Sunday, September 21, 2014

फेसबुक....एक लम्बी कविता



भले ही दिन भर आपको अद्यतन रखने का
त्वरित तकनीकी प्रपंच रचती हो
मगर सच तो यह भी उतना ही है
उखड़े मूड और बेवजह की उदासी में
कोई ख़ास काम की नही है
फेसबुक
इस आभासी दुनिया का
सबसे विचित्र सच यह है कि
यह आपके अकेलपन पर कब्जा करती है
मगर अकेला छोड़ देती है आपका एकांत
यहाँ कहने सुनने बतियाने गपियाने
के तमाम विकल्प होने में बाद भी
बहुत कुछ रह जाता है अनकहा
इस माध्यम के अपने अपराधबोध है
अपनी सीमाएं है
ब्लॉक/अनफ्रेंड होने के अपने डर है
जो पीछा करते है ख्वाबों तलक
यहाँ हरी बत्ती का जला होना
एक सतही आश्वस्ति भर है
जरूरी नही आपके दुखद/सुखद पलों में
ऑनलाइन मित्रों की हमेशा
दिलचस्पी बनी रहें
वो हो सकते है व्यस्त या फिर अनमने
अक्सर मैसेज़ सीन न होने पर
आप भर सकते है खीझ और हताशा से
यह सच है फेसबुक का होना
हमें जोड़े रखता है
थोड़े अपने थोड़े अजनबी मित्रों से
मगर यह नही जोड़ पाता
स्थाई स्मृति के वट वृक्षों से
जिसकी शाखाओं पर
हम मन के बारहमासी सावन में
झूला झूल सके सखा भाव से
भर सकें प्रेम की शर्त रहित पींग
लगभग साल भर में
करीबी चेहरें बदल जातें है
इसलिए ठीक ठीक कहा नही जा सकता
कौन मित्र है कौन अमित्र
यहाँ आपको ठीक वैसे ही भूला जा सकता है
जैसे कभी भूल जाते है लंच करना
या फिर जेब पर कलम लगाना
यदा-कदा
संदेह शंका अविश्वास की विचित्र
प्रयोगशाला दिखती है फेसबुक
कुछ सिद्धो का अनुमान है
मनुष्य को ध्यान मार्ग से भटकाने का यह एक
पश्चिम का तकनीकी षड्यंत्र है
जिन मित्रों ने अपने अकाउंट डीएक्टिवेट क़िए
उनके भजन भी कुछ इससे
मिलते- जुलते थे जाने से पहले
वो यहाँ रहते ब्रेक के महात्म्य पर
प्रवचन किया करते थे
पता नही बाद में खुश रहे होंगे या मौन
मनोवैज्ञानिक इसे जरूरी और गैर जरूरी
दोनों बताते हुए
गजब का भ्रम पैदा कर रहें है
फेसबुक पर सदैव उत्साही नजर आना
एक किस्म की वैचारिक प्रतिबद्धता है
जिससे मित्रगण ऊर्जा लें
करते है अपना अवसाद नियंत्रित
यहाँ मन से दिगम्बर दिखना
कयासों का बीज हो सकता है
या फिर संदेह की बेल
जो नही चढ़ पाती मित्रों की दीवार पर
दरअसल,
फेसबुक एक गुरुत्वाकर्षण मुक्त ग्रह है
जहां हम अपना अपना यान लेकर
पहूंच गए है बिना प्रशिक्षण के
अब उड़ना टकराना बिखरना
हमारा भविष्य हो सकता है
या फिर भूत वर्तमान और भविष्य से परे
कुछ अति उत्साही कुछ सामान्य कुछ निर्वासित
लोगो की बस्ती बनें फेसबुक
और भी व्यापक हो सकता है
यहाँ उपस्थित जनों का वर्गीकरण
फेसबुक के इस नए समाजशास्त्र में
कभी कभी मेरे जैसा भगौड़ा शख्स
विस्मय से भर सोचता है
आखिर क्या चीज़ है यह फेसबुक
विचित्र अकल्पनीय आभासी
मगर सत्य
कुछ कुछ शराब के लत के जैसी
जो मौका मिलते ही तलब की वजह तलाश
लेती है।

© डॉ. अजीत

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