जिन दिनों तुमसे दूर था मैं
चाँद को बुला लेता था
अपनें सिरहानें
दिखाता था उसे उपग्रह से प्राप्त चित्र
बादलों के छलावे देख
खुलकर हंसता था चांद
उन दिनों
बरसात से मांगता था
थोड़ी सी चटनी उधार
ताकि जीने लायक खा सकूँ रोटी
जिन दिनों तुमसे दूर था
धरती पर पंजो के बल खड़े होकर
देखता था तुम्हारा आना
और धरती अपनी जीभ से
तलवें पर ऐसी गुदगुदी करती
उदासी में भी हंसते हुए
नाचने लगता था मैं
उन दिनों
आवारा खरपतवारों से थी दोस्ती
उनसे सीखता था बेरुखी में जीने की आदत
थोड़ी सी जिद थोड़ा सा जुनून
कल्पना के दीपक पर
निकालता था उम्मीद की स्याही
ताकि आंसूओं के बीच सलामत रहे रोशनी
उन दिनों
तालाब से मांगता था थोड़ा धीरज उधार
नदी में पैर से बनाता था
तुम्हारे घर का मानचित्र
ताकि बहती रहें तुमसें
मिलनें की संभावना
समन्दर की तरफ पीठ करके
फूंकता था सम्मोहन के सिद्ध मंत्र
ताकि वक्त भले ही लगे मगर
नदी की तरह एकदिन
तुम मिलनें आओं जरूर
जिन दिनों तुमसें दूर था मैं
उन दिनों
खुद के इतना नजदीक था कि
तुम्हें एक साथ करते हुए
देख सकता था
मुझसे नफरत और प्यार।
© डॉ.अजीत
चाँद को बुला लेता था
अपनें सिरहानें
दिखाता था उसे उपग्रह से प्राप्त चित्र
बादलों के छलावे देख
खुलकर हंसता था चांद
उन दिनों
बरसात से मांगता था
थोड़ी सी चटनी उधार
ताकि जीने लायक खा सकूँ रोटी
जिन दिनों तुमसे दूर था
धरती पर पंजो के बल खड़े होकर
देखता था तुम्हारा आना
और धरती अपनी जीभ से
तलवें पर ऐसी गुदगुदी करती
उदासी में भी हंसते हुए
नाचने लगता था मैं
उन दिनों
आवारा खरपतवारों से थी दोस्ती
उनसे सीखता था बेरुखी में जीने की आदत
थोड़ी सी जिद थोड़ा सा जुनून
कल्पना के दीपक पर
निकालता था उम्मीद की स्याही
ताकि आंसूओं के बीच सलामत रहे रोशनी
उन दिनों
तालाब से मांगता था थोड़ा धीरज उधार
नदी में पैर से बनाता था
तुम्हारे घर का मानचित्र
ताकि बहती रहें तुमसें
मिलनें की संभावना
समन्दर की तरफ पीठ करके
फूंकता था सम्मोहन के सिद्ध मंत्र
ताकि वक्त भले ही लगे मगर
नदी की तरह एकदिन
तुम मिलनें आओं जरूर
जिन दिनों तुमसें दूर था मैं
उन दिनों
खुद के इतना नजदीक था कि
तुम्हें एक साथ करते हुए
देख सकता था
मुझसे नफरत और प्यार।
© डॉ.अजीत
2 comments:
Acha likhte h Aap
vaah.............
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