अस्तपाल
की कविताएँ-3
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मैं
और तुम
किसी
इंश्योरेंस पैनल का हिस्सा नही है
हम
बीमारी के खर्चे के मामलें में
थोड़ा खुद के भरोसे है
थोड़ा दोस्तों के
और
अंत में ईश्वर के
पैसे
के इंतजाम का दबाव
थोड़ा-थोड़ा
सबके भरोसे है
दरअसल
भरोसा ही परास्त करेगा
बीमारी
के चक्रव्यूह को
इसलिए
मुद्रा से अधिक मुझे
तुम्हारे
भरोसे की फ़िक्र है.
***
अस्पताल
के लिए हम भरोसेमंद नही है
हर
चौबीस घण्टे में वो जमा करवाते है कुछ पैसा
और
बताते है मेरा अकाउंट बैलेंस
बीमारी
के अलावा एक लड़ाई खुद से भी है
जरूरत
और सामार्थ्य का वर्गमूल निकालता हुआ
भूल
जाता हूँ मैं तुम्हारी बीमारी और तुम्हें भी
यह
एक नई किस्म की बीमारी है
जो
लग गई है मुझे अस्पताल आकर.
**
दुनिया
में दो किस्म की घड़ियाँ है
एक
जो मेरी कलाई पर बंधी है
दूसरी
जो अस्पताल की दीवार पर टंगी है
दोनों
का समय अलग-अलग है
मेरी
घड़ी तेज चल रही है
अस्पताल
की घड़ी की अपनी एक गति है
उसे
देख भटक जाता है मेरा कालबोध
अस्पताल
की और मेरी घड़ी
उस
वक्त बताएगी सही समय
जब
नर्सिंग स्टेशन पर सम्यक भाव से
सिस्टर
निकालेगी डिस्चार्ज समरी का प्रिंटआउट
जब
वो समझा रही होगी मुझे
तुम्हारी
दवा लेने का समय
उस
वक्त मन ही मन कहूंगा मैं
अब
वक्त सही हो गया है.
**
कुलीन
किस्म के अस्पतालों में
खाने
की चीजें महंगी है
मगर
कैंटीन में भीड़ है
दुःख
से जूझता आदमी
भूल
जाता है महंगाई का बोध
वो
किसी भी कीमत पर मुक्ति चाहता है
भूख
से भी
बीमारी
से भी
अस्पताल
की अंदरूनी चमक
चमकती
है इसी मुक्ति के भरोसे.
**
जब-जब
डॉक्टर सवाल पूछता है तुमसे
मैं
चाहता हूँ कि जवाब मैं दूं
तुम्हारी
तकलीफ का
तुमसे
अधिक अंदाज़ा है मुझे
बस
इसलिए रह जाता हूँ चुप
अंदाजा
केवल प्रेम में चलता है
विज्ञान
में केवल चलता है सच
और
तुमसे बेहतर सच बोलना
नही
आता मुझे.
©
डॉ. अजित
1 comment:
बहुत सुन्दर।
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