Wednesday, September 10, 2014

निशब्द

जब समाप्त होने को था प्रेम का आरक्षण
तब तुम वर्गीकृत हुए वंचितो में
जब लड़ाई बाहर से ज्यादा  अंदर की थी
तब तुमने सोचा लड़ने के बारे में
जब भाषा जूझ रही थी अपनी पहचान के लिए
तब तुमने अपनी बोली में लिखा प्रेम पत्र
जब रोने में हास्य तलाशा जा रहा था
तब निकले तुम्हारे आंसू
जब प्रेमी का भावुक होना अनिवार्य नहीं था
तब तुम अभिमान में रहे भावुकता के
जब धरती पर लेटा चाँद  आसमान को चिढ़ा रहा था
तब तुम तारों की भाषा सीख रहे थे
जब पहाड़ ऊकड़ू बैठा मन्त्र फूंक रहा था
तब तुम नदियों का मिलन देख रहे थे
तुम समय से आगे थे या पीछे
यह बता पाना मुश्किल है
क्योंकि आज भी
प्रेम तुम्हे चौंकता नही है
अवसाद रुलाता नही है
धोखा समझाता नही है
तुम आज भी उतने ही आत्मविश्वास से
लिख सकते हो
प्रेम कवितायेँ
नदियों के गीत
दरख्तो के उलाहने
साँझ की उदासी
भेज सकते हो एक  गुमसुम मैत्री निवेदन
तुमने रोने और हंसने के मध्य का
एक भाव विकसित कर लिया है
जिसकी कोई भाव-भंगिमा नही है
इसलिए लोग हमेशा
इसी अचरज में रहते है कि
तुम खुश हो या दुखी
इस अचरज पर कभी
तुम्हे कुछ कहते लिखते नही देखा
बस देखा है हमेशा
समय के आर-पार
या फिर आगे-पीछे
टहलते हुए
कभी मौन तो कभी निशब्द.

© अजीत

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

उम्दा रचना हमेशा की तरह ।