Tuesday, September 30, 2014

चुपचाप

चुपचाप चले जाना बेहतर है
शोर के बीच
जैसे
गुमनान जीना बेहतर है
भीड़ के बीच
बेहतर या कमतर की बहस पुरानी है
यह मध्यांतर का बढ़िया विषय है
इसे केंद्र भी समझा जा सकता है
बता कर जाना
कह कर आने की सम्भावना
जिन्दा रखता है
चुपचाप के पदचाप
आधे दिखते है
आधे उड़ जाते है वक्त की गर्द में
न जाने रोज़
कितने लोग चले जाते है
चुपचाप
समेटे कर अपने हिस्से का एकांत
चुपचाप दरअसल एक
तरीका भर है
मन की सीढ़ी से अपनी ही कैद में उतरने का
जहां हमारे सजायाफ्ता अहसास
रोज़ बाट जोहते है हमारी
एक दिन जाना होगा
उस चारदीवारी में
जिसका अभ्यास ध्यानी करते है
जिस दिन चला जाऊं
मै चुपचाप
समझ लेना मै
आधा मौन आधा निशब्द हो
उतर रहा हूँ
अपने अंतर की कैद में
फिर मै लौट कर आऊंगा
ऐसा मेरा इन्तजार मत करना
जीना तुम भी
चुपचाप
ठीक मेरी तरह
इसे  सलाह निवेदन अपेक्षा श्राप
कुछ भी समझ सकती हो
अपने विवेक से निर्णय करना
चुपचाप।
© डॉ. अजीत

Sunday, September 28, 2014

बहानें

सात: बहाने जीने के
--------
सपनें
रोज नही बदलते
कुछ कभी नही बदलतें
कुछ यदा-कदा बदलतें है
सपनों की फितरत
बदलना है
कभी हमें कभी खुद को।
--------
वादें
उम्र के बढ़ने पर
बहुत याद आतें है
जिनको पूरा कर सकते थे
मगर नही कर पाएं।
--------
यादों का
अपना
ब्लैक एंड वाइट
चश्मा होता है
जिनकी मदद से देख पाते है
बूढ़ा अतीत।
---------
खुशी
किस्तों में उधार मिलती है
खर्च होती है
एकमुश्त !
-----------
गम
एक बहाना है
खुद को नायक साबित करने का
रोजमर्रा की जंग की
एक सबसे बड़ी
जरूरत
-----------
नाराजगी
देर तक जिसके हिस्से में
रहती है
वो बन जाता है
लोक सिद्ध।
-----------
संघर्ष
कभी खुद से
कभी जग से
हिसाब नही होता
कभी बराबर।

© डॉ.अजीत

Saturday, September 27, 2014

अक्सर

गलतियाँ करके अक्सर भूला देता हूँ
थोडा सच ज्यादा झूठ मिला देता हूँ

गुनाह का बोझ ताउम्र उठाना है पड़ता
वफा के नाम पर  आँख झुका देता हूँ

तुम्हारी समझदारी कब मेरे काम आई
अपनी नादानी से ही काम चला लेता हूँ

उसकी चालाकियां मुहब्बतों का है सबब
गुस्ताखियों पर मै अक्सर मुस्कुरा देता हूँ

ऐब तमाशा बनें जब से  महफिल में
हुनर अपने सब के सब छिपा लेता हूँ

© डॉ. अजीत

Friday, September 26, 2014

उसकी दुनिया

उसकी दुनिया: जो मेरी दुनिया थी कभी
-----------

उसकी दुनिया का
एक छोटा सा हिस्सा था मै
हिस्सा था भी या नही
यह मेरे आकार जितना
संदिग्ध था हमेशा।
********
उसकी दुनिया
भूगोल की नही
अर्थशास्त्र की दुनिया थी
जहां मै
इतिहास सा विवादित था।
*******
उसकी दुनिया
खुशी का मांग पत्र थी
और मै
उदासी का चक्रवृद्धि ब्याज़।
*****
उसकी दुनिया
सपनों की आढ़त थी
जहां रोज तुलती थी
अपेक्षाओं की फसल
छमाही की उधार।
******
उसकी दुनिया में
बैचेनियों के रतजगे थे
करवटों के जंगल थे
वो नदी थी
बिना पत्थरों की।
*******
उसकी दुनिया
उसकी परिभाषाओं पर
टिकी थी
जिसमें सम्पादन की
गुंजाईश कम थी
वो बिना शर्त उल्टी घूमती थी
अपनी धुरी पर।
*******
उसकी दुनिया
सपने दिखाती थी
जिनका टूटना तय होता
फिर सपने देखने की लत लगती
उसकी दुनिया में।
*******
उसकी दुनिया
मेरी दुनिया से अलग थी
मेरी दुनिया इनकार करती
उससे मिलने से
उसकी दुनिया आवाज़ देती जब
खुद को रोक न पाता मै।
********
उसकी दुनिया में
एक चीज सम्मानीय थी
प्रेम
प्रेम के प्रपंचों से उसे घृणा थी
अव्यक्त प्रेम करना
उसी से सीखा मैंने।
*********
उसकी दुनिया
समय की सत्ता को अस्वीकार करती
भाग्य का उपहास करती
काल गणना को उलट देती
वहां जीवन का मतलब
जीना था
गणना नही।

© डॉ. अजीत


Wednesday, September 24, 2014

महफिल

लाख समझों संवरते जा रहे हो
नजरों से तुम उतरते जा रहे हो

बदलना  दुनिया की फितरत है
हैरत है तुम  बदलते जा रहे हो

दीवानगी में कमी कोई जरुर है
फकीरी में  सम्भलतें जा रहे हो

महफिल में आए थे पीने शराब
पानी खाली तुम पीते जा रहे हो

किरदार की ऊंचाई ले आई कहां
किस्सों से तुम निकलते जा रहे हो

© डॉ. अजीत

Tuesday, September 23, 2014

दुःख-सुख

दस दुःख दस सुख

---------

दुख तलाश लेता है
अपने जैसा दुख
जबकि सुख नही तलाश पाता
अपने जैसा सुख।
-----------

दुख हमेशा होता है अनकहा
कहे गए दुख
सुख के जुडवा बच्चें बन जाते है
अक्सर।
---------
दुख का भार हमेशा
रीढ नही झुकाता
जैसे सुख हमेशा
गर्दन ऊंची नही करता।
-----------
सुख की उम्मीद
दुख को सहने का हौसला है
बिना उम्मीद का दुख
सुख को चाट जाता है।
-----------
दुख सुख की पीठ पर लदकर आता है
मगर टहलता अकेला है
प्रेम के दमे मे रची छाती पर
ऊकडूं बैठकर
आंखों के तालाब मे हाथ धोता है
जिसके छींटे तपते बदन पर
भाप बन उडते रहते है।
----------------
तुम्हारा दुख
मेरे जैसा नही हो सकता
तुम्हारा सुख भी अलग होगा
मगर हमारे दुख की बातें
एक जैसी हो सकती है।
----------
दुख के आंसू
सुख के आंसू से ज्यादा तरल होते है
सुख के आंसू
भोगे हुए दुख
का ब्याज़ होते है।
-----------
आंसू दुख या सुख के नही होते
आंसू होते है
मन की थकावट
का पसीना।
----------------
उदासी का दुख
सुख की मुस्कान
से गहरा होता है
दुख सुख से
इकहरा होता है।
------------
माथे की दरारों में
दुख की सीलन पाई जाती है
और गालों पर
मुस्कान के डिम्पल।

© डॉ.अजीत

Sunday, September 21, 2014

किस्सा

उसकी बातों
किस्सों
और अनुभवों को
सबसे पहले गम्भीरता से न लेना
दोस्तों ने शुरू किया
फिर पत्नि ने
उसके बाद मां-बाप ने
और सबसे बाद उसके बच्चों ने
उसकी गालबजाई को गल्प माना
अपने दौर में वो
इस तरह से खारिज हुआ कि
उसे खुद से ही चार बार पूछना पड़ता
कुछ भी कहने से पहले
ऐसा नही उसकी बातों में
दार्शनिक या साहित्यिक
गुणवत्ता का अभाव था
उसकी बातों में भरपूर रस था
मगर वो समय से तादात्म्य न बना सका
वो क्या तो अतीत में जीता
या भविष्य का नियोजन प्रस्तुत करता
उसके वर्तमान का सबसे
स्याह पक्ष यही था
वो काल गणना में निरक्षर रह गया
उसके पास  समय के षड्यंत्रो के
कुछ चुस्त समाधान थे
मगर उन दिनों वो मौन में था
अन्यथा की एक सीमा से अधिक
अन्यथा लिया गया उसे
एक बुरे दौर में वो
स्पष्टीकरण  की प्रमेय सिद्ध करता पाया जाता
शराब पीने के उसके पास
अकाट्य दार्शनिक तर्क थे
उसने इतनी धीमी गति से सिमटना शुरू किया कि
नजरों से कब ओझल हुआ
किसी को पता न चला
कुछ तलबगार उसे तलाशते
उसके टीले तक पहूंचे
मगर वो नए और पुराने पते को मिला
एक ऐसा नया पता देता
जहां न कोई सवारी पहूँचती
और न खत
पिछले दिनों उसकी एक चिट्ठी मिली
जिस पर एक त्रिकोण बना था
और नीचे एक सपाट रेखा खींची थी
इसके अलवा खत कोरा था
तबसे उस बेफिक्र की
फ़िक्र बढ़ गई है
न जाने कहां और कैसा होगा
ये तो तय है
वो जहां भी होगा
ठीक वैसा ही होगा
जैसा कभी मिला था
पहले दिन।

© डॉ. अजीत

वो

उसकी बातों
किस्सों
और अनुभवों को
सबसे पहले गम्भीरता से न लेना
दोस्तों ने शुरू किया
फिर पत्नि ने
उसके बाद मां-बाप ने
और सबसे बाद उसके बच्चों ने
उसकी गालबजाई को गल्प माना
अपने दौर में वो
इस तरह से खारिज हुआ कि
उसे खुद से ही चार बार पूछना पड़ता
कुछ भी कहने से पहले
ऐसा नही उसकी बातों में
दार्शनिक या साहित्यिक
गुणवत्ता का अभाव था
उसकी बातों में भरपूर रस था
मगर वो समय से तादात्म्य न बना सकी
वो क्या तो अतीत में जीता
या भविष्य का नियोजन प्रस्तुत करता
उसके वर्तमान का सबसे
स्याह पक्ष यही था
वो काल गणना में निरक्षर रह गया
उसके पास  समय के षड्यंत्रो के
कुछ चुस्त समाधान थे
मगर उन दिनों वो मौन में था
अन्यथा की एक सीमा से अधिक
अन्यथा लिया गया उसे
एक बुरे दौर में वो
स्पष्टीकरण  की प्रमेय सिद्ध करता पाया जाता
शराब पीने के उसके पास
अकाट्य दार्शनिक तर्क थे
उसने इतनी धीमी गति से सिमटना शुरू किया कि
नजरों से कब ओझल हुआ
किसी को पता न चला
कुछ तलबगार उसे तलाशते
उसके टीले तक पहूंचे
मगर वो नए और पुराने पते को मिला
एक ऐसा नया पता देता
जहां न कोई सवारी पहूँचती
और न खत
पिछले दिनों उसकी एक चिट्ठी मिली
जिस पर एक त्रिकोण बना था
और नीचे एक सपाट रेखा खींची थी
इसके अलवा खत कोरा था
तबसे उस बेफिक्र की
फ़िक्र बढ़ गई
न जाने कहां और कैसा होगा
ये तो तय है
वो जहां भी होगा
ठीक वैसा ही होगा
जैसा कभी मिला था
पहले दिन।

© डॉ. अजीत

फेसबुक....एक लम्बी कविता



भले ही दिन भर आपको अद्यतन रखने का
त्वरित तकनीकी प्रपंच रचती हो
मगर सच तो यह भी उतना ही है
उखड़े मूड और बेवजह की उदासी में
कोई ख़ास काम की नही है
फेसबुक
इस आभासी दुनिया का
सबसे विचित्र सच यह है कि
यह आपके अकेलपन पर कब्जा करती है
मगर अकेला छोड़ देती है आपका एकांत
यहाँ कहने सुनने बतियाने गपियाने
के तमाम विकल्प होने में बाद भी
बहुत कुछ रह जाता है अनकहा
इस माध्यम के अपने अपराधबोध है
अपनी सीमाएं है
ब्लॉक/अनफ्रेंड होने के अपने डर है
जो पीछा करते है ख्वाबों तलक
यहाँ हरी बत्ती का जला होना
एक सतही आश्वस्ति भर है
जरूरी नही आपके दुखद/सुखद पलों में
ऑनलाइन मित्रों की हमेशा
दिलचस्पी बनी रहें
वो हो सकते है व्यस्त या फिर अनमने
अक्सर मैसेज़ सीन न होने पर
आप भर सकते है खीझ और हताशा से
यह सच है फेसबुक का होना
हमें जोड़े रखता है
थोड़े अपने थोड़े अजनबी मित्रों से
मगर यह नही जोड़ पाता
स्थाई स्मृति के वट वृक्षों से
जिसकी शाखाओं पर
हम मन के बारहमासी सावन में
झूला झूल सके सखा भाव से
भर सकें प्रेम की शर्त रहित पींग
लगभग साल भर में
करीबी चेहरें बदल जातें है
इसलिए ठीक ठीक कहा नही जा सकता
कौन मित्र है कौन अमित्र
यहाँ आपको ठीक वैसे ही भूला जा सकता है
जैसे कभी भूल जाते है लंच करना
या फिर जेब पर कलम लगाना
यदा-कदा
संदेह शंका अविश्वास की विचित्र
प्रयोगशाला दिखती है फेसबुक
कुछ सिद्धो का अनुमान है
मनुष्य को ध्यान मार्ग से भटकाने का यह एक
पश्चिम का तकनीकी षड्यंत्र है
जिन मित्रों ने अपने अकाउंट डीएक्टिवेट क़िए
उनके भजन भी कुछ इससे
मिलते- जुलते थे जाने से पहले
वो यहाँ रहते ब्रेक के महात्म्य पर
प्रवचन किया करते थे
पता नही बाद में खुश रहे होंगे या मौन
मनोवैज्ञानिक इसे जरूरी और गैर जरूरी
दोनों बताते हुए
गजब का भ्रम पैदा कर रहें है
फेसबुक पर सदैव उत्साही नजर आना
एक किस्म की वैचारिक प्रतिबद्धता है
जिससे मित्रगण ऊर्जा लें
करते है अपना अवसाद नियंत्रित
यहाँ मन से दिगम्बर दिखना
कयासों का बीज हो सकता है
या फिर संदेह की बेल
जो नही चढ़ पाती मित्रों की दीवार पर
दरअसल,
फेसबुक एक गुरुत्वाकर्षण मुक्त ग्रह है
जहां हम अपना अपना यान लेकर
पहूंच गए है बिना प्रशिक्षण के
अब उड़ना टकराना बिखरना
हमारा भविष्य हो सकता है
या फिर भूत वर्तमान और भविष्य से परे
कुछ अति उत्साही कुछ सामान्य कुछ निर्वासित
लोगो की बस्ती बनें फेसबुक
और भी व्यापक हो सकता है
यहाँ उपस्थित जनों का वर्गीकरण
फेसबुक के इस नए समाजशास्त्र में
कभी कभी मेरे जैसा भगौड़ा शख्स
विस्मय से भर सोचता है
आखिर क्या चीज़ है यह फेसबुक
विचित्र अकल्पनीय आभासी
मगर सत्य
कुछ कुछ शराब के लत के जैसी
जो मौका मिलते ही तलब की वजह तलाश
लेती है।

© डॉ. अजीत

मुमुक्षु

मेरी गति से तुम डर गई
जबकि मै तो हांफता हुआ
पहूँचा था तुम तक
मेरे कदमों में लडखडाहट थी
तुम रेगिस्तान की मृग मरीचिका
के माफिक दिखी
और मैंने दौड़ना शुरू कर दिया
भूल कर यह कि
डर एक मनोवैज्ञानिक सच है
अनुभवों का
आँखे और मन दोनों
मिलकर जितना देख पाती है
उससे कई गुना होता है अनदेखा
तुम्हारे चेहरा का कौतुहल
डर में तब्दील होता देखा
तब यह जाना
विश्वास भी एक बलात कर्म है
जिसमें सहमति शायद ही कभी बन पाती है
आषाढ़ के आवारा बादल सा
बरस कर बह जाऊँगा जल्द ही
सौंप दूंगा तुम्हे
तुम्हारे हिस्से का एकांत
डरो मत !
मै मुमुक्षु हूँ
छलिया नही।

© डॉ.अजीत

*मुमुक्षु= मोक्ष का अभिलाषी

Saturday, September 20, 2014

गजल

अपने वजूद में सिमटने लगा हूँ मै
कई कई हिस्सों में बंटने लगा हूँ मै

तुम मेरी फ़िक्र न किया करो दोस्त
फिर से वादों से मुकरने लगा हूँ मै

हिज्र के सफर पर जाने वाला हूँ
यादों से तेरी लिपटने लगा हूँ मै

हकीकत इतनी कड़वी क्यों है
डर कर सच निगलने लगा हूँ मै

तबीयत नासाज़ है जिगर खराब
संग तेरे पीने को मचलनें लगा हूँ मै
© डॉ. अजीत

Friday, September 19, 2014

खूबसूरती

ख़ूबसूरती आँखों में
बसती है
मगर यह व्याप्त रहती है
जगह-जगह
किसी एक को कभी नही
कहा जा सकता
सबसे खूबसूरत
कई प्रेमी बोलते है
यह कोरा झूठ
नेत्र सम्पर्क के आत्मविश्वास के साथ
ख़ूबसूरती तरल होती है
यदि ईमानदारी से देखा जाए
भिन्न भिन्न परिस्थितयों में
ख़ूबसूरती बदल जाती है
जो व्यक्ति खूबसूरत दिखता है
एक ख़ास समय में
हो सकता है कुछ समय बाद
वो लगने लगे बेहद सामान्य
यह सामान्य लगना
हमारे मन की एक खूबसूरत चालाकी है
जिसमें आँखों की मदद लेता है वो
यदा-कदा
एक साथ कई खूबसूरत चेहरे देखने पर
हम कन्फ्यूज्ड नही होते
बल्कि सबमें महीन फर्क
करना जानते है
खूबसूरती मन और समय सापेक्ष होती है
इसलिए ख़ूबसूरती की तारीफ़
सावधानी से करनी चाहिए
खूबसूरत व्यक्ति को ठीक ठीक
पता होता है अपनी ख़ूबसूरती का
वो हंसता है या फिर आत्म मुग्ध होता है
ख़ूबसूरती की तारीफ़ सुनकर
तन और मन की ख़ूबसूरती  पर
सहमति नही बन सकती कि
कौन पहले आती है या
चल सकती है दोनों साथ साथ
ख़ूबसूरती की समझ की वजह से
कुछ आत्मविश्वास से भरे रहतें है
तो कुछ ढोंते है उम्र भर हीनता की ग्रन्थि
खूबसूरती भेद करती है
और करना सिखाती है
इसलिए यह
बेहद बदसूरत भी दिखती है
कभी-कभी।

© डॉ. अजीत

Thursday, September 18, 2014

हवा

हवा पेड़ के सारे पत्ते नही हिलाती
वो टोकती है सूखे पत्तों को
थोड़ी इनकार के बाद वो
चल पड़ते है धरती से मिलने
हवा का प्रलोभन एक सम्मोहन है
वो रचती है हरे पत्तो की मदद से संगीत
उनकी फडफडाहट सूखे पत्तो को
उकसाने का प्रायोजन मात्र होता है
बेचारी कमजोर शाखाएं
चाहकर भी नही रोक पाती
अपने कमजोर पुत्रों को
स्पंदन के झटके हवा लगाती
पत्तो के कान में गुदगुदी करती
फिर सबसे कमजोर पत्ते
खुद को अलग कर नाचते हुए
जमीन की तरफ बढ़ते
थोड़े बेहोश थोड़े बेफिक्र
उनकी कलाबाजी पर हरे पत्ते
झूठे गीत गाते या फिर
उनकी भावुक मूर्खता पर
तालियां बजाते
ये जो हवा की सरसराहट से
पत्तो का हिलना हम देखतें है
वो हवा के षड्यंत्र और
हरे पत्तो की मूक सहमति का
विजयनाद होता है
सूखे पत्ते कभी नही जान पाते
ये सब
क्योंकि उनका
सम्मोहन तब तक रहता है
जब तक पत्ते गीली जमीन में न धंस जाएं
और पेड़
वो अक्सर हवा से रहता है नाराज़
हवा सुहावनी होने के बाद भी
भंग करती है उसका एकांत
सुहानी हवा का यह एक क्रूर पक्ष है
जिसे जानने के लिए
पेड़ होना पड़ता है
सूखे पत्ते जेब में रख
सोना पड़ता है भूखे पेट
तब नींद में खुलता है यह सब भेद
इनदिनों हवा अच्छी नही लगती
जिसकी वजह मौसम नही
हवा की ये चालाकियां है।
© डॉ.अजीत 

Wednesday, September 17, 2014

खफा

यादें बड़ी सजा होती है
भूलना भी दवा होती है

हमें आजमाना छोडिए
बेमतलब भी वफा होती है

इश्क मर्ज ही ऐसा है
दर्द खुद दुआ होती है

सपनें बेचकर अपने
रोशन शमां होती है

अंदाजे गलत ही लगते है
किस्मत जब खफा होती है
© डॉ.अजीत

Tuesday, September 16, 2014

इज़ाजत

जो हो इजाजत...
----------

जो हो इज़ाजत तो
कुछ देर सुबकता रहूँ
तेरी गोद में
शिकायत करते
बच्चे की तरह।

-------------
जो हो इज़ाजत
सपनों को तकसीम करूं
तमन्नाओं को जमा- नफ़ी करूं
और हासिल आए
सिफर ।
---------------
जो हो इज़ाजत तो
तेरी कान की बालियों
की घंटी बजा
कान में फूंक दूं
महामृत्युंजय मंत्र।
------------------
जो हो इज़ाजत
तेरे हाथ पर अपना हाथ
रख दूं पल दो पल
ताकि रेखाएं
अपने रास्ते मिला
बना सके कोई मानचित्र।
-------------------
जो हो इज़ाजत
पूछूं तेरा पता
अधूरे तसव्वुर और
अपनी चाहतों के
खत रवाना करूं
बैरंग।
-----------------
जो हो इज़ाजत
तेरी आँखों से
गुफ्तगू करूं
पलकों की खिड़कियाँ हो
काजल के रास्ते हो
और
सपनों की चादर।
-----------------
जो हो इज़ाजत
तेरी मुस्कान
उधार लूं
हंसी बाँट दूं
आंसू सोख लूं
उदासी ओढ़ लूं
कभी-कभी।

© डॉ.अजीत

सात बातें

तुम्हारी सात बातें
-----------------

तुम और तुम्हारी बातें
समझने की नही
जीने की चीज़ है
जबकि
मै हमेशा करता हूँ
ठीक इसके उलटा।
*******
तुम्हारी बातों में
सिलवट देखता हूँ जब
तुम मुस्कुरा पड़ती हो
बेपरवाह
आँखे झूठ बोलना
कब सीख पाएंगी
इसकी परवाह करो।
********
कभी कभी तुम
चुप हो जाती हो
कम बोलने के बाद
यह चुप्पी
सबसे ज्यादा डराती है
मुझे।
************
तुम्हारे खतों की स्याही
बता देती है कि
तुमने बोल-बोल कर
लिखें है
ये खत।
*************
लब और
ज़बान के बीच
अटके शब्दों का
शब्दकोश तैयार करना
कभी फुरसत मिले तो
किसी के तो
काम आएगा
कभी।
**********
तुम्हारी बातें
सिर्फ तुम्हारी बातें है
उनमे दुनिया का हिस्सा नही
यह सबसे अच्छी बात है
इन बातों की
जो तुम्हें नही पता।
***********
बातें कितना बड़ा
सहारा बन जाती है
काम करती है
दवा के माफिक
जब सिर्फ और सिर्फ
तुम्हारी बातें
सोचता हूँ
अवसाद/खुशी के पलों में।

© अजीत

Friday, September 12, 2014

ढलान

मत समझिए  आसमान पर हूँ
दोस्तों इन दिनों ढलान पर हूँ

ना जाने किस की जान लूँगा
फिर से वक्त की कमान पर हूँ

तुम क्या परख सकोगे मुझे
जन्म से ही इम्तिहान पर हूँ

शोहरतें न रास आई फकीर को
जिन्दा मुफलिसी के गुमान पर हूँ

सफर में मुलाक़ात की उम्मीद नही
मंजिल की आख़िरी थकान पर हूँ

© अजीत



गजल

खुद को यूं भी आजमाना चाहिए
बेवजह भी जीना आना चाहिए

दुश्मनों का जिक्र नही करता अब
दोस्तों को भी  भूल जाना चाहिए

कातिल मेरे ने जुल्म क़ुबूल किया
गवाह को अब मुकर जाना चाहिए

नाराजगी में भी दुआ भेज दी उसने
मर्ज़ तुम्हारा  ठीक हो जाना चाहिए

मयकदे में सहारा देने लगे है लोग
महफिल से अब  उठ जाना चाहिए

© अजीत

Thursday, September 11, 2014

गजल

किसी को और सताना नही चाहता
खुद बारें में कुछ बताना नही चाहता

खुश रहना अच्छी आदत बताते है
खुश रहें कैसे  कोई ये नही बताता

अहसानों का जिक्र करते है सब
गैरतमंद यूं भी तलब नही जताता

दुआओं में असर  नही रहा अब
फकीर अलख जगाने नही जाता

हंसते-हंसते आँख भर आए मेरी
कोई अब ऐसा किस्सा नही सुनाता

© अजीत

Wednesday, September 10, 2014

निशब्द

जब समाप्त होने को था प्रेम का आरक्षण
तब तुम वर्गीकृत हुए वंचितो में
जब लड़ाई बाहर से ज्यादा  अंदर की थी
तब तुमने सोचा लड़ने के बारे में
जब भाषा जूझ रही थी अपनी पहचान के लिए
तब तुमने अपनी बोली में लिखा प्रेम पत्र
जब रोने में हास्य तलाशा जा रहा था
तब निकले तुम्हारे आंसू
जब प्रेमी का भावुक होना अनिवार्य नहीं था
तब तुम अभिमान में रहे भावुकता के
जब धरती पर लेटा चाँद  आसमान को चिढ़ा रहा था
तब तुम तारों की भाषा सीख रहे थे
जब पहाड़ ऊकड़ू बैठा मन्त्र फूंक रहा था
तब तुम नदियों का मिलन देख रहे थे
तुम समय से आगे थे या पीछे
यह बता पाना मुश्किल है
क्योंकि आज भी
प्रेम तुम्हे चौंकता नही है
अवसाद रुलाता नही है
धोखा समझाता नही है
तुम आज भी उतने ही आत्मविश्वास से
लिख सकते हो
प्रेम कवितायेँ
नदियों के गीत
दरख्तो के उलाहने
साँझ की उदासी
भेज सकते हो एक  गुमसुम मैत्री निवेदन
तुमने रोने और हंसने के मध्य का
एक भाव विकसित कर लिया है
जिसकी कोई भाव-भंगिमा नही है
इसलिए लोग हमेशा
इसी अचरज में रहते है कि
तुम खुश हो या दुखी
इस अचरज पर कभी
तुम्हे कुछ कहते लिखते नही देखा
बस देखा है हमेशा
समय के आर-पार
या फिर आगे-पीछे
टहलते हुए
कभी मौन तो कभी निशब्द.

© अजीत

Tuesday, September 9, 2014

जन्मदिन

जन्म दिन पर...

बत्तीस पार: मै सवार
---------

एक यात्रा शुरू होती है
दूसरी खत्म
सफर में रहना
मनुष्य होने का दुःख है
जिस सुख समझा जा सकता है।

********
त्वचा और कोशिका की आयु से
उम्र का सही अंदाजा लग सकता है
ऐसा विज्ञान कहता है
उम्र का अंदाजा प्रयोगशाला से नही
एक छोटी सी बात से लग जाता है
अगर आप समझना चाहें तो।
**********
उम्र का बढ़ना
अनुभव का बढ़ना नही होता
अनुभव बढ़ाने के लिए
उम्र को घटाना पड़ता है
खुद से।
**********
तीस और चालीस के मध्य
झूलता हूँ ऐसे
जैसे झूलते है
सूरज चाँद के मध्य
अनगिनत तारें।
*********
जन्म का कोई एक दिन
कैसे हो सकता है
जन्म भी मृत्यु जितना
अनिश्चित होता है
विचित्र संयोगो से भरा।
********
जन्म पर उल्लास
मृत्यु पर अवसाद
मनुष्य को बहाने चाहिए
मनुष्य बनें रहने के।
**********
यदि उम्र का निर्धारण
जन्म से नही यात्रा से होता
फिर उम्र न पूछी जाती
हर कोई दिखता
अपनी भौतिक उम्र से
छोटा-बड़ा।
**********
हम उम्र कोई नही होता
लोग या तो बड़े होते है
या फिर छोटे
दोस्ती हम उम्र दिखने का
सबसे बड़ा भ्रम है।
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जन्म को देखा नही जाता आते हुए
मृत्यु को देख सकते है
इसलिए
मृत्यु खूबसूरत
हो सकती है।
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जन्मदिन पर जुड़ जाते है
शुभकामनाओं के बादल
बरस जाते तो
भीग सकता था
मै दिगम्बर।

© अजीत

Monday, September 8, 2014

गुफा

तुम्हारे एकाधिकार
के आयत में
एक भी समकोण
मेरा नही है
तुम्हारे वृत्त की त्रिज्या
मेरे व्यास से बड़ी है
हमारे सम्बन्धों का वर्गमूल
सदा विषम ही आता है
तुम्हारे समानांतर रेखा खीचने के बाद भी
तुम छोटी नही पड़ती
मन की ज्यामिति
इतने अक्षांशों में बटी है कि
तुम्हारी समीकरण सुलझाते समय
हर बार बीजगणित सा सपाट होना पड़ता है
नही चाहा था कभी तुम्हें
गणित के उप विषयों सा पढ़ना
देखा था हमेशा
तुम्हारी आँखों में सवेरा
मुस्कान में रोशनी
हंसी में नदी
उदासी में पहाड़
सवालों में झरनें
इस जंगल को गणित में तब्दील होते देखना
सदी का सबसे बड़ा सदमा है
गणित और जंगल साथ नही चल सकते
एक निश्चित है
दूसरा परिवर्तनशील
इसलिए लौट रहा हूँ
उस गुफा में
जहाँ न विज्ञान जाता है
न आध्यात्म
और न तुम्हारे कोरे अनुमान
चढ़ रहा हूँ उलटे कदमों से
तुम्हें देखते हुए
यह दिशा अनुमान की
कोई गणितीय कमजोरी नही है
बल्कि यह तुम्हें देखते हुए
भूलने का एक सिद्ध प्रयास है।

© अजीत

Saturday, September 6, 2014

मिलाप

उन लोगो के फोन नम्बर नही है पास
जिनसे तलब की हद तक
बात करने की इच्छा होती है
उन लोगो के पते नही है पास
जिन्हें चिट्ठी लिखने का होता है
लगभग रोज मन
उन लोगो से मिलने की नही है कोई आस
जिनसे मिलना
सांसो जितना जरूरी लगता है
ऐसे लोगो की एक छोटी सी
फेहरिस्त है अपने पास
जिसमें कच्ची पेंसिल से
नाम लिखता-मिटाता रहता हूँ
जो प्राप्य नही है
उसकी आस एक झूठा
छल है खुद से
अपमान है उन लोगो का
जिनसे रोज होती है बात
जिन्हें लिखता रहा हूँ खत
जिनसे होती रही है मुलाक़ात
मगर फिर भी
इस छल और अपमान के बीच
बुनता रहा हूँ
कुछ वाहियात कल्पनाएँ
बांटता रहा हूँ आश्वस्ति के कोरे झूठ
और अधूरे निमन्त्रण पत्र
जीता रहा हूँ खुद के अंदर
दस-बीस आदमी
दरअसल बात यह है
हर अजनबी से मुलाक़ात के बाद
रूचि के केंद्र बदल जाते है
इसलिए मेल मिलाप से बचता हुआ
यूं ही लोगो की जोड़-तोड़ गुणा-भाग में
रिश्तें को जीने की आदत सी हो गई है
किसी से भी मिलना
सबसे पहले
उसे खो देने का उपक्रम लगता है
इसलिए जिनसे मिलता हूँ
उनसे मिलना नही चाहता
जिनसे मिलना चाहता हूँ
उनसे खुद नही मिलता
समय और परिस्थिति दो बढ़िया बहाने है
जिनके सहारे जीवन को
छद्म अभिमान के साथ काटा जा सकता है
किसी से मिलने और न मिलने की वजह
लगभग समान होती है
यकीनन।

© अजीत


Friday, September 5, 2014

गजल

किस्सें गमों के हम किस को सुनाते
दोस्त उदासी को अच्छी नही बताते

हर वक्त हंसते रहना मुश्किल बहुत है
लबों के जख्म तुम्हें नजर नही आते

एक मुद्दत से खुद से खफा हूँ दोस्त
छोटी सी बात समझ क्यों नही जाते

हैरत में हूँ अब तलक उम्मीदजदां हो
औरो की तरह  बदल क्यों नही जाते

अरसे बाद मिलने जब आ ही गए हो
कुछ रोज इधर ठहर क्यों नही जाते

© अजीत 

Monday, September 1, 2014

गजल

मुस्कान पर रोज गजल होती है
बेरुखी पर आँख सजल होती है

कुछ गलतियाँ  भी हुई हमसें
माफी की रोज पहल होती है

चाहतों का सूद बढ़ता जाता है
तमन्नाएं यूं भी असल होती है

तेरी साफगोई से ऐतराज़ इतना है
परदादारी इश्क का शगल होती है

तुझे कौन खरीद सकता है भला
बिकती है वही जो नकल होती है

© अजीत



समय

वक्त पर भारी कुछ दिमागी फितूर
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चौबीस घंटे में
सबसे मुश्किल वक्त होता है
शाम का
इधर सूरज डूबता है
उधर मै लेटता हूँ
खुद की कब्र में
सूरज को नही पता
रोज मुझे मारता है
रोज जिन्दा करता है
सूरज से मै इसलिए भी
खफा नही हो सकता
शाम उसका नही
समय का दोष है
शाम की रूमानियत का एक पहलू यह भी है
जान लीजिए आप।

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दिन और रात
जैसे
दो शख्स है मेरे अंदर
एक साधु
एक सांसारिक
इन दोनों के बीच
मेरी साधना
इन्सान बने रहने की है
इसे कम बड़ी साधना न समझें
शायद ही मृत्यु तक
मै सिद्ध हो पाऊं।

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सुबह देर से बिस्तर से
उठना अवसाद की एक
निशानी है
ऐसे दुनिया के तमाम
मनोवैज्ञानिक कहते है
मैं कहता हूँ
यह एक गुप्त तैयारी भर है
कुछ सम्वेदनशील लोगो की
जिन्हें  रोज लड़ना होता है
एक युद्ध
अंदर -बाहर से।
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दिन में सो सकते है
अति सुखी या अति दुखी जीव
इनके मध्य के
लिखते है
दोपहर में कविता
जिसे पढ़ शाम
अक्सर उदास
हो जाया करती है।
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समय मनुष्य का बनाया
एक हसीन धोखा है
यह अच्छा या बुरा नही होता
यह क्रुर भी नही होता
समय होता भी है
यह कहना अभी संदिग्ध होगा
दरअसल
दिन रात सुबह दोपहर  शाम इन सबकी
वैज्ञानिक वजह है
परन्तु समय को न देख पाने की वजह
वैज्ञानिक नही
मन की है
आध्यात्मिक या मनोवैज्ञानिक तो
बिलकुल नही।
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समय बदलने की सांत्वना
मनुष्य की लोकप्रिय युक्ति है
शुभचिंतक बनने की
भला वक्त भी कभी
मनुष्य जैसे मामूली जीव के लिए
बदलता है
हम जरुर बदल जाते है
समय के हिसाब से
मनुष्य को मजबूर या विजेता देखना
समय का पुराना शौक रहा है।
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समय उन षड्यंत्रो का
हिस्सा बना दिया जाता है
जिसे रचते है नियति और प्रारब्ध मिलकर
समय को खुद पता नही होता है कि
उसका प्रयोग कर लिया गया है
वो तो बेचारा काल गणना के अहंकार में
खुद को हमेशा शिखर पर
देखने का आदी होता है
इसलिए नही कहना चाहिए
अपना समय खराब है।

© अजीत