Sunday, December 24, 2017

प्रशंसा

लिखे हुए में आप
अपने मतलब की चीजें निकाल लेते है
और कर देते है तारीफ़

ऐसे में जो बचा रहा जाता है ऐसा
जो आपके मतलब का नही था
मगर मेरे जरिए जो हुआ प्रकट
वो घेरता है मुझे एकांत में
करता  है प्रश्न पर प्रश्न

मैं थक जाता हूँ देता हुआ जवाब
मगर वो नही सुनता मेरी कोई सफाई
और  कोसता हुआ मुझे
हो जाता है नेपथ्य में विलीन

जितना लिखता हूँ मैं
वो सब उन्हीं उपेक्षित शब्दों और भावों के
अपराध से मुक्ति होती है एक कोशिश
मगर हर बार बच जाता है ऐसा कुछ
जिसे नही मिलती आपकी तारीफ़
इसलिए कभी खत्म नही होता
मेरे लिखने का क्रम

आप जिसे कहते है बहुत अच्छा
वो मैं पढ़ नही पाता हूँ
क्योंकि
मैं लगा रहता हूँ उनकी मनुहार में
जो अच्छा था
मगर खो गया अधिक अच्छे की भीड़ में

मेरी प्रशंसा की तृष्णा इसलिए नही होती शांत
क्योंकि कोई प्रशंसा नही आती मुझ तक अकेले.

©डॉ. अजित 

Monday, December 11, 2017

कौशल

कवि की प्रार्थना
होती है निस्तेज
इसलिए
कवि देता है केवल श्राप
कविता कवि का श्राप है
जिसका भोग्याकाल होता है
सबके लिए अलग-अलग
कवि से वरदान की मत कीजिए कभी कामना
वो सौंप देगा अपनी कविता वरदान की शक्ल में
और आप नही कर पाएंगे यह तय
किस तरह से बरती जाए यह कविता
कवि से मत करना प्रेम
कवि से मत करना घृणा
कवि को देखना कभी प्रेम से
कभी घृणा से एक साथ
कवि ईश्वर का दूत नही है
वो मनुष्यता का भेदिया है
जो भेजता है रोज रपट
शत्रु मन को
अचानक आए आक्रमण
कवि और कविता का षड्यंत्र कहे जा सकते है
जिन्हें बाद में समझा गया खुद से प्रेम
कवि से कभी मत मिलना
कवि से मिले तो
हो जाएगा मुश्किल
खुद से मिलना
कविता से मिलना
मन के मौसम को छोड़कर
वो थाम लेगी हाथ
हर मुश्किल वक्त में
कविता को निकाल लेना कवि के भंवर से
बतौर मनुष्य यही होगा तुम्हारा बड़ा निजी कौशल.
@ डॉ. अजित

Tuesday, December 5, 2017

एकांत की कविताएँ

एकांत की कविताएँ
--
दो बिन्दुओं के संधिस्थल
जैसा सूक्ष्म होता है
वास्तविक एकांत
जहाँ पसरी होती है
एक आत्मिक शांति
ये होता है बेहद संक्षेप
इसलिए कोई भी विस्तार
एकांत के साथ होती है
एक नियोजित छेड़छाड़
एकांत को बचाने के लिए
अक्सर जरूरी होता है
एक जगह रुके रहना.
**
खुद से बात करता मनुष्य
प्रतीत होता है आधा पागल
खुद से बात करने के लिए
जरूरी है आधा पागल होना
और दुनिया से बात करने के लिए
पूरा पागल.
**
एकांत में भी
रहता है कोई साथ सदा
एकांत की यही होती है ख़ूबसूरती
भले कोई रहे साथ भी
नही होती इच्छा
उससे बतियाने की
इस तरह से एकांत हुआ
दोहरा एकांत.
**
अकेलापन पूछता है सवाल
एकांत देता है जवाब
दोनों को देखकर
मुस्कुराता है मन
तीनों को समझकर
मनुष्य करता है विश्वास
इसलिए भी नही होता है स्वीकार
छल पर कोई स्पष्टीकरण
**
उसने पूछा
क्या तुम्हारे एकांत में दाखिल हो सकती हूँ मैं
मैंने कहा-नही
फिर वो दाखिल हुई
और मुझे बोध न हुआ
एकांत में दाखिल होने की अनुमति माँगना
एकांत का अपमान है
और बिन पूछे दाखिल होना एक कौशल.


© डॉ. अजित  

Wednesday, November 22, 2017

अकेलेपन की कविताएँ

अकेलेपन की कविताएँ
--
मैं इतना अकेला हूँ कि
करवट लेने पर
शरीर का दूसरा हिस्सा
आहत और उपेक्षित महसूस करता है
मेरी मां के अलावा
मेरा बिस्तर जानता है
मेरा ठीक-ठीक बोझ
**
एकांत का अर्थ  दुःख नही
अवसाद भी नही
एकांत का अर्थ
जो निकालते है
वो एकांत से नही
अकेलेपन से पीड़ित है.
**
अकेला होना
पहले दुःख लगा
फिर त्रासद
बाद में अकेले में
वैसा लगने लगा
जैसा कभी लगता था
प्रेम में.
**
नितांत अकेला
कम रहा हूँ मैं
मेरा साथ रही है
उसकी स्मृतियाँ
जो मेरे बाद
नही रहा
कभी अकेला
**
मैं अकेला था
इस कथन में है
व्याकरण दोष
अकेला कोई
कभी अकेला नही होता
उसे अकेला समझा जाता है तब
जब वो कहता है
मैं अकेला हूँ
**
कल जब
तुम साथ थी
हम अकेले नही थे
मगर
मैं और तुम थे
दोनों बेहद अकेले.
© डॉ. अजित


Monday, November 13, 2017

अच्छे लोग

अच्छे लोगों से जुड़ी स्मृतियां
बहुत छोटी होती है
जैसे ही वो होते है
अनुपस्थित
धीरे-धीरे
साथ छोड़ जाती है उनकी बातें

अच्छाईयां तो छोड़िए
बमुश्किल याद आता है उनका कोई ऐब
वो हमारे जीवन से
कुछ इस तरह से हो जाते है विलुप्त
जैसे खो जाती है कोई प्रिय चीज़

अच्छाई वैसे तो बहुत व्यक्तिगत विषय है
मगर अच्छे लोग धुल जाते है एकदिन
कपड़े के मैल की तरह
जीवन के उजास के पीछे
छूटे हुए मैल का हाथ होता है
मगर कोई जानता है यह लघु इतिहास

अच्छे लोगों में एक होती है खराबी
वो लौटकर नही मिलते दोबारा
जैसे वो आएं ही थे जाने के लिए
यहां जाने से मृत्यु का आशय मत निकालिएगा

अच्छे लोग कभी मरतें नही है
या हम नही जान पाते उनका मरना
बस अच्छे लोग चलें जाते है
एक दिन चुपचाप
यकायक।

©डॉ. अजित

Saturday, November 11, 2017

रसोई

रसोई से आती
खाने की खुशबू में
शामिल होती है
बहुत सी अनिच्छा से भरी
तैयारियां
चुनाव की दुविधाएं
पसन्द-नापसन्द के
ज्ञात-अज्ञात आग्रह

रसोई के बर्तन जानते है
मन:स्थिति का ठीक-ठीक चित्र
सिंक के किनारे रखा जूना
रोज़ पढ़ता है
स्त्री की भाग्य और हृदय रेखा की लड़ाई

रसोई की नमी जानती है
स्त्री के मन की तरलता का स्तर
रसोई के छोंक का धुआं
रोज़ छोड़ आता अशुभता को
आसमान की देहरी तक
जिसे देख जल उठते है
लोक ऋषियों के हवन कुंड

रसोई में खड़ी स्त्री
करती है यात्रा एक साथ कई कई लोक की
परकाया प्रवेश के लिए सिद्ध स्थान है रसोई
सम्भव है एक चुटकी हल्दी डालते वक्त स्त्री को
याद आ जाएं पिता
और प्याज़ छीलते वक्त याद आ जाए मां

चाय छानते वक्त याद आ जाए
कोई पुराना साथी
या फिर वो बड़बड़ाती रहे सब पर
और भूल जाने की करे कोशिश सबकुछ

रसोई को दूर देखना आसान है
जैसे मैं देख रहा हूँ
लेटा हुआ अपने बिस्तर पर
रसोई में खड़े होना
अंतरिक्ष यान में खड़े होने के बराबर है
जहां सबसे पहले
खोना होता है अपना गुरुत्वाकर्षण

रसोई से जो दुनिया दिखती है
वो घूमती नही है
वो थमी हुई है एक जगह मुद्दत से
इसलिए
स्त्री को नही होता है लेशमात्र भी दृष्टिदोष
वो ठीक ठीक देख पाती है
अपनी और अपनों की
दशा और दिशा एकसाथ।

©डॉ. अजित

Thursday, November 9, 2017

बदलाव

उसने कहा
तुम बदल गए हो कवि
 मैं नही चाहती थी
स्थिर प्यार की तरह
तुम बने रहो एक जैसे हमेशा
इसलिए तुम्हारा बदलना
मुझे खराब नही लगा
एकदिन हम सबको
बदलना ही होता है
मैंने कोई प्रतिक्रया नही दी इस बात पर
इस तरह से पहली बार
बातचीत में शामिल हुआ  
मेरा बदलना.
**
अचानक एकदिन
मेरे कान को छूते हुए उसने कहा
तुम्हारे कान बुद्ध के कान के जैसे है
क्या तुमनें देखे है बुद्ध के कान?
मैंने चुटकी ली
उसने आत्मविश्वास से कहा
हाँ ! तुम्हारे कान देखना
बुद्ध के कान देखना ही है
फिर मैंने कोई सवाल नही किया
इस पर हसंते हुए उसने कहा
केवल कान मिलते है बाकि कुछ नही
अब मौन से बाहर से निकलो
और नई कविता सुनाओं.
**
गहरे अवसाद के पलों में
हम अक्सर हो जाते थे चुप
या हंसने लगते थे जोर-जोर से
हमारी सामान्य बातचीत की स्मृतियाँ
इसलिए भी है कम.
**
उसने पूछा
अच्छा एक बात बताओं
आदमी किसके लिए ज़िंदा रहता है?
मैंने कहा अपनी कायरता के लिए
और किसके लिए मर जाता है
शायद ज़िन्दगी के लिए
उसने स्पष्टता से कहा
तुम्हारें दोनों ही जवाब गलत है
तो सही तुम बता दो, मैंने कहा
आदमी प्यार के लिए ज़िंदा रहता है
और अपने लिए मर जाता है
मैं सहमत नही था
मगर असहमत भी नही था
फिर क्या था?
केवल जानती थी वो.

©डॉ. अजित 

नाराज़गी

कोई किसी को सायास
नाराज़ नही करना चाहता
मनुष्य के पास
इतना समय भी कहाँ
कि योजना बनाकर
किसी को नाराज़ कर सके

नाराजगी एक घटना है
वो घटती रहती है
दुनिया के किसी कोने में
पल-प्रतिपल

अच्छी बात यह है
नाराज़ लोग नही मिलते आपस में
वरना मनुष्य से घृणित
कोई प्राणी नही होता धरती पर

जहां प्यार है वहीं नाराजगी है
यह भावुक स्थापना
हमारी परवरिश का हिस्सा रही है मुद्दत से
मगर नाराज़गी प्यार के कारण नही होती
हर बार

दरअसल
नाराज़ होने की वजहें
होती है इतनी निजी कि
कई दफा हंसी छूट सकती है सुनकर
कई दफा आ सकता है रोना

नाराज़गियां बनती-बिगड़ती रहती है
यह एक अच्छी बात जरूर है
देर तक रुकी नाराज़गी
हमें साबित करती एक कमजोर इंसान

पहले मैं माफी मांगकर
नाराज़ आदमी को मजबूत करता था
अब लगता है यह भी गैर जरूरी
कमजोर रहना यदि किसी का चुनाव है
तो मैं क्या करूँ क्षमा प्रार्थना का अपव्यय?

हो सकता है ये बात सुनकर
आप हो जाएं नाराज़
समझ बैठे मुझे अहंकारी
मगर अब मैं नाराज़ लोगों को
नाराज़ ही रहने देना चाहता हूँ

बतौर मनुष्य यह मेरी एक मदद है
जो शायद समझ आएगी
एक लंबे अंतराल के
बीत जाने के बाद।

©डॉ. अजित

Wednesday, November 8, 2017

चुपचाप

उसके जाने के बाद
मैंने उसके जाने का
कारण नही तलाशा
मैनें उसके जाने को
बस देखा निरन्तरता में
आज भी उसको याद नही करता
बस उसके जाने को देखता हूँ
मन ही मन
वो इतनी खूबसूरती से गई कि
उसके जाने के बाद
मेरा प्यार और बढ़ गया उसके लिए

बिना किसी संकेत और पूर्वाभास के
देखते ही देखते चले जाना सामने से
ठीक वैसा था जैसे भोर तब्दील हो गई हो उजाले में

उसके जाने के बाद
मैंने उसे पुकारा नही
यदि ऐसा करता मैं
हो सकता है वो लौट भी आती
मगर मैं उसके जाने पर हो गया था
इस कदर मुग्ध कि
तय नही कर पाया पुकारने का सही वक्त

मनुष्य जब मनुष्य की जिंदगी से लेता है विदा
वो घटना इतिहास की तरह संदिग्ध हो जाती है
जिसके हो सकते है अलग-अलग पाठ

उसके चले जाने पर
मेरे पास भी है एक अलग पाठ
जिसे पढ़-सुनकर आप
हंस और रो सकते है
अपने अपने हिसाब से

बशर्ते
आपके जीवन से भी
कोई चला गया बड़ा आहिस्ता से
बिन बताए
चुपचाप।

©डॉ. अजित

Wednesday, October 4, 2017

पिता का फोन

मेरे पिता के पास था
ड्यूल सिम एंड्राइड मोबाइल
नई तकनीकी से नही था
उन्हें किसी किस्म कोई डर
अलबत्ता,वो नई चीजों को सीखने के लिए
रहते थे हमेशा उत्साहित और तत्पर
स्क्रीन टच फोन को प्रयोग करना सीखा था
उन्होंने बेहद तेज गति से
यदि अब वो होते तो
निसंदेह व्हाटस एप्प पर होते
मेरे से अधिक सक्रिय

उनके मरने पर मैं इस कदर डर गया
दाह संस्कार के बाद तुरन्त निकाले
दोनों सिम उनके मोबाइल से
मुझे लगा यदि कोई उनका परिचित करेगा फोन
कैसे बताऊंगा मैं हर बार एक ही बात
अब नही रहे पिताजी
अब बचा है केवल उनका सेलफोन

पिताजी की अंग्रेजी थी कामचलाऊ
उनकी फोनबुक की थी अपनी एक
मौलिक भाषा
भले ऐसी भाषा पर नही करेगा कभी
कोई भाषावैज्ञानिक शोध
मगर उन्हें रहते थे याद सब नाम
अपनी कूटभाषा मे
किसी कुशल गुप्तचर की तरह

पिता के मरने पर
मर गया उनके संपर्कों का
एक जीवंत संचार-संसार
शेष बचे रह गए
कंपनियों के प्रमोशनल एसएमएस
और उनकी पसंदीदा गानों का
एक अदद माइक्रो एसडी कार्ड
जो आज भी किसी दैवीय यंत्र की तरह
पड़ा है मेरे पर्स में

उनके मरने पर
उनके फोन ने घोषित किया होगा
मुझे बेहद मतलबी पुत्र
उनका फोन बंटा हमारे मध्य
किसी पैतृक सम्पत्ति की तरह
मगर एकदिन वो भी
पिता की तरह हो गया मृत
मशीन की यह अभी तक ज्ञात
सबसे श्रेष्ठ स्वामी भक्ति लगी मुझे

पिता का फोन बंद करने की
मेरी सारी वजह मनोवैज्ञानिक थी
पिता बन गए थे भूत
और
मैं भाग रहा था पिता के अतीत से
मेरा वर्तमान और भविष्य
हंसते थे एक क्रूर हंसी
पिता के संपर्कों दुनिया
पिता के जाने के बाद
मेरे लिए हो गई थी अर्थहीन

पिता का फोन बंद करने पर
एक नीरव शांति थी
एक घोषित निर्वात था
पिता का पलायन
कटु यथार्थ के रूप में हुआ घटित जीवन मे

पिता के फोन बंद करने पर
नही जताया किसी ने कोई ऐतराज़
चिता की तरह धीरे धीरे जलकर
समाप्त हो गई थी
लोक में उनकी स्मृतियां

पिता का फोन बंद करने की
सबसे त्रासद स्मृति यह है मेरे पास
उनके सगे मामा ने कहा
तुम्हें नही करना चाहिए था उसका फोन बंद
इससे पता चलता तुम्हें
तुम्हारे पिता पर था
किस-किस का कर्जा शेष

इस सुझाव को
व्यवहारिक समझा जा सकता था
मगर बतौर पुत्र मुझे यह लगा था
बेहद खराब
मरे हुए आदमी की सब चीजें छूट जाती है
कर्जा करता है मरने के बाद भी पीछा
और फोन बनता है इसका जरिया
ये बात लगती होगी
मरे हुए आदमी के जिंदा फोन को भी खराब

पिता के मरने पर
उनकी सामाजिक स्मृति का
एक मात्र साधन बचा था कर्जा
रिश्तेदारों के आत्मीय लोक में
उनके देह और कर्म
पा गए थे तत्काल मोक्ष
अस्थि कलश से भी
छोटी हो गई थी उनकी दुनिया

मुद्रा का यह सबसे क्रूरतम रूप लगा मुझे
जो मरे हुए आदमी को भी
करता था जिंदा रखने की
एक औपचारिक जिद

पिता का फोन देख
आज भी याद आती है कि
उनकी प्रिय रिंगटोन
वो यदा-कदा सपनों में आते है नजर
आज तक नही पूछा उन्होंने कभी
अपने प्रिय फोन के बारे में

न ही पूछे तो बेहतर है
क्योंकि उनकी तरह अब
फोन भी है मृत
दोनों आपस मे कर सकते है
बेहतर बातचीत

मैं केवल देख सकता हूँ
पिता का मोबाइल
पिता का दीवार पर टँगा चित्र
लिख सकता हूँ एक लंबी कविता
स्मृतियों का सहारा लेकर
कर सकता हूँ एकतरफा सम्वाद
पिता और उनका फोन
शायद इस बिनाह पर कर दें
मुझे माफ
मेरा बस इतना अधिकतम स्वार्थ है।

©डॉ. अजित

Monday, October 2, 2017

संतोष

मैनें विपत्ति में
कभी याद नही किया तुम्हें
ना तुम्हें बनाया
अपने विकट एकांत का साथी

इन दोनों के लिए
मैं अकेला ही पर्याप्त था

दुःखों पर तुमसें बात की हो
ऐसा भी नही आता याद

दरअसल, दुःख इतने निजी थे मेरे
उन्हें हर हाल में बचाना था मुझे
प्रेम की छांव से
यदि ऐसा न करता मैं
वो सूख नही पाते असुविधाओं की धूप में

तुम्हें मैं हाथ पकड़ ले गया उस जगह
जहां न एकांत था न दुःख और न कोई विपत्ति

मैंने जोखिम लिया
बात न करने का इन विषयों पर
मेरे पास दूसरे विषय कम थे
मगर मैं बातचीत को हमेशा मोड़ता रहा
भीड़,सुख,योजना और महत्वकांक्षा की तरफ

प्रेम की कल्पना में
यही सहारा था मेरे पास
और इतनी ही थी मेरी बातचीत में गुणवत्ता कि

मैं जितना कह पाया
उससे कई गुना ले गया बचाकर
अपने साथ

इसलिए
नही मिलेगा मेरी बातों से तुम्हें कोई अनुमान
मैं कब खुश था और कब नाखुश

तुम्हें मिलेगी मेरी बातों में एक पुनरावृत्ति
जैसे मैं अटक गया हूँ
एक खास मनःस्थिति में

मेरा मिलना इसलिए संदिग्ध है
मेरा कोई पता नही मिलता आपस में
मेरी बातों को जोड़कर नही बनता एक सारांश

हम दोनों की आश्वस्ति की
एकमात्र बड़ी वजह यही है
जिसे समझा गया है
प्रेम का आत्मिक सन्तोष।

©डॉ. अजित

Monday, September 18, 2017

‘ताकि सनद रहे’

मैं अपनी स्मृतियों से चूका हुआ और
उत्तम और मध्यम के बीच अटका
एक पुरुष हूँ
मेरी पूर्व प्रेमिका ने मुझे
सदा सुखी रहने का आशीर्वाद दिया था
और वर्तमान प्रेमिका ने शाप दिया है
कि मैं सदा भीड़ से घिरा रहा हूँ

मैं अकलेपन की तलाश में हूँ
मगर मेरी तलाश में
कुछ वक्त की शिकायतें है

प्रेमिका समेत हर रिश्तें का प्रेम
नही बचा सकता फिलहाल
मुझे चोटिल होने से

मेरे घाव इतने गुम किस्म के है
उन्हें देख याद आता है शरीर सौष्ठव

मैं किसी किस्म की उपचार की उम्मीद में  नही हूँ
क्योंकि मैं जानता हूँ
उपचार बीमारी का हो सकता है
बीमार का नही

मेरी बातों की ध्वनि से नकार की गंध आती है
मगर ये मेरे जीवन चरम आशावाद है
कि मैं हर हाथ को चूमना चाहता हूँ
मगर जैसे ही बढ़ता  हूँ आगे
मेरी स्मृतियाँ दे जाती दगा
और मैं चूम लेता हूँ खुद ही का हाथ

मेरा स्वाद हो गया है बेहद एकनिष्ठ
मेरे होंठ नही पहचानते है
मेरी खुद की जीभ को

मैं जैसे ही गुनगुनाता हूँ कोई गाना
तो भूल जाता हूँ अंतरे और मुखड़े का भेद
इस पर गाना नही बदलता मैं
बस गाना चबाने लगता हूँ
इस शाब्दिक हिंसा के लिए
गीतकार मुझे नही करेगा कभी माफ़

दरअसल, ये जो ‘मैं’ –‘मैं’ लिखकर
बकरा बन रहा हूँ मैं
ये भी मेरी स्मृतियों के चूकने का परिणाम ही है

मनुष्य और बकरे के भेद में
ढह गया है मेरा बचा-खुचा पुरुषार्थ

मुझे जो भी कुछ याद है
वो सफाई का एक बुद्धिवादी संस्करण है
मैं जो कुछ भूल गया हूँ
वो मेरा निजी व्याकरण था

मेरे पास फिलहाल है
लिपि का अन्धकार
और शब्दों का  रौशनदान

जहां से मैं रोज़ देखता हूँ
अपनी स्मृतियों के उड़ते हुए कबूतर
जिन्हें आप समझ सकते है
मेरी आत्मिक शान्ति का प्रतीक

ऐसा ना भी समझे तो भी नही पड़ेगा
मुझे कोई ख़ास फर्क

मेरी स्मृतियों ने मुझे बना दिया
इतना मजबूत और कमजोर एक साथ
कि अब मैं हंस सकता हूँ
छोटे अपमान पर
मैं रो सकता हूँ किसी बड़े  सम्मान पर

स्मृतियों से चूकने का
मेरे पास यही सबसे लौकिक प्रमाण है
जिसे कविता की शक्ल में
लिख दिया है इसलिए
‘ताकि सनद रहे’

©डॉ. अजित




Sunday, September 17, 2017

उसकी बातें

कुछ तारीफें झूठी तो
कुछ सच्ची थी
जो भी थी मगर अच्छी थी

उसकी बातों में
हंसी पिंघलती थी
वो सपनों में अक्सर
आंख खोलकर चलती थी

उसकी हंसी एक पहाड़ी झरना था
जिसके शोर हो सुन-सुन कर
हर पुराना जख्म मेरा भरना था

उसके पास नही कोई शिकायत थी
उसकी खुशबू जैसे कुरान की आयत थी

वो कहती हमेशा खुश रहना
मैं पूछता कैसे
तो कहती देखना शाम को नदी का बहना

फिर यूं हुआ वो खो गई
हमारी कुछ बातें दिन में सो गई

ख्वाब हो या हकीकत
दोनों में उसका किस्सा है
जो साथ जिया था हमने कभी
वो ज़िन्दगी का बेहतरीन हिस्सा है।

©डॉ. अजित

Tuesday, September 12, 2017

असुविधा

पिता को याद करने के लिए
पुराणों का सन्दर्भ लेना होगा
ये कल्पनातीत बात थी
मेरे लिए

पिता आकाश की तरह थे
उनके रहते बादल भी
बचा लेते थे धूप से
उनकी अनुपस्थिति में
धूप ने घेरा हर तरफ से मुझे

अब एक दिन
सूरज से करता हूँ निवेदन
भेजता हूँ उनकी रुचि का भोजन
तो धूप विनम्रता से आती है पेश

तमाम वैज्ञानिक चेतना के बावजूद
करता हूँ उम्मीद उनकी तृप्ति की

जब करता हूँ याद अपनी बदतमीजियां
तो हाथ कांपने लगते है मेरे
छूट जाता है अन्न और जल भूमि पर
और हड़बड़ा कर बैठ जाता हूँ मैं
एक अंधेरे कमरे में

पिता मुझे तलाश लेते होंगे
किसी भी अंधकार में
ये सोचकर मैं
नही करता रौशनी का इंतजार

पिता का खो जाना
खुद का खो जाना जैसा है
पिता नही बस उनकी
स्मृतियां मिलती है मुझसे
और करती है बड़े अजीब सवाल

कुछ सवालों के जवाब
मैं केवल पिता को देना चाहता हूँ
उनके अलावा नही हूँ
किसी के प्रति मैं जवाबदेह

इसलिए जवाबों के बोझ तले दबा
करता रहता हूँ याद उन्हें
पूरी शिद्दत के साथ

पिता मुझे कभी मजबूर
नही देखना चाहते थे
मगर मैं उन्हें दिखा पाया अपना
मात्र यही एक रूप

मैं पिता को कमजोर नही
देखना चाहता था
मगर वो अक्सर पड़ते गए कमजोर

असल जिंदगी
बड़ी अस्त व्यस्त थी हमारी
इतनी अस्त व्यस्त कि
पिता एकदिन निकल गए बहुत दूर

और मैं अपनी ज़िंदगी की
सबसे अच्छी खबर के इंतजार में रह गया
पिता मुझे देख सकते है
ये उनके लिए बड़ी सुविधा है

मैं पिता को नही देख सकता
ये मेरे जीवन की स्थायी असुविधा है।

©डॉ. अजित
(पिता के श्राद्ध पर)

बदलना

तुम बदल गई !
ये एक बेहद लोकप्रिय कथन होगा
इसके माध्यम से नही हो पाएगी
सम्प्रेषित मेरी कोई निजी बात
मैं हर उस बात से बचना चाहता हूँ
जो पहले कई कई बार कही का चुकी

जो बन गई हो एक जुमला
और खो गई हो अपना अर्थ

तुम बदल गई
तुम बेवफा हो
मुझे सख्त नफरत है
इन दोनों कथनों से

ना तुम बदली हो
ना तुम बेवफा हो

बावजूद इसके तुम क्या हो गई हो
बताने के लिए नही है मेरे पास शब्द
मैं अंदर से इस कदर रीत गया हूँ
कि मेरी आह लौट आती है
अंदर से ही अंदर की तरफ

तुम अब चित्र में नही हो
मगर मैं एक मानचित्र पर भरोसा किए बैठा हूँ
जिसके सहारे हमे मिलना था
कभी समन्दर किनारे
कभी पहाड़ पर
तो कभी निर्जन रेगिस्तान में

मैं कोई वादे याद नही दिला रहा हूँ
मैं बस देख रहा हूँ अवाक
सीमेंट की तरह दीवार का साथ छोड़ना
सीलन की तरह दीवार का साथ निभाना

शायद
मैं ही बदल गया हूँ
तभी तो नही देख पा रहा हूँ
तुम्हें इर्द-गिर्द
यदि मैं नही बदला होता तो
तुम्हें मैं देख लेता
अनुपस्थित में भी उपस्थित

अब जब नही देख पा रहा हूँ
लगता है शायद वक्त बदल गया है
मैं आवाज़ दे रहा हूँ अतीत से
जो सीधी जाती है भविष्य की तरफ

जिसे सुन समझ आ गया है इतना
हमारे मध्य का वर्तमान बदल गया है।

©डॉ. अजित

अस्तपाल की कविताएँ-3

अस्तपाल की कविताएँ-3
__
मैं और तुम
किसी इंश्योरेंस पैनल का हिस्सा नही है
हम बीमारी के खर्चे के मामलें में
थोड़ा  खुद के भरोसे है
थोड़ा दोस्तों के
और अंत में ईश्वर के
पैसे के इंतजाम का दबाव
थोड़ा-थोड़ा सबके भरोसे है
दरअसल भरोसा ही परास्त करेगा  
बीमारी के चक्रव्यूह को
इसलिए मुद्रा से अधिक मुझे
तुम्हारे भरोसे की फ़िक्र है.
***
अस्पताल के लिए हम भरोसेमंद नही है
हर चौबीस घण्टे में वो जमा करवाते है कुछ पैसा
और बताते है मेरा अकाउंट बैलेंस
बीमारी के अलावा एक लड़ाई खुद से भी है
जरूरत और सामार्थ्य का वर्गमूल निकालता हुआ
भूल जाता हूँ मैं तुम्हारी बीमारी और तुम्हें भी
यह एक नई किस्म की बीमारी है
जो लग गई है मुझे अस्पताल आकर.
**
दुनिया में दो किस्म की घड़ियाँ है
एक जो मेरी कलाई पर बंधी है
दूसरी जो अस्पताल की दीवार पर टंगी है
दोनों का समय  अलग-अलग है
मेरी घड़ी तेज चल रही है
अस्पताल की घड़ी की अपनी एक गति है
उसे देख भटक जाता है मेरा कालबोध
अस्पताल की और मेरी घड़ी
उस वक्त बताएगी सही समय
जब नर्सिंग स्टेशन पर सम्यक भाव से
सिस्टर निकालेगी डिस्चार्ज समरी का प्रिंटआउट
जब वो समझा रही होगी मुझे
तुम्हारी दवा लेने का समय
उस वक्त मन ही मन कहूंगा मैं
अब वक्त सही हो गया है.
**
कुलीन किस्म के अस्पतालों में
खाने की चीजें महंगी है
मगर कैंटीन में भीड़ है
दुःख से जूझता आदमी
भूल जाता है महंगाई का बोध
वो किसी भी कीमत पर मुक्ति चाहता है
भूख से भी
बीमारी से भी
अस्पताल की अंदरूनी चमक
चमकती है इसी मुक्ति के भरोसे.
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जब-जब डॉक्टर सवाल पूछता है तुमसे
मैं चाहता हूँ कि जवाब मैं दूं
तुम्हारी तकलीफ का
तुमसे अधिक अंदाज़ा है मुझे
बस इसलिए रह जाता हूँ चुप
अंदाजा केवल प्रेम में चलता है
विज्ञान में केवल चलता है सच
और तुमसे बेहतर सच बोलना
नही आता मुझे.

© डॉ. अजित