Saturday, September 27, 2014

अक्सर

गलतियाँ करके अक्सर भूला देता हूँ
थोडा सच ज्यादा झूठ मिला देता हूँ

गुनाह का बोझ ताउम्र उठाना है पड़ता
वफा के नाम पर  आँख झुका देता हूँ

तुम्हारी समझदारी कब मेरे काम आई
अपनी नादानी से ही काम चला लेता हूँ

उसकी चालाकियां मुहब्बतों का है सबब
गुस्ताखियों पर मै अक्सर मुस्कुरा देता हूँ

ऐब तमाशा बनें जब से  महफिल में
हुनर अपने सब के सब छिपा लेता हूँ

© डॉ. अजीत

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