊंगलियों पर
ये आदेश मानने से कर देता है इंकार
विज्ञान इसके सेंसर मे दोष बताता है
जबकि सच है
मेरी तरह अतिसंवेदनशील है यह भी।
***
यह महज एक फोन नही है
एक खिडकी है
हमारे बीच
उधर बालों में कंघी होती है
इधर खुशबू आती है
क्लिनिक प्लस की।
***
कभी नही करता शिकायत
बेट्री लो, वाईब्रेशन मोड या म्यूट की
दिन में न जाने कितनी बार
छोड देता हूँ अकेला
अपना इतना है
होता है क्या तो
हाथ में दोस्त की तरह
या फिर रहता है दिल से चिपका
बच्चें की तरह।
***
फिलहाल
फेसबुक,व्हाट्सएप्प, एसएमएस
इसके दिल की तीन प्रमुख धमनियां है
जब आता है किसी का फोन
ये दिमाग से सोचता है
और काट देता है
इंटरनेट का कनेक्शन
देखना चाहता है हमेशा
मुझे एकतरफा
किसी शुभचिंतक की तरह।
***
उदासी और संघर्ष के पलों में
एक आश्वस्ति है इसका होना
लिखना,लिखकर मिटाना
खुद ही खुद को समझाना
देखता है चुपचाप
मेरी कमजोरी जानते हुए भी
उस पर कभी कोई बात नही करेगा
ऐसा तो कोई दोस्त भी नही है मेरा।
***
मुझे लगता है
इसका एकमात्र ऐतराज़
पासवर्ड लगाने से हो सकता है
शायद समझा लेता होगा खुद को
इसी में हम दोनों की भलाई है
नही चाहता मैं भी
मेरे अलावा कोई इसकी तलाशी लें
और करें मुझसें
बेतुके सवाल-जवाब
फिर लाख पासवर्ड लगा हो
इससे कुछ छिपा थोडे ही है मेरा।

© डॉ.अजीत

Monday, April 13, 2015

अनुपस्थिति

तुम्हारी अनुपस्थिति में यह जाना
दो जमा दो चार नही होता हर बार
तुम्हारी अनुपस्थिति में देख पाया
सपनें की यथार्थ के दर पर आत्महत्या
तुम्हारी अनुपस्थिति में समझा
भावुकता और सम्वेदनशीलता में फर्क
तुम्हारी अनुपस्थिति में उलट गई थी
काल गणना
दिन और रात थे छब्बीस घण्टें के
ये दो अतिरिक्त घंटे कहां से लाता था
तुम्हें समझनें के लिए
नही जानता हूँ
दरअसल तुम्हारी अनुपस्थिति
इतनी घनीभूत रूप से मनोवैज्ञानिक किस्म की थी कि
मैं घटना वस्तु समय सबमें तुम्हें तलाशता था
और तुम्हारी अनुपस्थिति
मुझे खारिज करती जाती
तुम्हारी अनुपस्थिति मुझे चाट रही थी घुन की तरह
और मैं अपनी तयशुदा हार
स्थगित करनें में असमर्थ था
तुम्हारी अनुपस्थिति ने चिपका दिए थे कुछ सवाल
मेरी नाक,माथें और पीठ पर
कुछ को मैं पढ़ता था
कुछ को दोस्त पढ़कर सुनाते थे
तुम्हारी अनुपस्थिति में
भूल गया था अपनी तमाम वाग्मिता
सन्देह होता था खुद के स्पर्शों पर
तुम्हारी अनुपस्थिति
ठीक उतना अकेला कर रही थी मुझे
जितना अकेला जन्म के वक्त होता है
मुस्कानों के बीच विस्मय से भरा
एक नवजात शिशु
तुम्हारी अनुपस्थिति मुझ पर इसलिए भी
इतनी हावी थी
क्योंकि पहली बार
तुम्हारी अनुपस्थिति में
तुम उतनी उपस्थित नही थी
जितना उपस्थित था मैं।

© डॉ. अजीत

Saturday, April 11, 2015

धूमकेतु

सुबह
उठता हूं
मगर जागता नही हूं

दोपहर
करवट बदलता हूं
मगर सोता नही हूं

शाम
टहलता हूं
मगर
चलता नही हूं

रात
आधा सोता हूं
ज्यादा खोता हूं
चुप होकर रोता हूं

...एक ख्वाब

रोज अधूरा रह जाता है
पलकों पर कुछ ग्राम बोझ बढ जाता है
बंद आंखों में बारिशें होती है
मुस्कानों के पीछे झांकता है
थोडा दीवानापन
थोडा पागलपन

सुबह शाम रात और दिन के बीच
ठीक उतने ही फांसले नजर आते है
जितने दो नक्षत्रों के मध्य होते है
देह,चित्त और चेतना के ब्रह्मांड का
धूमकेतु बन जीता हूं
सम्बंधों के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त
एक खगोलीय जिन्दगी।

© डॉ.अजीत 

चार बात

कविता जब
कवि से सवाल करती है
कवि हो जाता है
निरुत्तर
कविता इस चुप्पी पर
हंसती है
और हो जाती है
लोकप्रिय।
***
नदी के किनारें
तापमान होता है
कुछ दशमलव कम
ये बात नदी किसी को नही बताती
फिर भी लोग बैठ जाते है
अपना एकांत लेकर
इधर तापमान किनारों का बढ़ता है
उधर झुलसतें है
नदी के तल पर हरे शैवाल।
***
सम्बन्धों का सच
रूपांतरित होने पर
झूठ लगनें लगता है
जबकि सच को शाश्वत बतातें है लोग
झूठ रूपांतरित नही हो पाता
इसलिए यह सांत्वना देता है
सच के आतंक के बीच
हमेशा नही मगर कभी-कभी।
***
पत्थर के अन्तस् में
नमी रहती है
कुछ मिलीमीटर में
उसी के सहारे
वो झेल पाता है
ठोकरें और चोट
जिस दिन टूटता है पत्थर
नमी भी टूट जाती है
मगर वो बिखरती नही
नमी पत्थर का अभिमान है।

© डॉ. अजीत

Friday, April 10, 2015

उदघोषणा

जहां तक जाती है दृष्टि
वो खोजती है
थोड़ा अपनत्व
थोड़ा अधिकार
और ज्यादा प्यार
मनुष्य थोड़ा-थोड़ा पाकर
पाना चाहता है कुछ ज्यादा
एक साथ ज्यादा मिलनें पर
बोझ से क्या तो
झुक सकती है कमर
दुख सकतें है हाथ
या हड़बड़ी में भूल सकतें हैं
सम्भालनें का कौशल
इसलिए मांगतें है अक्सर
थोड़ा...
हां बहुत थोड़ा
अब आपको
क्या कब किस मात्रा में
मिलता है
यह नितांत ही संयोग की बात है
इसका ठीकरा ऊपर वालें पर भी
फोडा जा सकता है
मिलना एक तयशुदा बात है
सम्भालना एक कौशल
और खो देना
एक शाश्वत सच
जो खोनें से बच जातें है
उन्हें अपवाद समझ
मनुष्य काटता है
अपनी हीनता की ग्रन्थि
ईश्वर को कोसना
खुद के सर्वाधिक सुपात्र होने की
एक उदघोषणा भर है
जो कहीं नही सुनी जाती ।

© डॉ. अजीत

असंगत

नदी अकेले गीत नही गाती
उसे किनारों तक आना होता है
अपनी चोट सुनाने के लिए
समन्दर की इच्छा
कोई नही पूछता
रोज एक इंच बढ़ जाता है उसका तल
वो सूरज से मांगता है मदद
ताकि रह सके सामान्य
झरनें के साथ
गिरता है उसका अकेलापन
दोनों तलों पर होती है
अलग अलग किस्म की चोट
ये केवल पानी की कहानी नही
ये तरल होने की पीड़ा है
जैसे आंसूओं की यात्रा
छोटी प्रतीत होती है
एक आँख का आंसू दूसरी आँख तक
नही जा पाता है
नाक की दीवार
आंसू की तरलता और वेग को
देखनें नही देती
हर संगत दिखनें वाली वस्तु में छिपी होती है
एक गहरी असंगतता
यदि यह छिपाव नही होता
मनुष्य को बर्दाश्त करना
सबसे मुश्किल काम था।

© डॉ.अजीत

Monday, April 6, 2015

आग्रह

प्रेम आग्रह की विषय वस्तु कब थी
दोस्ती भी नही
परिचय का आग्रह से वैसे भी कोई नाता नही
आग्रह रीढ़ के झुकने का प्रतीक जब से बना
आग्रह मर गया बेमौत
इससे पहले मैं
आग्रह कर पाता
उसनें खारिज की मेरी उपयोगिता
समझ लिया कमजोर
आग्रह इतनी मंद ध्वनि से उच्चारित हुआ कि
खुद मेरे कान भी न सुन पाए
इस दौर में
आग्रह का एक ही अर्थ था
कमजोर और कायर
और दुनिया क्या तो ताकत को पसन्द करती है
या फिर विजेता को
इसलिए
एक तरफ मैं और मेरा आग्रह था अकेला
और दूसरी तरफ थी सारी दुनिया
निस्तेज आग्रह का क्या करता मैं
मैंने उसको रूपांतरित कर दिया
शिकवे शिकायतों में
दुनिया मुझे समझ न पायी
इसी सांत्वना पर जिन्दा हूँ मैं
ये सांत्वना उसी उपेक्षित आग्रह की संतान है
जो रह गया था कभी अनकहा।

© डॉ.अजीत

Friday, April 3, 2015

बारिश और तुम

कुछ नोट्स बारिश के बारें में
-------
एक बूँद के पास
मेरे नाम की एक चिट्ठी थी
कुछ बूंदों ने
उसे पढ़ लिया
आधी हंसी
आधी रो पड़ी
और बारिश हो गई।
***
धरती नाराज है
बादल से
बादल नाराज़ है
हवा से
हवा नाराज़
पहाड़ो से
ये जो बारिश है
ये नाराजगी की पैदाइश है
इसलिए तुम भी
नाराज हो मुझसे
इतनें हसीन मौसम में।
***
बारिश की
एक अच्छी बात
यह भी है
बारिश बहा ले आती है
शिकायतों की गर्द को
तुम्हारे दर से
मेरे दर।
***
टिप टिप पड़ती बूंदे
जैसे तुम्हारी बालियों से होता हुआ
अंखड रुद्राभिषेक
बारिश की हर बूँद
तब लगती
आचमन के जल सी पवित्र।
***
धरती पर जब लिखे जाते है
शिकायत दुःख अवसाद
भिन्न भिन्न लिपियों में
बारिश के बूंदे
आती है उसे धोनें
ताकि दुःखों में
बची रही नवीनता।
***
बारिश में भींगना
नही होता हर बार सुखप्रद
खासकर तब तो
बिलकुल नही
जब आपको भींगकर
आएं छींक
और चाय पिलाने वाला
कोई ना हो।
***
पिछली बारिश के पास
तुम्हारा ऊलहाना था
इस बारिश के पास
तुम्हारी मजबूरी है
अगली बारिश में
मेरे पास केवल छाता होगा
कोई जवाब नही
ध्यान रखना।

© डॉ.अजीत 

Thursday, April 2, 2015

खफा

बात बेहद छोटी थी मगर बड़ी हो गई
जरा सी गलती से जिंदगी खफा हो गई

मिन्नतें बेअसर रही सारी कशिस खो गई
सफर तन्हा रहा मंजिल ओझल हो गई

आँखों में रहें किसी कच्चे ख़्वाब की तरह
नींद पकी भी न थी अचानक सुबह हो गई

गलतफ़हमियों के जब से सिलसिलें निकलें
फांसलो में तब से गजब की सुलह हो गई

मुन्तजिर थी आँखें धड़कनें थी बेआस
पलकों पर आंसूओं की दोपहर हो गई

© डॉ. अजीत 

ग़ुस्सा

'गुस्से के सात युग'
------------------

एक दिन
किसी बात से
आहत होकर
अचानक उसनें कहा
'फ्लाई अवे'
मेरे मन की उड़ान
दिशा भटक गई उसके बाद
उससे दूर उड़ना
पक्षी के लिए भी असम्भव था
मैं तो आखिर इंसान था।
***
एकदिन वो
मुझ पर इतनी उखड़ गई
कि मैसेज किया
यू आर नोट माय फ्रेंड
उस दिन मैं
खुद से अजनबी हो गया
जब उसका दोस्त नहीं हूँ मैं
तो फिर किसका क्या हूँ मैं।
***
ऐसा पहली बार हुआ
ना उसनें फोन उठाया
ना एसएमएस का जवाब दिया
ई मेल पढ़ी हो
इसका भी पता नही
उस दिन प्रार्थना पर आश्रित था मैं
जैसे कोई असाध्य रोगी
आश्रित हो
महामृत्युंजय मंत्र पर।
***
जानता था
उसका गुस्सा जल्दी शांत नही होता
वो तोड़ देती है
सम्बन्धों के सारे कोमल तंतु
बना लेती राय
फिर भी भरोसा था
मान जाएगी जरूर
और हंसेगी
मेरी मूर्खताओं पर
शायद अगले दिन।
***
उसकी अंतिम
सलाह यह थी
हो सके तो भविष्य में
अपनी कायरता कम करने का प्रयास करना
बतौर पुरुष मेरे अह्म को
इस सलाह पर बुरा नही लगा
क्योंकि अपनी अनुपस्थिति में भी
वो साहसी देखना चाहती थी मुझे।
***
जब वो कह देती कि
मुझे कुछ नही सुनना
फिर सच में कुछ नही सुनती थी
मेरी सफाई लौट आती
मुझ तक लाचार
तमाम शब्द सामर्थ्य के बावजूद मैं
पड़ जाता था नितांत अकेला
तब मैं इन्तजार करता
उसके कान ठंडे होने का
फूंक मारता रहता
दुआ पढ़ते मौलवी की तरह।
***
इस बार का गुस्सा
अनापेक्षित था
मगर था बेहद गहरा रोष
उसनें उतनी कड़वी बातें कहीं
जितनी कह सकती थी
और चली गई
मुड़कर भी नही देखा
सदियों से खड़ा हूँ वहीं
ताकि वो लौटें
तो माफी मांग सकूं
ये शिष्टाचार उसी से सीखा था
जो मुसीबत में
कभी काम नही आया मेरे।

© डॉ. अजीत





Wednesday, April 1, 2015

भरम

जनवरी इक्कीस थी शायद
जब तुम्हें देखा ही नही
महसूस किया था
अप्रैल एक है आज
जब दिमाग को बेवकूफ बनाना चाहा
तुम्हारे अपरिहार्य होने के भरम से
दिल फ़रवरी चौदह में ही अटका रहा
पिछले तीन महीनें
बीते हुए तीन युग थे
आज कलयुग का
पहला दिन है मेरा
शुभकामना नही दोगी !
***
अप्रैल
इस बार थोड़ा ठंडा है
मौसम भूल गया है अपना चरित्र
रिश्तों के वातानुकूलित कक्ष में
टंगी है एक खूबसूरत पेंटिंग
एकदम अकेली
मैं धूप में बादल खोजता हूँ
तुम छाँव में धूप।
***
साल दो हजार पन्द्रह
महीना फरवरी
शिलालेख की तरह दर्ज है
जेहन में
इतिहास बनने से पहले
मनोविज्ञान का हिस्सा होता है
हर किरदार
इतिहास बनना संभावनाओं का
मर जाना है शायद
इसलिए
रिश्तों का दस्तावेज़ीकरण
दुनिया का सबसे मुश्किल काम है।
***
तीन महीनें
या बारह हफ्ते
दौड़ता हूँ समय के विपरीत
और खुद के समानांतर
पहूंचता कहीं भी नही
यात्रा एक भरम है या फिर
मेरी गति अपेक्षित नही
चौथा महीना आते ही
हंसता है मेरी चाल पर
मेरे पैरों में
दो अलग नम्बर के जूते देखकर
जिनके फ़ीते बंद है।

© डॉ. अजीत