Friday, April 10, 2015

उदघोषणा

जहां तक जाती है दृष्टि
वो खोजती है
थोड़ा अपनत्व
थोड़ा अधिकार
और ज्यादा प्यार
मनुष्य थोड़ा-थोड़ा पाकर
पाना चाहता है कुछ ज्यादा
एक साथ ज्यादा मिलनें पर
बोझ से क्या तो
झुक सकती है कमर
दुख सकतें है हाथ
या हड़बड़ी में भूल सकतें हैं
सम्भालनें का कौशल
इसलिए मांगतें है अक्सर
थोड़ा...
हां बहुत थोड़ा
अब आपको
क्या कब किस मात्रा में
मिलता है
यह नितांत ही संयोग की बात है
इसका ठीकरा ऊपर वालें पर भी
फोडा जा सकता है
मिलना एक तयशुदा बात है
सम्भालना एक कौशल
और खो देना
एक शाश्वत सच
जो खोनें से बच जातें है
उन्हें अपवाद समझ
मनुष्य काटता है
अपनी हीनता की ग्रन्थि
ईश्वर को कोसना
खुद के सर्वाधिक सुपात्र होने की
एक उदघोषणा भर है
जो कहीं नही सुनी जाती ।

© डॉ. अजीत

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