Tuesday, September 30, 2014

चुपचाप

चुपचाप चले जाना बेहतर है
शोर के बीच
जैसे
गुमनान जीना बेहतर है
भीड़ के बीच
बेहतर या कमतर की बहस पुरानी है
यह मध्यांतर का बढ़िया विषय है
इसे केंद्र भी समझा जा सकता है
बता कर जाना
कह कर आने की सम्भावना
जिन्दा रखता है
चुपचाप के पदचाप
आधे दिखते है
आधे उड़ जाते है वक्त की गर्द में
न जाने रोज़
कितने लोग चले जाते है
चुपचाप
समेटे कर अपने हिस्से का एकांत
चुपचाप दरअसल एक
तरीका भर है
मन की सीढ़ी से अपनी ही कैद में उतरने का
जहां हमारे सजायाफ्ता अहसास
रोज़ बाट जोहते है हमारी
एक दिन जाना होगा
उस चारदीवारी में
जिसका अभ्यास ध्यानी करते है
जिस दिन चला जाऊं
मै चुपचाप
समझ लेना मै
आधा मौन आधा निशब्द हो
उतर रहा हूँ
अपने अंतर की कैद में
फिर मै लौट कर आऊंगा
ऐसा मेरा इन्तजार मत करना
जीना तुम भी
चुपचाप
ठीक मेरी तरह
इसे  सलाह निवेदन अपेक्षा श्राप
कुछ भी समझ सकती हो
अपने विवेक से निर्णय करना
चुपचाप।
© डॉ. अजीत

1 comment:

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत कुछ कह दिया । कभी कुछ नहीं कहते हो वैसे जो भी कहना होता है यहीं कविता में लिख देते हो :)