Tuesday, September 12, 2017

असुविधा

पिता को याद करने के लिए
पुराणों का सन्दर्भ लेना होगा
ये कल्पनातीत बात थी
मेरे लिए

पिता आकाश की तरह थे
उनके रहते बादल भी
बचा लेते थे धूप से
उनकी अनुपस्थिति में
धूप ने घेरा हर तरफ से मुझे

अब एक दिन
सूरज से करता हूँ निवेदन
भेजता हूँ उनकी रुचि का भोजन
तो धूप विनम्रता से आती है पेश

तमाम वैज्ञानिक चेतना के बावजूद
करता हूँ उम्मीद उनकी तृप्ति की

जब करता हूँ याद अपनी बदतमीजियां
तो हाथ कांपने लगते है मेरे
छूट जाता है अन्न और जल भूमि पर
और हड़बड़ा कर बैठ जाता हूँ मैं
एक अंधेरे कमरे में

पिता मुझे तलाश लेते होंगे
किसी भी अंधकार में
ये सोचकर मैं
नही करता रौशनी का इंतजार

पिता का खो जाना
खुद का खो जाना जैसा है
पिता नही बस उनकी
स्मृतियां मिलती है मुझसे
और करती है बड़े अजीब सवाल

कुछ सवालों के जवाब
मैं केवल पिता को देना चाहता हूँ
उनके अलावा नही हूँ
किसी के प्रति मैं जवाबदेह

इसलिए जवाबों के बोझ तले दबा
करता रहता हूँ याद उन्हें
पूरी शिद्दत के साथ

पिता मुझे कभी मजबूर
नही देखना चाहते थे
मगर मैं उन्हें दिखा पाया अपना
मात्र यही एक रूप

मैं पिता को कमजोर नही
देखना चाहता था
मगर वो अक्सर पड़ते गए कमजोर

असल जिंदगी
बड़ी अस्त व्यस्त थी हमारी
इतनी अस्त व्यस्त कि
पिता एकदिन निकल गए बहुत दूर

और मैं अपनी ज़िंदगी की
सबसे अच्छी खबर के इंतजार में रह गया
पिता मुझे देख सकते है
ये उनके लिए बड़ी सुविधा है

मैं पिता को नही देख सकता
ये मेरे जीवन की स्थायी असुविधा है।

©डॉ. अजित
(पिता के श्राद्ध पर)

5 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

नमन। सुन्दर।

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14-09-17 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2727 में दिया जाएगा
धन्यवाद

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

वे अक्सर पड़ते थे कमजोर; शायद मेरे कारण !!

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

मैं पिता जी को फिर कभी देख नहीं सकता, यह मेरे जीवन का स्थाई दुःख है !

Onkar said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति